रविवार, 9 मार्च 2014

भाषान्तर......












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सियाह हाशिये का मंटो - बलराम अग्रवाल

बलराम अग्रवाल 
धरती के हर आदमी में कुछ खूबियाँ होती हैं और कुछ खराबियाँ। गोस्वामी तुलसीदास के शब्दों में-'सुमति कुमति सब के उर रहहीं।' अर्थात अच्छाई और बुराई हर व्यक्ति के अन्तर में निहित है। अब, अच्छे या बुरे, जिस भाव का आधिक्य जिसमें नजर आने लगता है, वैसा ही वह कहलाने लगता है। लेकिन व्यक्ति के भीतर के अच्छेपन या बुरेपन का आकलन करने वाली नजर का इस योग्य होना अनिवार्य है, हर आदमी के बूते का यह आकलन नहीं है।

'सियाह हाशिये' की लघुकथाओं पर बात करने से पहले बेहतर होगा कि हम उसके रचनाकार उर्दू कथाकार सआदत हसन मंटो के बारे में दो-चार जरूरी बातें जान लें। मंटो उम्रभर अपने खिलाफ ऐसे तंग दिलोदिमाग लोगों की कारगुजारियों से टकराते और आहत होते रहे, जो उनके काम का आकलन करने के योग्य कभी थे ही नहीं। एक जगह मुहम्मद हसन असकरी ने मंटो के कम शिक्षित होने का जिक्र यों किया है-'अब इसे क्या कहें कि आठवीं और नवीं दहाई के अफसानानिगारों के सीमित ज्ञान का पता न तो आलोचकों को है, न खुद अफसानानिगारों को; कि जिस बरस अपने अफसाने लिखने शुरू करते हैं, उसी बरस पुस्तक छपवा लेते हैं और उसी बरस अपनी अफसानानिगारी पर दो-तीन लेख लिखवा लेते हैं; उसी बरस किसी उर्दू एकेडमी से इनाम हासिल कर लेते हैं और फिर उसी बरस मर जाते हैं।'

क्या यह कम आश्चर्य की बात है कि इन मुहम्मद हसन असकरी ने ही 'हाशिया आराई' शीर्षक से 'सियाह हाशिए' की भूमिका लिखी थी?

मंटो का जन्म लुधियाना जिले के समराला नामक स्थान में 11 मई, 1912 को एक कश्मीरी मुस्लिम परिवार में हुआ था। वह अपने पिता की दूसरी बीवी की आखिरी सन्तान थे। उनके तीन सौतेले भाई भी थे जो उम्र में उनसे काफी बड़े थे और विलायत में तालीम पा रहे थे। वह उनसे मिलना और बड़े भाइयों जैसा सुलूक पाना चाहते थे, लेकिन यह सुलूक उन्हें तब मिला जब वह साहित्य की दुनिया के बहुत बड़े स्टार बन चुके थे।अपने बड़े भाइयों से एकदम उलट, मंटो का मन स्कूली पढ़ाई में बिल्कुल भी नहीं लगता था। यही वजह थी कि मैट्रिक में लगातार तीन बार फेल होने के बाद उसे वह सन 1931 में पास कर सके, यानी कि 19 बरस की पकी उम्र में।

आल इंडिया रेडियो में काम करते हुए वह दिल्ली में रहे और उस दौरान उन्होंने लगभग 100 रेडियो नाटक लिखे। अगस्त 1942 में, करीब 19 माह दिल्ली में रहने के बाद, वह बंबई पहुँच गए।और, बंबई को मंटो ने इस कदर जिया कि 28 अक्टूबर, 1951 को अपने ऊपर आक्षेप के जवाब में अपने एक बयान में उन्होंने कहा था-'वहाँ (बंबई में) बारह बरस रहने के बाद जो कुछ मैंने सीखा, यह उसी का बायस है कि मैं यहाँ पाकिस्तान में मौजूद हूँ। यहाँ से कहीं और चला गया तो वहाँ भी मौजूद रहूँगा-मैं चलता-फिरता बंबई हूँ। मैं जहाँ भी कयाम करूँगा, वहीं मेरा अपना जहान आबाद हो जाएगा।'

