गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

मंगलेश डबराल की 10 प्रिय कविताएं










हिंदी दिवस: सौ बरस, 10 श्रेष्ठ कविताएं

 शनिवार, 14 सितंबर, 2013 को 07:29 IST तक के समाचार


मुक्तिबोध ने अंधेरे में, ब्रह्मराक्षस, चांद का मुंह टेढ़ा है जैसी प्रसिद्ध कविताएं रचीं.
हिंदी साहित्य में पिछले सौ वर्षों में जो सैकड़ों कविताएं प्रकाशित हुई हैं उनमें से मैंने अपनी पसंद से ये दस श्रेष्ठ कविताएं चुनी हैं.
1. अंधेरे में – गजानन माधव मुक्तिबोध
आधुनिक हिंदी कविता में सन् 2013 एक ख़ास अहमियत रखता है क्योंकि इस वर्ष गजानन माधव मुक्तिबोध की लंबी कविता ‘अंधेरे में’ की अर्धशती शुरू हो रही है. सन् 1962-63 में लिखी गई और नवंबर 1964 की ‘कल्पना’ पत्रिका में प्रकाशित यह कविता इन 50 वर्षों में लगातार प्रासंगिक होती गई है और आज एक बड़ा काव्यात्मक दस्तावेज़ बन चुकी है.
समय बीतने के साथ वह अतीत की ओर नहीं गई, बल्कि भविष्य की ओर बढ़ती रही है. आठ खंडों में विभाजित इस कविता के विशाल कैनवस पर स्वाधीनता संघर्ष, उसके बाद देश की राजनीति और समाज और बुद्धिजीवी वर्ग में आई नैतिक गिरावट के बीहड़ बिंब हैं और यथास्थिति में परिवर्तन की गहरी तड़प है.
उसमें चित्रित शक्तिशाली वर्गों और बौद्धिक क्रीतदासों की शोभा-यात्रा का रूपक आज भी सच होता दिखता है. हिंदी के एक और अद्वितीय कवि शमशेर बहादुर सिंह ने लिखा था कि यह कविता ‘देश के आधुनिक जन-इतिहास का, स्वतंत्रता के पूर्व और पश्चात् का एक दहकता दस्तावेज़ है. इसमें अजब और अद्भुत रूप का जन का एकीकरण है.’
2. मेरा नया बचपन – सुभद्रा कुमारी चौहान
कई वर्ष पहले लिखी गई सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता ’मेरा नया बचपन’ अपनी मार्मिकता और निश्छलता के लिए अविस्मरणीय है. यह कविता काफ़ी समय तक स्कूली पाठ्यक्रम में लगी रही और पुरानी पीढ़ी के बहुत से लोगों को आज भी कंठस्थ होगी.
’खूब लड़ी मरदानी वह तो झांसी वाली रानी थी’ जैसी ओजस्वी कविता लिखनेवाली सुभद्रा जी इस कविता में अनूठी कोमलता निर्मित करती हैं. अपने बीते हुए बचपन को याद करते हुए वो सहसा अपनी नन्ही बेटी को सामने पाती हैं और देखती हैं कि उनका बचपन एक नए रूप में लौट आया है.
एक बचपन की स्मृति और दूसरे बचपन के वर्तमान के संयोग से एक विलक्षण कविता उपजती है जो सरल और ग़ैर-संश्लिष्ट होने के बावजूद मर्म को छू जाती है. सीधे हृदय से निकली हुई ऐसी रचनाओं को भूलना कठिन है.
3. सरोज स्मृति – निराला

मंगलेश डबराल की पसंद

  • वोल्गा से गंगा – राहुल सांकृत्यायन
  • अनामिका – निराला
  • कुछ और कविताएं – शमशेर बहादुर सिंह
  • ठुमरी – फणीश्वरनाथ रेणु
  • एक साहित्यिक की डायरी – मुक्तिबोध
  • निराला की साहित्य साधना 1- रामविलास शर्मा
  • हंसो हंसो जल्दी हंसो – रघुवीर सहाय
  • आधा गांव – राही मासूम रज़ा
  • सपना नहीं – ज्ञानरंजन
  • संसद से सड़क तक - धूमिल
निराला की लंबी कविता ’सरोज स्मृति’ भी ऐसी ही रचना है जो अपने समय को लांघ कर आज भी समकालीन है. विश्व कविता में शोकगीत (एलेजी) को बहुत अहमियत दी जाती है और इस कसौटी पर निराला की यह कविता विश्व के सर्वश्रेष्ठ शोकगीतों में रखी जा सकती है.
इस कविता में निराला अपनी बेटी सरोज के बचपन के खलों, फिर विवाह और असमय मृत्यु की विडंबना-भरी कहानी कहते हैं, जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवाद पर तीखी चोट करते हैं और एक असहाय पिता के रूप में खुद को धिक्कार भेजते हैं:
’धन्ये, मैं पिता निरर्थक था/ तेरे हित कुछ कर न सका’
‘सरोज स्मृति’ संवेदना को विकल कर देने वाली कविता है और दो स्तरों पर पाठक के भीतर अपनी छाप छोड़ती है: पहले करुणा और ग्लानि के स्तर पर और फिर घटना के ब्यौरों और कथा कहने के स्तर पर. ’राम की शक्तिपूजा’ जैसी महाकाव्यात्मक विस्तार की रचना को निराला की प्रतिनिधि कविता माना जाता है, लेकिन ’सरोज स्मृति’ का महत्व यह भी है कि उसमें निराला अपने क्लासिकी सांचे को तोड़कर कविता को कथा के संसार में ले आते हैं.
4. टूटी हुई बिखरी हुई – शमशेर बहादुर सिंह
‘सरोज स्मृति’ की करुणा के बाद शमशेर बहादुर सिंह की ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ में प्रेम की करुणा दिखाई देती है, जो अपने विलक्षण बिंबों, अति-यथार्थवादी दृश्यों के कारण चर्चित हुई. यह प्रेम का प्रकाश-स्तंभ है. एक प्रेमी का विमर्श, उसका आत्मालाप और ख़ुद को मिटा देने की उत्कट इच्छा.
इस कविता में अंतर्निहित संगीत पाठक के भीतर एक उदास और खफीफ अनुगूंज छोड़ता रहता है. इस अनुगूंज को रघुवीर सहाय जैसे कवि ने अपनी एक टिप्पणी में सुंदर ढंग से व्याख्यायित किया था. कविता में प्रेम के बारे में जब भी कोई ज़िक्र होगा, ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ उसमें ज़रूर नज़र आएगी.
5. कलगी बाजरे की – अज्ञेय
खड़ी बोली की कविता का इतिहास अभी सौ वर्ष का भी नहीं है, लेकिन उसमें विभिन्न आंदोलनों के पड़ाव काफ़ी महत्वपूर्ण हैं. ऐसा ही एक प्रस्थान-बिंदु प्रयोगवाद या नयी कविता है, जिसकी घोषणा अज्ञेय की कविता ‘कलगी बाजरे की’ बखूबी करती है.
पुराने प्रतीकों-उपमानों को विदा करने और प्रेमिका के लिए ‘ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका’ की बजाय ‘दोलती कलगी छरहरे बाजरे की’ जैसा आधुनिक संबोधन देने के कारण इस कविता की काफी चर्चा हुई.कविता में छायावादी बिंबों से मुक्ति और नयी कल्पना को अभिव्यक्ति देनेवाली यह कविता ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण है. 6. अकाल और उसके बाद – नागार्जुन
दोहा-छंद में लिखी जनकवि नागार्जुन की कविता ‘अकाल और उसके बाद’ अपने स्वभाव के अनुरूप नाविक के तीर की तरह है – दिखने में जितनी छोटी, अर्थ में उतनी ही सघन.
नागार्जुन भारतीय ग्राम जीवन के सबसे बड़े चितेरे हैं और ‘अकाल और उसके बाद’ में घर में रोते चूल्हे, उदास चक्की और अनाज के आने के चित्र हमारी सामुहिक स्मृति में हमेशा के लिए अंकित हो चुके हैं.

सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' ने 'राम की शक्ति पूजा', 'कुकुरमुत्ता', 'सरोज स्मृति' जैसी महत्वपूर्ण काव्य रचनाएं कीं.
इस कविता को हम जब भी पढ़ते हैं, वह हमेशा ताज़ा लगती है. इस कविता की अंतर्निहित गतिमयता है जो उसे नया और प्रासंगिक बनाए रखती है. आधुनिक हिंदी कविता में सबसे लोकप्रिय पंक्तियां खोजी जाएं तो यही कविता सबसे पहले याद आएगी.
7. चंपा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती – त्रिलोचन
प्रगतिशील परंपरा के एक और प्रमुख कवि त्रिलोचन की कविता ‘चंपा काले काले अच्छर नहीं चीन्हती’ भी एक अविस्मरणीय कविता है जिसकी कथा और संवेदना की कोमलता दोनों अभिभूत करती हैं. यह एक छोटी बच्ची चंपा और कवि का संवाद है.
कवि उसे अक्षर-ज्ञान के लिए प्रेरित करता है ताकि बड़ी होकर वह अपने परदेस गए पति को चिट्ठी लिख सके. लेकिन चंपा नाराज़ होती है और कहती है कि वह अपने पति को कभी परदेस यानी कलकत्ता नहीं जाने देगी और यह कि ‘कलकत्ते पर बजर गिरे’.
एक मार्मिक प्रसंग के माध्यम से इस कविता में खाने-कमाने की खोज में विस्थापन की विडंबना झलक उठती है और चंपा का इनकार स्त्री-चेतना के एक मज़बूत स्वर की तरह सुनाई देता है. कवि और चंपा का संवाद बचपन की मासूमियत लिए हुए है और कविता के परिवेश में लोक संवेदना घुली हुई दिखाई देती है.
8. रामदास – रघुवीर सहाय

नागार्जुन ने युगधारा, सतरंगे पंखोंवाली, प्यासी पथराई आंखें, तालाब की मछलियां जैसी कविताएं लिखीं.
रघुवीर सहाय की कविता ‘रामदास’ तक आते-आते दुनिया बहुत कठोर और स्याह हो जाती है. नागरिक जीवन के अप्रतिम कवि रघुवीर सहाय की यह कविता शहरी मध्यमवर्गीय जीवन में आती निर्ममता, संवेदनहीनता और चतुराई की चीरफाड़ करती है.
उसमें एक असहाय व्यक्ति की यंत्रणा है जिसे सब देखते-सुनते हैं, लेकिन उसे बचाने के लिए कोई नहीं आता. दुर्बल लोगों पर होनेवाले अत्याचारों पर रघुवीर सहाय की बहुत सी कविताएं हैं, लेकिन ‘रामदास’ हादसे की ख़बर को जिस वस्तुपरक और बेलौस ढंस से देती है, वह बेजोड़ है. छंद में लिखी होने के कारण यह और भी धारदार बन गई है.
9. बीस साल बाद – धूमिल
धूमिल की कविता ‘बीस साल बाद’ देश की आज़ादी के बीस वर्ष बीतने पर लिखी गई थी, लेकिन आज 66 वर्ष बाद भी वह पुरानी नहीं लगती तो इसकी वजह यह है कि
सड़कों पर बिखरे जूतों की भाषा में
एक दुर्घटना लिखी गई है’
जैसी उसकी पंक्तियां आज और भी सच हैं और यह सवाल आज भी सार्थक है कि
‘क्या आज़ादी सिर्फ़ तीन धके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है?’

'रामदास' रघुवीर सहाय की प्रमुख रचना है जिसमें शहरी मध्यवर्ग की सच्चाई नज़र आती है.
धूमिल की यह कविता हमारे लोकतंत्र की एक गहरी आलोचना है, इसलिए वह उनकी दूसरी बहुचर्चित कविता ‘मोचीराम’ की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है.
10 मुक्तिप्रसंग – राजकमल चौधरी
राजकमल चौधरी की लंबी कविता ‘मुक्तिप्रसंग’ न सिर्फ़ इस अराजक कवि की उपलब्धि मानी जाती है, बल्कि लंबी कविताओं में भी एक विशिष्ट जगह रखती है. वह भी हमारी लोकतांत्रिक पद्धतियों की दास्तान कहती है जो जन-साधारण को ‘पेट के बल झुका देती हैं.’
यह मनुष्य को धीरे-धीरे अपाहिज, नपुंसक, राजभक्त, देशप्रेमी आदि बनाने वाली व्यवस्था के विरुद्ध एक अकेले व्यक्ति के एकालाप और चीत्कार की तरह है जिसे शारीरिक इच्छाओं के बीच एक यातनापूर्ण यात्रा के अंत में यह महसूस होता है कि मनुष्य की मुक्ति दैहिकता से बाहर निकलकर ही संभव है. ‘मुक्तिप्रसंग’ का शिल्प अपने रेटरिक और आवेश के कारण भी पाठकों को आकर्षित करता है.
ये ऐसी रचनाएं हैं जो हिंदी कविता की लगभग एक सदी के इस सिरे से देखने पर सहज ही याद आती हैं और यह भी याद आता है कि इनके रचनाकार अब इस संसार में नहीं हैं. लेकिन उनके बाहर और अगली पीढ़ियों के भी अनेक कवि हैं, जिनकी रचनाएं अपने कथ्य और शिल्प में विलक्षण हैं.
केदारनाथ अग्रवाल, विजयदेव नारायण साही, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा, कुंवर नारायण और केदारनाथ सिंह की कई कविताएं, विष्णु खरे की ‘लालटेन जलाना’ और ‘अपने आप’, लीलाधर जगूड़ी की ‘अंतर्देशीय’ और ‘बलदेव खटिक’, चंद्रकांत देवताले की ‘औरत’, विनोद कुमार शुक्ल की ‘दूर से अपना घर देखना चाहिए’ और ‘हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था’, ऋतुराज की ‘एक बूढ़ा आदमी’, आलोक धन्वा की ‘जनता का आदमी’ और ‘सफ़ेद रात’ और असद ज़ैदी की ‘बहनें’ और ‘समान की तलाश’ जैसी अनेक कविताएं अनुभव के विभिन्न आयामों को मार्मिक ढंग से व्यक्त करने के कारण याद रहती हैं और समय बीतने के साथ वे हिंदी की सामूहिक स्मृति में बस जाएंगी.
(प्रस्तुति: अमरेश द्विवेदी)
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बुधवार, 9 अप्रैल 2014


