मंगलवार, 25 नवंबर 2014

लीलाधर जगूड़ी से चेतन क्रांति की बातचीत…








प्रस्तुति-- देवेन्द्र किशोर
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‘शुभ अवसरों पर पुस्तकें भेंट करने की परम्परा विकसित हो’’- लीलाधर जगूड़ी
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पहली कविता कैसे घटित हुई?
मैंने गढ़वाली और हिन्दी में एक साथ कविता लिखनी शुरू की। ऐसा शायद इसलिए भी हुआ कि अपने बचपन को और अपने इलाके की प्रकृति को मैं गढ़वाली भाषा में ही ज्यादा जानता था, लेकिन अपने को प्रकट करने के लिए हिन्दी मुझे ज्यादा शब्द और स्पष्टता दे रही थी। विषय अपनी भाषा चुन लेता है। दर्जा में रानी कर्णावती के नाम से एक छोटा सा नाट्यांश पाठ्य पुस्तक में था, जिसने उस समय बहुत प्रभावित किया और मैंने अपने गांव के पांच-छह लड़कों से वसंत पंचमी के दिन उसे खेला। मेरे मन में साहित्य की नाट्य विधा के प्रति बचपन से ही आकर्षण था लेकिन सारी नाट्य स्थितियों को मैं हमेशा कविता में ही खर्च करता रहा। अलग से छिटपुट रेडियो नाटकों के अलावा कोई बड़ा नाटक नहीं लिख पाया। यह मैं अपनी कमी मानता हूं। वैसे मैंने रोचक कहानियां भी लिखीं जो लीलाधर शर्मा के नाम से आज, साप्ताहिक हिन्दुस्तान और कुछ विस्मृत नामों वाली अन्य पत्रिकाओं में छपी हैं। एक तो ‘सारिका’ में भी छपी है। लेकिन बस पूरी की पूरी कहानी मैं कविता में ही प्रकट करता रहा हूं। यह भी एक असफलता ही है। कविता के अलावा अन्य विधाएं मुझे आकर्षित तो करती रहीं लेकिन वे मुझ पर कविता की तरह हावी नहीं हो पायीं। कुछ मेरा दोष, कुछ विधाओं की कमी। इन्हीं कमियों और दोषों की क्षतिपूर्ति से बनी हैं मेरी कविताएं। ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में एक कहानी छपी थी ‘पिंगली मुखड़ा पर सोने का दाग’। तब भटनागर जी संपादक थे। सात रुपये पारिश्रमिक का एम.ओ. आया था। इसे ‘तिलकस्योपरितिलकम्’ तो नहीं कह सकते लेकिन एक और तिलक तो कहा ही जा सकता है।
पहली कविता लोगों ने किस तरह ग्रहण की?
मेरी पहली कविता क्षेम-मुखेम के डांडे पर बने कृष्ण मंदिर और कृष्ण के बारे में कल्पित थी। मंदिर के तीन रावलों ने मुझ छटी पास को उस गढ़वाली गीत के लिए सात-सात रुपये की प्रथम पिंठाई (तिलक)  लगायी थी। आज वह गीत एक लोकगीत के रूप में गाया जाता है। बहुत कम लोग जानते हैं कि उसे मैंने लिखा है। क्योंकि इस बीच बहुत से लोककवियों ने उसे अपने संग्रहों में भी छपा दिया। उस गीत की यही मैं बहुत बड़ी सफलता मानता हूं कि अनायास ही वह मेरा न रहकर सबका हो गया। ऐ भगवान कृष्ण! तुम ऐसी जगह अवतार लेकर बसे हो, जहां बाघ पहरा देता है और भालू थानेदारी करता है। जहां राधा और रुक्मणी एक साथ नैर-थुनैर के पूफलों के साथ खिली-मिली रहती हैं। कृष्ण के बारे में ऐसी कुछ पंक्तियां उस गीत में हैं और कृष्ण को एक ओर पहाड़ी मनुष्य की तरह हिंसक जानवरों से घिरा हुआ देखा गया है। दूसरी ओर लगता है कि जानवर भी सर्वशक्तिमान कृष्ण को प्यार करते हैं। उस कृष्ण को जो राधा और रुक्मणी के साथ क्षेम-मुखेम के शिखर पर रहता है। कृष्ण कथा के सुने हुए लोकरूप उस गीत में आये हैं और इससे अधिक कुछ आया है तो वह मेरे बचपन का डर है जो प्राकृतिक शक्तियों की तरह निर्भय होना चाहता है। रचनात्मक स्तर पर लोक जीवन का हिस्सा बन जाना किसी भी प्रतिक्रिया से बेहतर है। अब वह गीत मेरा नहीं बल्कि जन मानस का गीत बन गया है। कुछ और पंक्तियां भी लोगों ने उसमें जोड़ दी हैं।
पहली किताब ‘शंखमुखी शिखरों पर’ और उसके बाद सुना आपने अपना नाम बदल दिया?पहली किताब को अब किस तरह याद करेंगे?