यह वाकई गौर करने वाला बयान है। दिल्ली से बंबई पहुँचे मंटो ने बंबई को समझा और (खुद) चलता-फिरता बंबई बन गया। यह बात पाकिस्तान के नागरिकों की समझ में न आ सकी। एक इंसान के तौर पर मंटो की परेशानी शायद यह रही कि विभाजन के बाद उन्होंने अपने आपको महज मुसलमान महसूस किया और पाकिस्तान को ही उन्होंने अपना मुल्क समझा। वहाँ की आबो-हवा में वह असंगत विचारों को भी सहज ही स्वीकार लेने वाला भारतीय संस्कार तलाशते रहे। पाकिस्तान पहुँचकर वह प्रगतिशीलता का नकाब पहनकर साहित्य की जमीन पर जमे बैठे कट्टरपंथियों में इंसानियत-से सरोकारों के अंकुर तलाशते रहे और ताउम्र असफल रहे। उन्हें बार-बार यह सफाई पेश करनी पड़ी कि 'मुझेआप अफसानानिगार की हैसियत से जानते हैं और अदालतें एक फोह्शनिगार (अश्लील लेखक) की हैसियत से। हुकूमत कभी मुझे कम्युनिस्ट कहती है और कभी मुल्क का बहुत बड़ा अदीब।…मैं पहले भी सोचता था और अब भी सोचता हूँ कि मैं क्या हूँ और इस मुल्क में, जिसे दुनिया की सबसे बड़ी इस्लामी सल्तनत कहा जाता है, मेरा क्या मकाम (स्थान) है, मेरा क्या मस्रिफ (उपयोग) है।…आप इसे अफसाना कह लीजिए, मगर मेरे लिए, यह एक तल्ख हकीकत (कड़वी सच्चाई) है कि मैं अभी तक खुद अपने मुल्क में, जिसे पाकिस्तान कहते हैं और जो मुझे बहुत अजीज है, अपना सही मकाम तलाश नहीं कर सका। यही वजह है कि मेरी रूह बेचैन रहती है। यही वजह है कि मैं कभी पागलखाने में और कभी हस्पताल में होता हूँ।'

अपनी इस बेचैनी की एक खास वजह बताते हुए वह लिखते हैं-'हमारी हुकूमत मुल्लाओं को भी खुश रखना चाहती है और शराबियों को भी। मजे की बात यह है कि शराबियों में कई मुल्ला मौजूद हैं और मुल्लाओं में अक्सर शराबी।'

एक लेखक के तौर पर मंटो की विशेषता यह है कि अहसास के शुरुआती छोर से लेकर उसके आखिरी छोर तक वह न तो मुसलमान है, न हिन्दू, न कश्मीरी और न पंजाबी; इंसान है, सिर्फ इंसान। अपराध और दंड, अच्छाई और बुराई की वे तमाम धारणाएँ जो सदियों से हमारे समाज में प्रचलित रही हैं, मंटो उन्हें रद्द करता है। मंटो की चेतना में मनुष्यों की समानता की एक ताकतवर लहर उस चेतना की जीवन-रेखा के रूप में हमेशा सक्रिय रही। वह जीवन के किसी भी अनुभव, मानव-अस्तित्व की किसी भी अभिव्यक्ति से न तो कभी भयभीत होता है और न ही उससे घृणा और ऊब का प्रदर्शन करता है।