जेल-डायरी
गणेशशंकर विद्यार्थी


''आज लखनऊ जिला जेल में यह डायरी प्राप्‍त हुई। चार डायरियाँ थी, तीन बँट गईं, एक का इस्‍तेमाल मैं करूँगा।'' यह पंक्तियाँ गणेशशंकर विद्यार्थी ने 31 जनवरी 1922 को लिखी थीं। उक्‍त जेलयात्रा विद्यार्थीजी को, जनवरी 1921 में रायबरेली के एक ताल्‍लुकेदार सरदार वीरपाल सिंह द्वारा वहाँ के किसानों पर गोली चलवाने की विस्‍तृत रपट 'प्रताप' के संपादक गणेशशंकर विद्यार्थी और उसके मुद्रक-प्रकाशक शिवनारायण मिश्र वैद्य पर मानहानि का मुकदमा चलाया, जो लगभग छह महीने चला और 'प्रताप' के कोई 30 हजार रुपए उस पर खर्च हुए। लेकिन उससे 'प्रताप' की ख्‍याति, किसानों के हमदर्द अखबार के रूप में, दूर-दूर तक फैल गई। किसान जनता विद्यार्थीजी को 'प्रताप बाबा' कहकर पुकारने लगी। मुकदमे की पेशियों के दौरान सफाई पक्ष की जो 50 गवाहियाँ हुई उनमे पं. मोतीलाल नेहरू, पं. जवाहरलाल नेहरू, सी.एस. रंगाअय्यर जैसे विशिष्‍ट लोग अदालत के समक्ष पेश हुए। ... किंतु मुकदमे का फैसला अंतत: उक्‍त ताल्‍लुकेदार के पक्ष में हुआ। चूँकि दोनों व्‍यक्तियों पर दो-दो अभियोग थे, अत: दोनों के लिए, विद्यार्थीजी को 3-3 महीने की सादी कैद और पाँच-पाँच सौ रुपए जुर्माने की सजा सुनाई गई। इसी बीच ब्रिटिश नौकरशाही ने भी 'प्रताप' पर एक भीषण प्रहार किया। संपादक और मुद्रक-प्रकाशक से एक वर्ष के लिए पाँच-पाँच हजार के दो मुचलके और दस-दस हजार की दो जमानतें माँगी गई। मुकदमे के दौरान तो मुचलके और जमानतें दे देना ही उचित समझा गया, अन्‍यथा रायबरेली गोलीकांड का पूरा-पूरा रहस्‍योद्घाटन न हो पाता, लेकिन जब उसका फैसला हो गया, तो जेल चले गए। मिश्रजी को वैसा नहीं करने दिया गया, क्‍योंकि वे हृदय-रोग से ग्रस्‍त थे और तकनीकी तौर पर अखबार के मुद्रक-प्रकाशक की जिम्मेदारी से मुक्‍त हो गए थे। उधर रायबरेली केस की अपील भी कर दी गई थी, जो विद्यार्थीजी की जेल-यात्रा के दौरान ही, 4 फरवरी 1922 को खारिज हो गई।
विद्यार्थीजी की यह जेलयात्रा कोई 7 महीने से ऊपर की रही। 16 अक्टूबर 1921 को स्‍वयमेव उन्‍होंने कानपुर में गिरफ्तारी दी और कोई 10 दिन तक कानपुर जेल में रखने के बाद उन्‍हें लखनऊ जिला जेल भेज दिया गया, जहाँ 31 जनवरी 1922 से उन्‍होंने अपनी जेल डायरी लिखनी शुरू की और 17 मई 1922 तक वह विधिवत् लिखी जाती रही। 22 मई 1922 को उन्हें जेल से मुक्‍त किया गया। बाहर आकर उसकी डायरी के आधार पर उन्‍होंने अपने जेल-जीवन के विस्‍तृत संस्‍मरण लिखे, जो 'जेल-जीवन की झलक' शीर्षक से 'प्रताप' के कई अंकों में धारावाहिक प्रकाशित हुए और खूब सराहे गए।
1911 से 1931 तक, 20 वर्षों के अपने सक्रिय जीवन में विद्यार्थीजी को पाँच बार जेल जाना पड़ा, जिसमें तीन बार तो वह 7 मास से लेकर एक-एक वर्ष तक भीतर रहे और प्रभूत लेखन भी जेल में किया। विक्‍टर ह्यूगो के दो उपन्‍यासों 'नाइंटी-थ्री' और 'ल मिजराब्‍ल' के 'बलिदान' और 'आहुति' नाम से किए गए संक्षिप्‍त रूपांतर और उनकी एकमात्र मौलिक कहानी 'हाथी की फाँसी' की गणना ऐसे लेखन में विशेष रूप से की जा सकती है। किंतु अब तक उपलब्‍ध तथ्‍यों के अनुसार, विधिवत् जेल डायरी विद्यार्थीजी ने केवल एक बार, लखनऊ जेल में लिखी थी, जो लगभग 60 वर्ष तक गुमनामी में रहने के बाद, इसी पंक्तिकार के द्वारा खोजी जाकर, विद्यार्थीजी के बलिदान अर्धशती वर्ष में प्रकाशित हो पाई। इसी वर्ष (1994 में) जेल डायरी का नया संशोधित एवं परिवर्धित संस्‍करण भी प्रकाशित हो गया है। उसमें विद्यार्थीजी के जेल संबंधी संस्‍मरण भी सम्मिलित हैं।
गणेशशंकर विद्यार्थी की रचनाओं के इस चयन को अधिकाधिक प्रतिनिधि स्‍वरूप देने के उद्देश्‍य से उनकी जेल डायरी के कुछ चुने हुए अंश और जेल-संस्‍मरणों के प्रारंभिक अंश यहाँ पुन: प्रस्‍तुत किए जा रहे हैं।
- संपादक