तब मैं हाईस्कूल के बराबर की मान्यता वाली पूर्वमध्यमा परीक्षा उत्तीर्ण कर चुका था। जब मेरा पहला कविता संग्रह ‘शंखमुखी शिखरों पर’ (1964) प्रकाशित हुआ। उस साल मैंने यू.पी. बोर्ड के इंटरमीडिएट परीक्षा का भी फार्म भरा था। डा. शंभूनाथ सिंह ने इस संग्रह की भूमिका लिखी। उन्होंने मुझे कालिदास वगैरह से भिड़ा दिया। मैं उनका हृदय से आभारी हूं और उनकी सदाशयता के प्रति कृतज्ञता का अनुभव करता हूं। ‘शंखमुखी शिखरों पर’ भी लीलाधर शर्मा के नाम से ही प्रकाशित हुई और ‘कल्पना’ (हैदराबाद) में प्रसिद्ध  कवि प्रयागशुक्ल ने इसकी समीक्षा की थी जिसे मैं कभी भुला नहीं पाता हूं। उसके बाद मैं नयी कविता, प्रयोगवादी कविता और प्रगतिशील कविता के संपर्क में आया। मुझे अपना भाषिक संसार और सोचने का तौर-तरीका काफी रूढ़िबद्ध लगने लगा, इसलिए मैंने लीलाधर शर्मा की जगह लीलाधर जगूड़ी के नाम से कविताएं छपवानी शुरू कर दीं। निस्संदेह उन कविताओं से मेरा पुरानापन गायब था और मैं हमेशा ही कोई न कोई दूर की कौड़ी ढूंढने में लगा रहता था। बदली हुई कविताओं का पहला कविता संग्रह लीलाधर जगूड़ी के नाम से प्रकाशित हुआ। किताब का नाम था ‘नाटक जारी है’। यह 1972 में ‘अक्षर प्रकाशन’ से प्रसिद्ध कहानीकार और उपन्यासकार राजेन्द्र यादव ने प्रकाशित किया। पिफर तो मैं दिन-ब-दिन कवि हो पाया या नहीं लेकिन कविताएं लिखता चला गया और अब मेरा ग्यारहवां कविता संग्रह ‘खबर का मुंह विज्ञापन से ढका है’ (2008) में प्रकाशित हुआ है।
प्रकाशक से कैसा जुड़ाव महसूस करते हैं?
‘राजकमल प्रकाशन’ से पहला जुड़ाव पाठक के रूप में हुआ। जब अच्छी किताबें मिलना (मूल अथवा अनुदित)  कठिन लगता था तब ‘राजकमल’ ने यह कमी पिछले समय में दूर की। कवि के रूप में मेरा जुड़ाव श्रीमती शीला संधू के कारण हुआ। उन्होंने मेरी कविताएं पढ़ने के बाद मुझसे कहा कि मैं अपना एक संग्रह राजकमल प्रकाशन को दूं। ‘बची हुई पृथ्वी’ पहला संग्रह था। उसके बाद घबराये हुए शब्द, भय भी शक्ति देता है, अनुभव के आकाश में, चांद और ईश्वर की अध्यक्षता में राजकमल से ही प्रकाशित हुए। ‘इस यात्रा में’ का दूसरा और तीसरा संस्करण भी यहीं से प्रकाशित हुआ। ‘राजकमल’ से संभवतः चयन ठोक-पीटकर होता है। उत्कृष्टता के स्तर पर यह साख बनी हुई है। आगे-आगे देखिए होता है क्या?
प्रकाशकों को कोई सुझाव देना चाहेंगे?