'अदबे-लतीफ़' (नया साहित्य) के वार्षिकांक (1944) में प्रकाशित 1 जनवरी, 1944 को लिखित अपने लेख 'अदबे-जदीद' (आधुनिक साहित्य) में मंटो ने लिखा है : 'जिस नुक्स को मेरे नाम से मंसूब किया (जोड़ा जाता) है, दरअसल मौजूदा निजाम का नुक्स है-मैं हंगामापसंद नहीं। मैं लोगों के खयालातो-जज्बात हैजान (उबाल) पैदा करना नहीं चाहता। मैं तहजीबो-तमद्दुन की और सोसाइटी की चोली क्या उतारूँगा जो है ही नंगी। मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश भी नहीं करता, इसलिए कि यह मेरा काम नहीं, दर्जियों का है। लोग मुझे सियाह-कलम कहते हैं, लेकिन मैं तख्ता-ए-सियाह पर काली चाक से नहीं लिखता, सफेद चाक इस्तेमाल करता हूँ कि तख्ता-ए-सियाह की सियाही और भी ज़्यादा नुमायाँ हो जाए।'

बहुत कम लोग जानते होंगे कि 'सियाह हाशिये' पर प्रगतिशील उर्दू लेखकों व आलोचकों के कड़वे रवैयों ने मंटो को अंतहीन दिमागी तकलीफ दी और उसमें बेहिसाब गुस्सा पैदा किया। उस तकलीफ और उस गुस्से को जाने बिना मंटो और उनके 'सियाह हाशिये' को समझना लगभग असम्भव है। अपनी बारहवीं किताब 'यज़ीद' की भूमिका 'ज़ैबे-कफ़न' (कफन का गला) में इस तकलीफ और गुस्से का उन्होंने काफी खुलासा किया है। वह लिखते हैं-'मुल्क के बँटवारे से जो इंकिलाब बरपा हुआ, उससे मैं एक अरसे तक बागी रहा और अब भी हूँ…मैंने उस खून के समन्दर में गोता लगाया और चंद मोती चुनकर लाया- अर्के-इन्फिआल (लज्जित होने पर छूटने वाले पसीने) के और मशक्कत (श्रम) के, जो उसने अपने भाई के खून का आखिरी कतरा बहाने में सर्फ (खर्च) की थी; उन आँसुओं के, जो इस झुँझलाहट में कुछ इंसानों की आँखों से निकले थे कि वह अपनी इंसानियत क्यों खत्म नहीं कर सके! ये मोती मैंने अपनी किताब 'सियाह हाशिये' में पेश किए।…यकीन मानिए कि मुझे उस वक्त दुख हुआ, बहुत दुख हुआ, जब मेरे चंद हमअस्रों (समकालीनों) ने मेरी इस कोशिश ('सियाह हाशिये') का मजहका उड़ाया (निंदा की, उपहास किया)। मुझे लतीफाबाज या वागो (हाय-हाय चिल्लानेवाला),सनकी, नामाकूल (अशिष्ट) और रजअतपसंद (जिसके विचारों में प्रगतिशीलता न हो) कहा गया। मेरे एक अजीज दोस्त ने तो यहाँ तक कहा कि मैंने लाशों की जेबों में से सिगरेट के टुकड़े, अँगूठियाँ और इसी किस्म की दूसरी चीजें निकाल-निकालकर जमा की हैं।…

'मैं इंसान हूँ। मुझे गुस्सा आया।…

'मुझे गुस्सा था कि इन लोगों को क्या हो गया है-यह कैसे तरक्कीपसन्द हैं, जो तनज्जुल (पतन) की ओर जाते हैं; यह इनकी सुर्खी (लाली) कैसी है जो सियाही की तरफ दौड़ती है…

'मुझे गुस्सा था, इसलिए कि मेरी बात कोई भी नहीं सुनता था-तकसीमे-मुल्क के बाद मुल्क (यानी पाकिस्तान) में इफ्रातो-तफ्रीत (तारतम्य बैठाने) का आलम था। जिस तरह लोग मकान और मिलें अलाट करवा रहे थे, उसी तरह वह बुलंद मकामों पर भी कब्जा करने की जद्दोजहद में मसरूफ थे।'