जेल-डायरी
बुधवार : 1 फरवरी सन् 1922
माघ शुक्‍ल 5, संवत् 1978
सवेरे पत्र आया। उससे मालूम हुआ कि दोनों सजाएँ एक साथ चलेंगी। हमीद अली (संभवत : रायबरेली मुकदमे के एक वकील) ने विरोध किया था, परंतु डेनियल का फैसला यही रहा। पत्र का बड़ा इंतजार था, मिलने और पढ़ने पर कुछ राहत जरूर मिली। तीन महीन की कैद एक प्रकार से कम हुई। परंतु मुझे विश्‍वास नहीं होता कि ऐसा होगा। अब भी डर लगता है मेरे अपने भाग्‍यकूप को देखते हुए, रह-रह कर यही प्रश्‍न होता है कि क्‍या यह ठीक है? यहाँ तो जो कुछ सोचा, इन बीचों में वह उल्‍टा ही पड़ा। देख लिया कि इन बातों में कल्‍याण है और इन्‍हें होना ही चाहिए और नहीं होंगी, तो सिर नहीं डालेंगे। परंतु वे नहीं हुईं और पग-पग पर इतना झुकना पड़ा कि इस समय बिल्‍कुल ही सिर डाले हुए हूँ और केवल ईश्‍वर की इच्‍छा ही का भरोसा है और जो कुछ हो उसी को अपने कल्‍याण की बात समझने में अच्‍छा समझता हूँ। भगवान बल और पथ प्रदान करे।
मंगलवार : 7 फरवरी सन् 1922
माघ शुक्‍ल 10, संवत् 1978
प्रकाश (पत्‍नी) का पत्र आज मिला। हरि (विद्यार्थीजी के ज्‍येष्‍ठ पुत्र हरिशंकर विद्यार्थी) अच्‍छा है। परमात्‍मा के चरणों में अत्‍यंत विनय से बारम्‍बार प्रणाम। बहुधा अपनी कमजोरियों और पापों पर दृष्टि डालते हुए यह मालूम पड़ता है कि मुझे जा कुछ भी प्राप्‍त है, वह बहुत है और मैं इसके योग्‍य भी नहीं। इसीलिए, प्रकृति के जिस अंचल से जो कुछ मिले, उसके लिए कृतज्ञता से सिर झुकाना और जो कुछ छिन जाए उसके लिए शिकायत की बात मुँह से न निकालना अपना धर्म समझता हूँ। इस धर्म का पालन कहाँ तक होता है - यह दूसरी बात है। संसार में क्‍या होना चाहिए और क्‍या हो रहा है - यह विवेचना बड़ी कौतूहलजनक है। विचार और कार्य के भेद के कम होने के लिए, ईश्‍वर से प्रार्थना करना सच्‍चे आदमी का काम अवश्‍य है। ईश्‍वर, सच्‍चे आदमी की श्रेणी में होने के लिए बल प्रदान कर! आज चौबेजी और रामनाथ (जेल के साथी) में रात को मारपीट हो गई। आज गोरखपुर और बरेली के समाचार 'लीडर' में पढ़े।
गुरुवार : 9 फरवरी सन् 1922
माघ शुक्‍ल 12, संवत् 1978
कल एकादशी का व्रत रखने के कारण, आज यार लोगों को बेतरह भूख लगी थी, इसीलिए, बहुत सबेरे भोजन तैयार हो गया था। यह खबर थी कि डॉ. इब्राहीम हैई कल छूटेंगे। इसलिए उन्‍हें हम लोगों ने दावत दी थी। परंतु हैई के मुँह में खाना न धँसा। अंडा और मुर्गी खाने वाला आदमी साधारण अन्‍न और साग कैसे खा सके! की दावत और हो गई अदावत। अंत में, बेचारा किसी तरह से चार कौर खाकर उठ बैठा। यह आदमी भी विचित्र जीव है। सदा जेलर की दाढ़ी उखाड़ने और सबसे लड़ने-भिड़ने के लिए तैयार। लड़कपन इसमें इतना कि हर काम में प्रकट होता है। न कोई जिम्‍मेदारी और न संजीदगी। जबान बिल्‍कुल बेलगाम। अब बाहर जाएँगे और बड़े भारी नेता कहलाएँगे। पब्लिक रुझान की विचित्र महिमा है।
रविवार : 12 फरवरी सन् 1922
माघ शुक्‍ल 15, संवत् 1978
आज प्रकाश, बच्‍चे, भाई, माँ, पिता और बदरी (बदरीनाथ अग्निहोत्री : प्रताप कार्यालय के एक कर्मचारी) मिलने आए थे। बाहर मुलाकात हुई। विमला (श्रीमती विमला विद्यार्थी : गणेश जी की चार पुत्रियों में से दूसरी) दुबली हो गई है। वह गले में लिपटकर बोली, 'बाबू हमारे घर चलो।' फिर वह 'तुम्‍हारा घर' देखने के लिए बहुत जिद करती रही। एक नारंगी लाई थी। बोली, 'बाबू, तुम्‍हारे लाए लाई हूँ, इसे खाओ।' मैंने खाया और उसे दिया। अम्‍माँ झटक गई हैं। बिटोला (विद्यार्थीजी की छोटी बहिन रुक्मिणी देवी) और उसका छोटा बच्‍चा भी था, प्रकाश का हाल तो प्रकट है ही, बिटोला भी दुबली थी। बाबूजी पहिले के इतने घबड़ाए हुए नहीं है। परंतु गाँधीजी को खूब गालियाँ देते हैं। ओंकार (विद्यार्थीजी के कनिष्‍ठ पुत्र प्रोफ. ओंकारशंकर विद्यार्थी {अब स्‍व.}) अच्‍छा था। बड़ा सुंदर लगता था। हरि अब भी बहुत अच्‍छा नहीं है। कृष्‍णा (विद्यार्थीजी की बड़ी बेटी) अभी तक वैसी ही सिलबिल्‍ली थी। आज दीक्षित कंपनी के मुकदमे में एक कमिश्‍नर साहब मथुरा प्रसाद की तरफ से मेरी गवाही लेने आए थे। जगन्‍नाथ प्रसाद और मथुरा प्रसाद दोनों आए थे। भाई (अग्रज श्री शिवव्रत नारायण, जिन्‍होंने विद्यार्थीजी के बलिदान के पश्‍चात् उनकी एक संक्षिप्‍त जीवनी लिखी) कहते थे कि गाँधीजी के पकड़े जाने का समाचार गरम है।
मंगलवार : 14 फरवरी सन् 1922
फाल्‍गुन कृष्‍ण 2, संवत् 1978
गाँधीजी के सत्‍याग्रह स्थगित कर देने से बड़ा तहलका मच गया है। बाज-बाज साहब तो उन पर बेतरह बिगड़ उठे हैं। मौलाना शौकत अली साहब और मीर अब्‍बास बे-तरह हाथ-पैर फेंक रहे हैं। मोतीलालजी बे-तरह बिगड़े हुए। वैसे निराशा तो सब पर छायी हुई है। निराशा के कारण दासी का होना और चीज है, परंतु बिगड़ना और अकड़ना और। अब 15 दिन में पत्र भेजे जा सकेंगे और 15 दिन ही में वे पाए जा सकेंगे। मुलाकात हर सप्‍ताह हो सकेगी।
रविवार : 19 फरवरी सन् 1922
फाल्‍गुन कृष्‍ण 8, संवत् 1978
आज समाचार आया कि मोतीलालजी की मोटर मुर्माने के बदले में ले ली गई है। इस पर जवाहरलाल, मोतीलाल और श्‍यामलाल की बहस, जो मेरे सामने हुई, मजेदार थी। जवाहरलाल की बातें ऊँची थीं, मोतीलाल ऊँचे उठते थे और नीचे गिरते थे, श्‍यामलाल तो पृथ्‍वी पर रेंगने वाले कीड़े हैं। रात को यहाँ मेरी मोहनलाल सक्‍सेना से बहस रही। बदरदोली के फैसले से हम लोगों को बड़ी निराशा हुई है। मैं उस प्रस्‍ताव में अधिक बुराई नहीं पाता, परंतु बहुत जोशीले लोग उसके फीकेपन पर तिलमिला उठे हैं और कहते हैं कि अब तो कुछ भी न हो सकेगा।
आज कानपुर से कोई भी नहीं आया।
बुधवार : 22 फरवरी सन् 1922
फाल्‍गुन कृष्‍ण 11, संवत् 1978
मैं नहीं समझता था कि लोग बरदोली प्रस्‍ताव के कारण गाँधी से इतने नाराज होंगे जितना कि आज की लखनऊ की बारक की बहस में प्रकट हुआ। बालमुकुंद बाजपेयी ऐसे आदमी कहते सुने जाते हैं कि गाँधी तो अंत में बनिया है। डॉक्‍टर शिवराज नारायण, भुवनेश्‍वरी नारायण आदि बहुत निराश हैं। और लोगों का भी यही हाल है। केवल बेनीप्रसाद सिंह, जो कुछ हुआ उसे, उचित समझते हैं। श्‍यामलाल नेहरू और लखनऊ का वह लौंडा-मीर अब्‍बास-यह कहते थे कि हजारों आदमियों को तो जेल भेज दिया, जब अपनी बारी आयी तब कावा काट गए। पं. मोतीलाल नेहरू ने कहा कि मैं गोरखपुर के प्रायश्चित के लिए कैदखाने में नहीं रहना चाहता। मैं एक सिद्धांत के लिए आया हूँ, उसी के लिए जब तक मियाद है तब तक रहूँगा। आज बृजबिहारी महरोत्रा (कानपुर के खादी भंडार के संस्‍थापकों में से एक) मन्‍नीलाल (विद्यार्थीजी के, कानपुर के सार्वजनिक जीवन के एक साथी मन्‍नीलाल नेवटिया) आदि आए थे। हसरत मोहानी जोर के साथ देहली में बारदोली प्रस्‍ताव का विरोध करेंगे। वे इसी प्रकार के काम के लिए 'इस्‍तकलाल' नाम का दैनिक पत्र निकालना चाहते हैं।
बुधवार : 8 मार्च सन् 1922
फाल्‍गुन शुक्‍ल 10, संवत् 1978
आज जवाहरलाल नेहरू अपनी बहिन सहित पं. मोतीलाल से मिलने आए थे। कहते थे, दमन का जोर होगा, बटलर बदमाशी पर कमर कसे हुए हैं। मालवीय जी ने कहला भेजा है कि बहुत आगे मत बढ़ो! सरकार तुम्‍हें पकड़ना चाहती है। गाँधीजी के शीघ्र ही पकड़े जाने का समाचार है।
चंद्रवार : 13 मार्च सन् 1922
फाल्‍गुन शुक्‍ल 15, संवत् 1978
आज होली मनाई गई। 4 बजे सबेरे नीम की पत्तियों की होली मनाई गई और दोपहर को रंग खेला गया, जिसमें सब मुसलमान मित्र अच्‍छी तरह शामिल हुए। केवल मोतीलालजी ने न केवल शामिल होने से इनकार किया, किंतु सुपरिंटेंडेंट से, जो उस समय वहाँ उपस्थित था, अपनी रक्षा के लिए मदद माँगी, ''आइ अपील जेल अथॉरिटीज...'' (यह वाक्‍यांश तथा अन्‍य अंग्रेजी शब्‍द मूल डायरी में अंग्रेजी लिपि में हैं) सुपरिंटेंडेंट के चले जाने पर जब हम लोगों ने कहा कि आपकी आज्ञा काफी होती, तब अपने कहा कि यह सब 'फूलहार्डीनेस' और 'रोडिइज्‍म' है, यहाँ नॉन-कोआपरेशन नहीं। मैं हजार बार कहता हूँ कि यदि तुम कुछ भी करो तो मैं जेलवालों से मदद माँगूँगा। हम लोग केवल गुलाल का टीका भर लगाना चाहते थे, परंतु 'नॉट ऍन ऍटम' उनका स्‍वर था। शाम को जो जलपान हुआ था उसमें वे शरीक हुए। शायद कुछ झेंपे। रात को जवाहर लाल (कानपुर के जवाहरलाल रोहतगी), मुरारीलाल (कानपुर के डॉ. मुरारीलाल) और बालकृष्‍ण(प्रसिद्ध कवि और प्रखर वक्‍ता पं. बालकृष्‍ण शर्मा नवीन, जो विद्यार्थीजी के संरक्षण और मार्गदर्शन में विकसित हुए) से भेंट हुई और उनके साथ रात को कुछ देर के लिए पाँच नं. में गया था।
चंद्रवार : 27 मार्च सन् 1922
चैत्र कृष्‍ण 14, संवत् 1979
आज वजन किया गया। एक मन ग्‍यारह सेर निकला। जेल की तौल जाली होती है। आने पर एक मन साढ़े सात सेर तोला गया था, फिर दस दिन के भीतर ही एक मन दस सेर हो गया था। यही दशा... (अपठनीय) की हुई थी। चरखा कातना सीख रहा हूँ। आशा है, दो-तीन दिन में आने लगेगा। संयुक्‍त फंड के लिए अब लोगों में चिड़चिड़ाहट पैदा होती जा रही है। अभी तक भोजन का ठीक नहीं हो रहा है।
बुधवार : 12 अप्रैल सन् 1922
बैसाख कृष्‍ण 1, संवत् 1979
टंडनजी (रणेंद्रनाथ बसु) अपनी पत्‍नी और दामाद से नहीं मिले। इसलिए कि बाहर तंबू में जमीन पर बैठने को उनसे कहा गया। जेल वालों का रंग-ढंग बहुत बदल गया है और वे अशिष्‍ट व्‍यवहार भी करने लगे हैं। रानो बाबू (मदन मोहन चौबे) को, कुर्सी रहते हुए भी, जेलर ने कहा कि कुर्सी छोड़ दीजिए, बेंच लीजिए। इन लोगों ने मोतीलाल को प्रसन्‍न कर रखा है, दूसरों की परवाह नहीं करते। मोतीलाल आदि के छूटने की खबर है। यदि जुर्माना अदा हो जाय, जैसा कि जेलर से मोहनलालजी ने कहा कि बैंक से क्‍यों नहीं वसूल कर लिया जाता, तो शायद ये लोग वक्‍त से बहुत पहिले छोड़ दिए जाएँ। मथुरा के हकीम, बृजलाल भार्गव और चौबे को देखने आए थे। चौबे जी की निखरी सूरत देखकर वे बोले, ''ये तो खूबसूरत बला या नाटक की परी बन गए।''
शुक्रवार : 21 अप्रैल सन् 1922