उर्दू प्रगतिशीलों के हाथों 'सियाह हाशिये' की फजीहत का दर्द मंटो ने अपने कहानी-संग्रह 'चुग़द' की भूमिका में भी उँड़ेला है-'मेरी किताब 'सियाह हाशिये' तरक्कीपसंदों ने सिर्फ़ इसलिए नापसंद की कि इस पर दीबाचा (भूमिका) हसन असकरी का था-चुनांचे अली सरदार ने हस्बे-मामूल बड़े खुसूस और मुहब्बत के साथ मुझे लिखा: 'यहाँ लाहौर से मेरे पास एक खबर आई है कि तुम्हारी किसी नई किताब पर हसन असकरी दीबाचा (भूमिका) लिख रहे हैं। समझ में नहीं आ सका, तुम्हारा और हसन असकरी का क्या साथ है? मैं हसन असकरी को बिलकुल मुख्लिस (निश्छल) नहीं समझता।

'तरक्कीपसन्दों की खबर-रसानी का सिलसिला और इंतजाम काबिले-दाद है। यहाँ की खबरें खेतवाड़ी के 'क्रेमलिन' में बड़ी सेहत से यूँ चुटकियों में पहुँच जाती हैं-अली सरदार को यहाँ से जो खबर मिली, बड़ी मोतबर (विश्वसनीय) थी; चुनांचे नतीजा यह हुआ कि 'सियाह हाशिए' प्रेस की सियाही लगने से पहले (यानी कि छपने से पहले) ही रूसियाह (काला मुँह) करके रजअतपसंदी (प्रतिक्रियावाद) की टोकरी में फेंक दी गई।'

अब जरा 'सियाह हाशिये' के इस समर्पण पर गौर फरमाएँ:

उस आदमी के नाम

जिसने अपनी खूँरज़ियों का ज़िक्र करते हुए कहा :

" जब मैंने एक बुढ़िया को मारा तो मुझे ऐसा लगा ,

मुझसे क़त्ल हो गया है! "

'सियाह हाशिये' की अधिकतर रचनाओं को पढ़ने के बाद पता चलता है कि 'मंटो के इंसानी सरोकार और अनुभव केवल उच्छृंखल मर्दों और गिरी हुई औरतों की नीच भावनाओं तक सीमित नहीं हैं।' हाँ, इतना जरूर है कि 'सियाह हाशिये' की सभी 32 कथाएँ, यहाँ तक कि उसका समर्पण भी, भारत विभाजन के वक्त हुई घिनौनी घटनाओं पर ही आधारित हैं। शायद इसीलिए 'सआदत हसन मंटो दस्तावेज़' के संपादकद्वय ने उन सबको 'एक ही अफसानचा' माना है। एक पूरी पुस्तक में सिर्फ एक अफसाना हो, यह सम्भव है; लेकिन 32 अलग-अलग कहानियों को एक ही कहानी 'मानना' बिल्कुल वैसा ही तकलीफदेह है जैसा कि मंटो के जीवित रहते उर्दू प्रगतिशीलों द्वारा इस पुस्तक को नकारने की साजिश रचना था।

'सियाह हाशिये' की कितनी और कौन-कौन-सी रचनाएँ लघुकथा के पैमाने पर खरी उतरती हैं, यह अलग बात है; महत्वपूर्ण बात यह है कि कथाकार की दृष्टि से मंटो लघुकथा के 'सिर्फ डाइग्नोस' सिद्धान्त का मजबूत पैरोकार है। वह कहता है : "हम मर्ज बताते हैं, लेकिन दवाखानों के मुहतमिम (प्रबंधक) नहीं हैं…"

मंटो मनोवैज्ञानिक वास्तविकताओं के वर्णन की मर्यादाओं से अच्छी तरह परिचित थे और यह जानते थे कि सच्चाई केवल सतह पर तैरती हुई वास्तविकताओं की खोज तक सीमित नहीं होती।…मोपासां की तरह मंटो को भी इस बात में मजा आता था कि इंसान की वहशियाना भावनाएँ इस तरह नंगी की जाएँ कि पढ़ने वाला चौंक उठे।लघुकथा में 'चौंक' की 'छौंक' लगाने के हिमायती आज भी अनगिनत हैं; लेकिन समकालीन लघुकथा को स्तरीयता और प्रभावपूर्णता प्रदान करने वाले तत्वों में 'चौंक' का स्थान गौण ही है, प्रमुख नहीं। 'सियाह हाशिये' की रचनाओं के माध्यम से आप मंटो के मानवीय सरोकार और मानव मनोविज्ञान संबंधी उनकी समझ का आकलन भी काफी हद तक कर सकते हैं।