बैसाख कृष्‍ण 10, संवत 1979
चंदनू आज रिहा हुआ। सीधा यहाँ तक कि मूर्ख, परंतु सच्‍चा और सेवा में सदा तत्‍पर। किसान आदमी-खिलाफत के झगड़े में आया। हम लोग विशेष व्‍यवहार वह अपने अनेक साथियों के साथ महीनों हिरासत में रहा, फिर छह मास की सजा पाई। चलते समय उसके नेत्र में आँसू आ गए। डॉ. शिवराज नारायण आज कुछ मिनट के लिए आए थे। अपने भाई के लिए तरकारी लाए थे। उसके नीचे श्रीकृष्‍ण के सौ चित्र थे। इस समय सुपरिंटेंडेंट को चिढ़ाने के लिए ये चित्र भीतर की सब बारकों में लगी (होना चाहिए : 'बारकों में लगे हैं') है। बस्‍ती के जो महाशय हंगर स्‍ट्राइक से मरे, उनके नाम पर आज भूखे रहे।
शुक्रवार : 5 मई सन् 1922
बैसाख शुक्‍ल 9, संवत् 1979
रंगा अय्यर अभी तक सेंट्रल जेल में था, अब उसे फैजाबाद बेड़ी डालकर भेज दिया गया और अब वह द्वितीय श्रेणी का हो गया।
अपनी पुरानी विचार शैली पर ध्‍यान देते हुए बड़ा परिवर्तन दिखाई देता है। रायबरेली केस के दिनों में, हृदय में एक घमंड-सा था। ईश्‍वर के संमुख सत्‍पथ पर बने रहने का गर्व था। खयाल था-जो हो, अपना दोष नहीं और इसलिए क्‍यों गिड़गिडाऊँ निश्‍चय था कभी न गिड़गिड़ाऊँगा। आज वर्ष भर से अधिक से, बहुत-सा नीचा-ऊँचा देख लेने के पश्‍चात् अपने पक्ष के सत्‍य और असत्‍य को जान लेने के पश्‍चात् सारी शेखी हवा खाने चली गई। और, चारों ओर की मारामार ने निर्बल हृदय को और भी इतना निर्बल कर दिया कि न केवल वह बुरी तरह गिड़गिड़ाता ही भर है, किंतु किसी स्‍थल पर और किसी समय स्थिर होने का नाम ही नहीं लेता। यह भी कैसी बुरी दशा है। भगवान दया कीजिए!
रविवार : 7 मई सन् 1922
बैसाख शुक्‍ल 11, संवत् 1979
एक बड़ी दुर्घटना हो गई। देवरिया के अवधनारायण मुख्‍तार का देहांत हो गया। हम लोग वाली-बाल खेल रहे थे, उसी वक्‍त डॉ. मुरलीलाल ने उनके देहांत की खबर दी। उसके पहिले चार पक्‍के डॉ. जवाहरलाल को बुलाने आया। 15 मिनट पहिले तक क्‍लीमेंट्स कहता रहा कि बीमार पहले से बहुत अच्‍छा है। नब्‍ज डूब रही थी और वह जवाहरलाल से बहस कर रहा था और कह रहा था much better now. तीन-चार दिन से बीमार थे, परंतु कभी ठीक इलाज नहीं किया गया। आज तीन घंटे तक वे फटफटाते रहे, परंतु जेल वालों ने एक न सुनी और मरने के वक्‍त डॉक्‍टर बुलाए गए। अस्‍पताल (में-सं.) चम्‍मच तक न मिला। कहते हैं, मरने के कुछ पहिले घबड़ा-घबड़ा कर उन्‍होंने 6-7 जगह अपनी चारपाई बदली और रात-भर परेशान रहे। हाथ भी पहिले से ठंडे हो गए थे। देवीप्रसाद शुक्‍ल, बेनी प्रसाद, बिक्रमाजीत सिंह, बालाजी, सत्‍यव्रत, प्‍यारेलाल आदि आए थे।
गुरुवार : 11 मई सन् 1922
बैसाख शुक्‍ल 15, संवत् 1979
मोतीलालजी तो नैनीताल जा रहे थे, इधर जवाहरलाल उन्‍हें देखने आए थे, फाटक पर सुपरिंटेडेंट पुलिस वारंट ले आया, और अंत में, उन्‍हें बुलाते-बुलाते हारकर क्‍लीमेंट खुद लेने आया। वे गिरफ्तार कर लाए गए और जेलवालों के सुपुर्द कर दिए गए, जहाँ से रात को इलाहाबाद भेज दिए गए। कहते हैं, उन पर दफाएँ 124ए, 17ए, 385 और 506 आदि हैं। मोतीलालजी परेशान हैं।
बाबा रामचंद्र (अवध के किसान आंदोलन के नेता) और अब्‍दुल हमीद साधारण कैदी बनाकर कैदी के लिबास में बरेली और बनारस भेज दिए गए। सेंट्रल जेल में असिस्‍टेंट जेलर ने सीतापुर के वालंटियर कैदी को धूप में बार-बार खड़ा किया, इस बात पर कि वह पैर जोड़ कर खड़ा नहीं हुआ था। इस पर दूसरे कैदियों ने कायदे से सजा देने की बात की। इस पर उन पर खूब मार पड़ी-एक नवयुवक लड़के को देखा, जिसे साढ़े तीन वर्ष की सजा मिली। लखीमपुर के वालंटियरों में था। 40 आदमी थे। सब ऐसे ही भेजे गए। इसलिए कि उन्‍होंने किसी मुलजिम को पुलिस की हाजत से छुड़ा लेने की कोशिश की।
सोमवार : 15 मई सन् 1922
ज्‍येष्‍ठ कृष्‍ण 4, संवत् 1979
जेल का शासन बिल्‍कुल बाहर के शासन का चित्र (है-सं.)। झूठ और द्वेष के सहारे सब कुछ होता है। लोग फोड़े जाते हैं। लखीमपुर के 40 लोगों को आड़ के साथ बड़ी-बड़ी सजाएँ दी गई थीं-यहाँ तक कि एक को पाँच वर्ष तक की। इनमें से कुछ लोग पाँच नंबर वालों की सेवा में दिए गए थे जहाँ उनके साथ अच्‍छा बर्ताव किया गया। उसका फल यह हुआ, कि एक पक्‍के ने जेलवालों से बातें जड़ीं और इन लोगों को वहाँ से उठा लिया गया। तो भी गवर्नमेंट के इस (में-सं.) एक बड़ी खूबी है। प्रांत के इतने हिंदू-मुसलमानों को एक साथ रखकर देश में राष्‍ट्रीयता की जड़ों के फैलने और पक्‍के होने का अमूल्‍य अवसर उपस्थित हुआ है। आज से चपरासी, जो फल आदि लाते थे, वह बंद कर दिए गए। अभी तक हमारे यहाँ का चपरासी बंद नहीं हुआ।
बुधवार : 17 मई सन् 1922
ज्‍येष्‍ठ कृष्‍ण 6, संवत् 1979
देवदास गाँधी की नकसीर फूटी। सुपरिंटेडेंट ने देखकर कहा कि यह छोटी बात है। trifle (ट्रिफिल : चुहलबाजी : संपा.) इन लोगों की, नानकोआपरेटर्स का थोड़ा-सा खून निकल जाने से इन्‍हें लाभ होगा, इनका दिमाग, साफ हो जाएगा।
चयन एवं संपादन
सुरेश

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014

काशी की प्रमुख पत्र-पत्रिकाएं / दिग्विजय त्रिपाठी


 
दिग्विजय त्रिपाठी
 भारत में यदि कलकत्ता पत्रकारिता का जन्मस्थली रहा है तो काशी ने इसे पुष्ट किया है। खासकर हिन्दी पत्रकारिता तो काशी में ही पली-बढ़ी और जवां हुई। आदर्श पत्रकारिता के मूल्यों पर कलम के सिपाहियों ने समाज को आईना दिखाया। साथ ही निर्भीक रूप से ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ कलम चलाई और लोगों को पत्रकारिता के जरिये नवजागृत भी किया। इस दौरान सिर्फ गंभीर पत्रकारिता ही नहीं हो रही थी बल्कि उसके सभी आयामों पर कलम चले। जैसे- व्यंग्य, महिलाओं से जुड़ी पत्रिकाएं, बच्चों पर आधारित पत्रिकायें भी लोगों की पहुंच में थी। समाचार पत्रों में दैनिक सूचानाओं के साथ गंभीर लेख, साहित्य से जुड़े लेख, अग्रलेख, संपादकीय छपते थे। भारत में हिन्दी पत्रकारिता की शुरूआत सन् 1826 में कलकत्ता से युगल किशोर शुक्ल ने उदन्त मार्तन्ड साप्ताहिक् पत्र निकालकर किया। वहीं, काशी से निकलने वाला पहला समाचार पत्र बनारस अखबार था, जिसे राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द ने 1845 में निकाला था। पत्रकारिता के मूल्यों से इतर यह समाचार पत्र ब्रिटिश हुकूमत के पक्ष में लिखता था। साथ ही हिन्दी अखबार होते हुए भी इसके लेखों में अरबी तथा फारसी शब्दों का प्रयोग होता था। 1850 में समाचार पत्र सुधाकरका प्रकाशन तारामोहन मित्र के संपादन में शुरू हुआ। इसके बाद के वर्षों में कई पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ लेकिन वे ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पायीं। काशी की पत्रकारिता में अहम योगदान देने वाले कालजयी साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने 1867 में कवि वचन सुधा मासिक पत्रिका निकालना शुरू किया। कुछ ही समय में यह पत्रिका काफी लोकप्रिय हो गयी। इसके बढ़ते प्रसार को देखते हुए इसे साप्ताहिक कर दिया गया। वहीं, पत्रकारिता के हर पहलुओं को छूने के लिए भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने महिलाओं से जुड़ी पत्रिका बालाबोधिनी 1874 में निकाली। इसी बीच संस्कृत पत्रिका पण्डित का भी प्रकाशन भी हुआ; जो काफी लोकप्रिय हुई। 1873 में भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने एक और पत्रिका हरिश्चन्द्र मैगजीन का प्रकाशन शुरू किया। जिसका नाम 1974 में बदलकर ‘हरिश्चंद्र चन्द्रिका’ कर दिया गया। इसके अतिरिक्त भारतेन्दु जी ने भगवत भक्ति तोषिणी और वैष्णव तोषिणी मासिक पत्रों को निकालकर पत्रकारिता के नये आदर्श गढ़े। 1882 में बनारस समाचार और नवजीवन का प्रकाशन हुआ। यह दोनों पत्र साप्ताहिक थे और यूरोपीय व्यवस्था के विरोध में आवाज बुलंद कर रहे थे। 1883 में अम्बिका दत्त व्यास ने वैष्णव का प्रकाशन शुरू किया। यह पत्र मासिक था जो बाद में ‘पीयूष पत्रिका’ हो गया। 1884 में एक और सरकार समर्थित पत्र भारत जीवन का प्रकाशन शुरू हुआ। यह पत्र साप्ताहिक था। धर्म आधारित समाचार पत्र 1888 में सनातन धर्म से प्रेरित मासिक पत्र धर्म प्रचारकको राधाकृष्ण दास और धर्मसुधावर्षण को कुल यशस्वी शास्त्री ने संपादित किया। 1890 में सरस्वतीविलास और 1891 में नौकाजगहित पत्र भी निकाले गये। 1892 और 1893 में ब्राह्मण हितकारी‘ ’व्यापार हितैषी और सरस्वती प्रकाश जैसे पत्रों का प्रकाशन हुआ। इसी दौरान गो सेवा नामक समाचार पत्र भी पाठकों के बीच आया। 1894 में भारत भूषण साप्ताहिक समाचार पत्र रामप्यारी जी के संपादन में निकला। 1895 में पत्रकारिता को समृद्ध करने की कड़ी में प्रश्नोत्तर को भिखारीशरण ने और कुसुमांजलिको बाबू बटुक प्रसाद ने निकाला। 1896 में नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ बाबू श्यामसुन्दर दास के संपादन में प्रकाशित हुई। यह पत्रिका वर्तमान में भी प्रकाशित होती है। पण्डित समाज की ओर से 1898 में पण्डित पत्रिका शुरू हुई। 1901 में मासिक पत्र मित्र का प्रकाशन बाल मुकुन्द वर्मा और वाणिज्यसुखदाय को जगन्नाथ प्रसाद ने संपादित किया। 1905 में ‘भारतेन्दु इतिहासमाला’ और ‘सनातन धर्म’ पत्रों का प्रकाशन हुआ। ये तीनों पत्र मासिक थे। 1906 में बालप्रभाकर और ‘उपन्यास’ मासिक पत्र को किशोरी लाल गोस्वामी ने निकाला। गंभीर पत्रकारिता से इतर इसी वर्ष हास्य पत्रिका ‘विनोद वाटिका’ भी निकली। 1909 में क्षत्रियमित्रसमाचार पत्र लाल सिंह गाहड़वाल के संपादन में निकला। इन्दु नामक पत्रिका का प्रकाशन भी इसी वर्ष से हुआ। इसके संपादक अम्बिका प्रसाद थे। 1910 में जातीय पत्र त्रिशूल और ‘नवजीवन’ का प्रकाशन शुरू हुआ। इस दौरान बहुत से ऐसे पत्र भी रहे जो ज्यादा दिनों तक प्रकाशित नहीं हो पाये। 1913 में नारायण गर्दे के संपादन में नवनीत का प्रकाशन शुरू हुआ। पत्र-पत्रिकाओं के इस क्रम में 1914 में तिमिरनाशक को कृष्ण राय बिहारी सिंह तथा दामोदर सप्रे ने मित्र साप्ताहिक पत्रों को प्रकाशित किया। इन पत्रों में आम लोगों से जुड़ी हुई कई खबरें प्रकाशित होती थीं। काशी से 1915 से 1920 के मध्य कई समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ। उसमें प्रमुख रूप से ओदुम्बर और कालिन्दी रही। दैनिक समाचार पत्र आज का प्रकाशन 1920 में जन्माष्टमी के दिन शुरू हुआ। इसे शिव प्रसाद गुप्त ने निकला। इस सम्मानित अखबार के पहले संपादक ओम प्रकाश रहे। कुछ समय बाद यशस्वी पत्रकार बाबू विष्णूराव पराड़कर इस समाचार पत्र के संपादक हुए। इस समाचार पत्र की काशी सहित अन्य स्थानों पर बड़ी ख्याति रही। कुछ वर्षों बाद ही अपने प्रकाशन का शताब्दी वर्ष मनाने जा रहे इस समाचार पत्र की वर्तमान में स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। 1942 में स्वतन्त्रता आंदोलन की लड़ाई को बल देने के लिए पराड़कर जी एवं कमलापति त्रिपाठी ने मिलकर खबरमासिक पत्र निकाला। 1943 में पराड़कर जी ने ही संसार दैनिक पत्र का संपादन किया। स्वतन्त्रता के पहले निकले लगभग हर समाचार पत्र आजादी की लड़ाई को गति देने, जनता को जगाने एवं सामाजिक बुराइयों को इंगित करने पर जोर देते थे। काशी से 1921 में मर्यादा पत्र प्रकाशित हुआ। इसके संपादक सम्पूर्णानंद थे। कुछ समाचार पत्र जो ब्रिटिश हुकूमत की खुलकर खिलाफत करते थे वे भूमिगत निकले। इन पत्रों में ‘रणभेरी’,तूफान’ एवं ‘शंखनाद’ समाचार पत्र 1930 में प्रकाशित हुए। इसी दौरान मासिक पत्रिका कमला का प्रकाशन भी शुरू हुआ। यह पत्रिका महिलाओं में काफी लोकप्रिय हुई। 