अधिकतर, होता यह है कि लोग दोहरा चरित्र जीते हैं। सामान्य जीवन में कुछ और होते हैं और लेखकीय जीवन में कुछ और। मंटो की विशेषता यह है कि वह, सामान्य और सृजनात्मक, दोनों प्रकार के जीवन को एक संतुलन के साथ मिलाकर जीते हैं। शायद यही कारण है कि अपने सामान्य जीवन में सृजनात्मकता के कारण उन्हें कई कष्ट भी झेलने पड़े। अस्तित्व की एकता में उनका विश्वास इतना पक्का था और उस परिवेश के प्रति जिसमें वह पले-पढ़े और बढ़े, उनमें इतना लगाव भरा हुआ था कि 'जिंदगी के आखिरी सात बरसों में मंटो ने हमेशा पंजाबी में बात की। मंटो कहता था : 'जब मैं उर्दू में बोलता हूँ तो लगता है, झूठ बोल रहा हूँ…' और '…जब मैं उर्दू बोलता हूँ तो मेरा जबड़ा दुखने लगता है।' क्या यह बयान मंटो का अपने जन्मस्थान, अपनी मातृभाषा के प्रति असीम लगाव से लबालब नहीं है?

'दस्तावेज' के संपादकद्वय ने 'सियाह हाशिये' को एक कहानी मानते हुए 'मक्तल' (कत्ल करने की जगह) शीर्षक तले संग्रहीत किया है, जबकि 'सियाह हाशिये' पाकिस्तान में बस जाने के बाद मंटो की तीसरी किताब थी जो 'मकतबा-ए-जदीद' से प्रकाशित हुई। सन 1951 तक यह उनकी सातवीं किताब थी। विभाजन की त्रासदी को निहायत ईमानदार गहराई के साथ व्यक्त करने वाली उनकी विश्वस्तरीय कहानी 'टोबा टेक सिंह' भी इसी दौरान लिखी गई। वीभत्सता, उलझन, बेजारी, नफरत, दुख और क्रोध के बजाय मंटो कहीं-कहीं तो थोड़े दुख-भरे मसखरेपन के साथ मानव की दुरवस्था का तमाशा देखता है और इस दुरवस्था में छिपे सच की ताकत के ऐसे बोध का प्रमाण देता है, जिसे किसी दूसरे बाहरी सहारे की जरूरत नहीं होती-छोटी-छोटी बातों में वह एक गहरी मानवीय त्रासदी का पता लगाता है।…एक ऐसे दौर में, जब इंसान वहशी बन गया था और निहत्थे, कमजोर बच्चे, बूढ़े, औरतें जानवरों की तरह जिबह किए जा रहे थे, केवल रक्तपात और विनाश के वर्जन या उनके विश्लेषण के आधार पर सच्ची कहानियाँ नहीं लिखी जा सकती थीं। उस त्रासदी की सच्चाई तक पहुँचने और उसे एक रचनात्मक सच्चाई का रूप देने के लिए, अपने अस्तित्व और अपने परिवेश के बीच एक दूरी, अपनी तबीयत में एक निढालपन की जगह एक संगीनी (गंभीरता) पैदा करने की जरूरत थी।