1939 में ‘सरिता’, सुखी बालक’ पत्रिकाएं भी निकाली गईं। ‘नारी’ पत्रिका का प्रकाशन इसी वर्ष हुआ। यह पत्रिका भी महिलाओं पर आधारित थी। इसके बाद कई और समाचार पत्र जैसे- ‘ग्राम संसार’, एशिया’, किसान’, नया जमाना’, गीताधर्म’, चिंगारी’, चित्ररेखा’, धर्मदूत’, धर्मसंदेश’, सात्विक जीवन’, युगधारा’ पत्र-पत्रिकाएं निकाली। 1947 में ‘सन्मार्ग’ साप्ताहिक समाचार पत्र का प्रकाशन शुरू हुआ। मूर्धन्य साहित्यकार प्रेमचंद्र ने साहित्यिक पत्रिका हंस का प्रकाशन शुरू किया। साहित्य से ओत-प्रोत यह पत्रिका काफी लोकप्रिय हुई। स्वतन्त्रता के बाद काशी में कई समाचार पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ। स्वतन्त्रता के पूर्व जहां पत्रकारिता मिशन थी वहीं, उसके बाद मिशन के साथ प्रोफेसन भी हो गई है। वर्तमान में काशी से सैकड़ों  पत्र-पत्रिकाएं निकल रही हैं। लेकिन प्रमुख रूप से दैनिक जागरण, हिन्दुस्तान, अमर उजाला, आज, राष्ट्रीय सहारा, जनसंदेश टाइम्स दैनिक समाचार पत्र है। वहीं सान्ध्यकालीन पत्रों में गान्डीव एवं सन्मार्ग समाचार पत्र प्रमुख हैं। वर्तमान में काशी से कई अंग्रेजी अखबार भी निकलते हैं उनमें प्रमुख रूप से टाइम्स ऑफ इंडिया, हिन्दुस्तान टाइम्स एवं पॉयनियर है।
कविवचन सुधा
    भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र ने इस पत्रिका का सम्पादन 5 अगस्त 1867 (संवत् 1924 आश्विन शुक्ल 15) में आरम्भ किया था। काशी में प्रकाशित यह पत्रिका आरम्भ में मासिक थी, बाद में यह पाक्षिक रूप में प्रकाशित होने लगी। 1875 से यह पत्रिका साप्ताहिक पत्रिका के रूप में प्रकाशित होने लगी। इसकी केवल 250 प्रतियाँ मुद्रित होती थी। प्रत्येक अंक में 22 पृष्ठ होते थे। कहने को तो यह विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका थी, परन्तु अपने पहले अंक से ही इसने जो दिशा निर्देश दिया उसके परिणामस्वरूप हिन्दी जगत् में ऐसी पत्रकारिता का प्रचलन हुआ, जो किसी सामाजिक सुधार, जाति या मत विशेष के समर्थन में नहीं चल रही थी, बल्कि उसका उद्देश्य समूचे पाठकों को चाहे वे किसी भी क्षेत्र, धर्म या जाति के हो देश की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक समस्याओं से परिचित कराना था। इसमें विविध विषयक निबन्ध और समाचार प्रकाशित होते थे। इसकी प्रकाशन नीति इन पंक्तियों में स्पष्ट की गयी है-
खल जनन सों सज्जन दुखी मत हों हि हरि पद मति रहै।
अपधर्म छूटैं सत्त्व निज भारत गहैं कर दुःख बहैं।।
बुध तजहिं मल्सर नारिनर सम होंहि जग आनंद लहैं।
तजि ग्रामकविता सुकविजन की अमृत बानी सब कहैं।।
      आरम्भ में इस पत्र को सरकारी सहायता भी प्राप्त होती थी परन्तु भारतेन्दु जी जनता के शोषण तथा उनके उत्पीड़न की व्यथा को अपनी पत्रिका के माध्यम से उद्घाटित करना शुरू कर दिये। उन्होंने ‘लेवी प्राणलेवी’ तथा ‘मर्सिया’ नामक लेख लिखकर किसानों और मजदूरों की शोषण पर करारा प्रहार किया। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप तत्कालीन लेफ्टिनेन्ट गवर्नर विलियम म्योर के आदेश से सरकार द्वारा खरीदी जा रही इस पत्रिका की खरीद बन्द कर दी गयी। बाद में सन् 1885 में प्रकाशन बन्द हो गया। भारतेन्दु बाबू स्वदेशी के समर्थन और प्रचारक थे। उनके द्वारा 23 मार्च 1874 की कविवचन सुधा में स्वदेशी के व्यवहार हेतु जो प्रतिज्ञा पत्र प्रकाशित किया गया, उसका अंश द्रष्टव्य है-
      “हम लोग  सर्वान्तर्थामी, सब स्थल में वर्तमान स्वद्रष्टा और नित्य परमेश्वर को साक्षी देकर यह नियम मानते हैं और लिखते हैं कि हम लोग आज के दिन से कोई विलायती कपड़ा नहीं पहिनेंगे और जो कपड़ा पहिले से मोल ले चुके हैं और आज की मिती तक हमारे पास है। उनको तो उनके जीर्ण हो जाने तक काम में लावेंगे पर नवीन मोल नहीं पहिरेंगे, हिन्दुस्तान ही का बना कपड़ा पहिरेंगे।”
(डॉ0 राम विलास शर्मा, भारतेन्दु युग पृ0-33)
      कविवचन सुधा हिंदी साहित्य और हिन्दी पत्रकारिता के लिए अपने नाम को सार्थक करती हुई साक्षात् अमृतवाणी सिद्ध हुई। इसके माध्यम से हिंदी गद्य-पद्य दोनों का ही विकास हुआ और जो बातें उस समय हिन्दी जानने वाले को ज्ञात भी नहीं थी वे ज्ञात हुई। साथ ही भारतेन्दु ने इस पत्रिका के माध्यम से ऐसे लेखक मंडल और पत्रकार मंडल का निर्माण किया, जिससे विभिन्न हिन्दी भाषी प्रदेशों में हिन्दी पत्र-पत्रिकाएँ निकालने तथा उनमें लिखने की इच्छा लोगों में जाग्रत की।
मर्यादा
      पण्डित मदन मोहन मालवीय ने मर्यादा का प्रकाशन सन् 1910 ई0 में अय्यूवया कार्यालय प्रयाग से शुरू किया था। जो एक मासिक पत्रिका थी। इसके सम्पादक पण्डित कृष्णकांत मालवीय थे जो बाद में केन्द्रीय विधान सभा के सदस्य बने। 10 वर्ष के पश्चात सन् 1921 में इसका प्रकाशन काशी के ज्ञान मंडल को सौंप दिया गया। इसका संचालन बाबू शिव प्रसाद गुप्त ने किया तथा श्री सम्पूर्णानंद इसके सम्पादक बने जब असहयोग आन्दोलन में सम्पूर्णानंद जेल में थे तो श्री धनपतराय (प्रेमचन्द) ने भी इसके कई अंको का संपादन किया था। सन् 1923 में इसका प्रकाशन बन्द हो गया। परंतु इसने अल्पकाल में अपने विद्वत्तापूर्ण लेखों और पैनी राजनीतिक दृष्टि के कारण इस पत्रिका ने हिंदी जगत में अपना स्थान बना लिया था। श्री बनारसीदास चतुर्वेदी ने लिखा है कि ‘जिस समय वे छात्र थे उस समय ‘सरस्वती’ के बाद मर्यादा ही सबसे प्रतिष्ठित पत्रिका मानी जाती थी। जब उनका लेख ‘मर्यादा’ में छप गया तो उसकी बड़ी प्रशंसा हुई। तत्कालीन हिन्दी पत्रकारिता में ‘मर्यादा’ का योगदान महत्वपूर्ण था।
      ‘मर्यादा’ का मुख्य उद्देश्य यद्यपि हिन्दी साहित्य का उन्नयन करना था तथापि राष्ट्रीय विचारधारा का प्रबल समर्थक होने के कारण इसका स्वर प्रायः सरकार विरोधी रहा। इसके राजनीतिक स्वरूप का प्रमाण रौलट बिल के सम्बन्ध में प्रकाशित इसकी सम्पादकीय टिप्पणी में देखा जा सकता है- “अनेक में एक का युम प्रतिप्रादित करने को रौलट बिलों का जन्म हुआ है। भारतवासियों को कमर कसकर आन्दोलन के लिए खड़ा हो जाना चाहिए। शहर-शहर में ग्राम-ग्राम में सभाएँ होनी चाहिए, मानवीय स्वत्वों की पुकार झोपड़ी से उठनी चाहिए। हमारी जय होगी, विजय होगी और हमारे सामने संसार सिर झुकाएगा।” (‘मर्यादा’ जनवरी 1919, भाग-17, सं01, पृ0-7)
‘मर्यादा’ में प्रकाशित अधिसंख्य रचनाओं में राजनीति का यही मुख्य स्वर दृष्टिगोचर होता है। इसमें महात्मा गाँधी, लाला लाजपत राय, सरोजनी नायडू, यदुनाथ सरकार, एनी बेसेन्ट, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन आदि प्रमुख राजनीतिज्ञों के राजनीतिक लेख प्रकाशित होते रहते थे।
दिग्विजय त्रिपाठी

साहिर लुधियानवी ,जावेद अख्तर और 200 रूपये

 एक दौर था.. जब जावेद अख़्तर के दिन मुश्किल में गुज़र रहे थे ।  ऐसे में उन्होंने साहिर से मदद लेने का फैसला किया। फोन किया और वक़्त लेकर उनसे...