विभाजन से पहले का सामाजिक और मानसिक वातावरण, फिर विभाजन के बाद का वातावरण, दंगों, साम्प्रदायिकता और साम्प्रदायिक दंगों में उलझी हुई हिन्दू-मुस्लिम राजनीति-इन सब की तरफ़ 'मक्तल' की कहानियों में कहीं स्पष्ट तो कहीं धुँधले इशारे मिलते हैं।…मंटो के अपने सरोकार राजनीति और अराजनीतिक के फेर में पड़ने के बजाय अपने गहरे मानव प्रेम और नैतिक क्षेत्र के माध्यम से एक विशिष्ट बोध को अभिव्यक्त करते हैं। मंटो हर यथार्थ को बिना किसी फेर-बदल के एक नया यथार्थ बना देते हैं।…ब्रिटिश भारत के अंतिम चरण, फिर स्वतंत्रता, विभाजन और दंगों की भयावहता और उस पूरे युग के त्रासद तत्वों का प्रेक्षण मंटो ने इतिहास की प्रयोगशाला के रूप में नहीं किया था।…कोई भी राजनीतिक घटना मंटो के लिए केवल राजनीतिक नहीं थी। मंटो ने मानवीय अस्तित्व और उसके फैलाव में समाई हुई सच्चाइयों की समग्रता के साथ-साथ एक सच्चे मानव प्रेमी साहित्यकार के 'वजन' की व्यपकता के मानदण्ड को हमेशा सामने और सुरक्षित रखा। ऐसा न होता तो 'सियाह हाशिये' के अँधेरों से उजाले की किसी भी लकीर का फूटना असम्भव था। विभाजन ने मंटो के दिलो-दिमाग को इस बुरी तरह झकझोरा था कि उन्होंने 'जब कभी 1947 का जिक्र किया, वतन की आजादी के ताल्लुक से नहीं किया। उन्होंने हमेशा 1947 का जिक्र 'तकसीम' और 'बँटवारे' के ताल्लुक से किया।

मंटो के लेखकीय चरित्र को समझने के लिए यह जानना भी जरूरी है कि 'पहला अफसाना उसने बउनवान 'तमाशा' लिखा, जो जलियाँवाले बाग के खूनी हादिसे से मुतअल्लिक था। यह अफसाना उसने अपने नाम से न छपवाया। यही वजह है कि वह पुलिस की दस्तबुजी (हत्थे चढ़ने) से बच गया।

अपने आखिरी बरसों में मंटो ने बेतहाशा लिखा।

सच्चा साहित्य तो उसी स्थिति में लिखा जा सकता है, जब लिखने वाला हिन्दू जुल्म, मुसलमान जुल्म, या कांग्रेस की राजनीति और मुस्लिम लीग की राजनीति, या हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के फेर में पड़े बिना, उस अनुभव पर हाथ डाल सके जिसका सरोकार इस सवाल से हो कि सामूहिक पागलपन के उस युग में इंसान के हाथों इंसान पर क्या बीती? उस इंसान का नाम और धर्म और सम्प्रदाय, ये सारी बातें गौण हैं।

और अंत में, मैं 18 अगस्त, 1954 को लिखी उनकी एक ऐसी रचना का जिक्र करना बहुत मुनासिब समझता हूँ जिसे अक्सर उनकी रचनाओं में गिना ही नहीं जाता है; और जो उनकी जिन्दादिली का अनुपम नमूना है:

786

कत्बा
यहाँ सआदत हसन मंटो दफ़न है।
उसके सीने में फ़न्ने-अफसानानिगारी के
सारे अस्रारो-रमूज़ दफ़्न हैं-
वह अब भी मनों मिट्टी के नीचे सोच रहा है
कि वह बड़ा अफसानानिगार है या खुदा।

सआदत हसन मंटो
18 अगस्त, 1954

क्या यह चौंकाने वाला तथ्य नहीं है कि यह 'कत्बा' लिखने के ठीक 5 माह बाद 18 जनवरी, 1955 को सुबह साढ़े-दस बजे मंटो को लेकर एंबुलेंस जब लाहौर के मेयो अस्पताल के पोर्च में पहुँची; डाक्टर लपके-लेकिन…शरीर को मनों मिट्टी के नीचे दफ्न कर देने की खातिर मंटो की पवित्र आत्मा उसे छोड़कर बहुत दूर जा चुकी थ

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