हिन्दी प्रकाशकों ने अपने तंत्रा में किसी पुस्तक की प्रकाशन पूर्व स्तरीयता की जांच के लिए कोई विद्वत् मंडल गठित नहीं किया है। कम से कम मुझे इसकी जानकारी नहीं है। इसलिए उन्होंने बिकने को ही स्तरीयता का अंतिम और एकमात्रा प्रतिमान मान लिया है। यह संतोषजनक नहीं है। पुस्तक के लेखन और प्रकाशन तक, कुछ पुस्तकें ऐसी हैं जिनकी विस्मयकारी कथाएं हैं। पुस्तक को पढ़वाने के लिए उन घटनाओं का इस्तेमाल प्रकाशन नहीं कर पाते हैं। लेखक प्रकाशक के आपसी संबंध अत्यंत संदिग्ध हैं। अच्छी और उत्कृष्ट पुस्तकों के लेखकों को भी अपनी पुस्तक के नये संस्करण निकलवाने के लिए इंतजार करना पड़ता है। अनुबंध पत्रा पर यह नहीं लिखा जाता कि ऐडिशन कितनी प्रतियों का होगा। रॉयल्टी भी समय से प्राप्त नहीं होती। रॉयल्टी किस दर से दी जाय, यह भी सुनिश्चित नहीं है। हर किताब के जन्म को प्रकाशक के द्वारा एक उत्सव की तरह मनाया जाना चाहिए। लेखक-प्रकाशक के संबंध तभी प्रगाढ़ हो सकते हैं। संबंध का मतलब ही है समान गुरुत्व। गुरुत्वाकर्षण का समान संतुलन। तभी बराबर का संबंध एक समान बंधन की तरह लगेगा। अन्यथा हर बार एक पसंगा लगाना पड़ेगा जिसके हटते ही असमानता आ जायेगी।
कविता लिखने से संतुष्ट हैं?
एक बार दूरदर्शन साक्षात्कार के कार्यक्रम में एक प्रोड्यूसर ;जो मंचीय कवि भी हैंद्ध ने मुझसे पूछा कि आपकी कविता की दुकान कैसे चल रही है? मैं ऐसे प्रश्न के लिए तैयार नहीं था क्योंकि कवि सम्मेलनों जैसी दुकानदारी मैं नहीं करता था। मैंने सोचा दुकानदारी करते होंगे तो मेरे प्रकाशक करते होंगे। मैंने जो जवाब उनको दिया वही आपको देना चाहता हूं। मैंने कहा- अपने पाठकों की कृपा से अच्छी चल रही है। मैं नई कविता जिसे आधुनिक कविता भी कहते हैं, जिसके कवि, कवि होने के लिए मंचों पर नहीं जाते, फि्र भी मेरे कविता संग्रहों के तीन से लेकर पांच-पांच संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं, इससे तो यही लगता है कि दुकानदारी ठीक चल रही है। एक बार धर्मवीर भारती के ‘सात गीत वर्ष’ संभवतः लगभग दस वर्ष बाद जब दूसरा संस्करण छपा था तो हिन्दी अखबारों में यह एक समाचार के रूप में छपा था। संस्करण का पुराने समय से चला आ रहा अर्थ हिन्दी में एक हजार प्रतियां होता है। ऐसे समय में ‘बची हुई पृथ्वी’ और ‘भय भी शक्ति देता है’ का पांचवां संस्करण मेरे लिए सुखद है। ऐसा लगता है कि छपे हुए कवियों में मैं ही ज्यादा बिकाफ हूं। दोनों पुस्तकें राजकमल प्रकाशन से ही छपी है। श्री अशोक माहेश्वरी बता रहे थे कि आप काउंटर पर से बिकने वाले कवि हैं। फिर भी किसी अच्छे आलोचक ने मेरी कविताओं के साथ ‘एनकाउन्टर’ नहीं किया है। इसकी मुझे चिंता है। देखिए, समानधर्मा के लिए भवभूति के शब्दों में कितना इंतजार करना पड़ता है।
रुचि के विषय क्या हैं? इन दिनों क्या पढ़ रहे हैं?
इतिहास, विज्ञान और दर्शन। इधर मैं ऋवेद पर सायण, यास्क और मैक्समूलर के भाष्य पढ़ रहा हूं। इन दिनों मैं अपनी कुछ कविताओं और कुछ गद्यात्मक टिप्पणियों पर काम भी कर रहा हूं।
हिन्दी के कविता परिदृश्य पर कुछ?
हिन्दी का वर्तमान कविता परिदृश्य, कवियों की गणना करें तो बहुसंख्यक और अच्छी कविताओं का चयन करें तो अल्पसंख्यक दिखता है। पर जो भी अच्छी कविताएं हैं वे महान कविताएं भी हैं। शायद वर्तमान परिदृश्य एक कवि से नहीं कई कवियों की कई बड़ी कविताओं से बनेगा। लेकिन चयन का सामुदायिक प्रयास कहीं दिखता नहीं है। अगर पिछली सदी की कुछ कविताएं इस सदी में भी काम आ जाये तो शायद इस बात का शुमार हो कि अब भी कितनी ये कविताएं काम की हैं। क्योंकि समाज इतनी जल्दी बदलने वाला नहीं है।
नये कवियों का मूल्यांकन किस दृष्टि से करना चाहेंगे?
अभी तो मौजूदा कवियों के ही मूल्यांकन के लाले पड़े हैं। नये कवियों को परीक्षित करने का समय आने वाला है। कुछ नये कवियों ने तो अधेड़ उम्र में ही कविताएं लिखनी शुरू की और वे अब वृद्ध कवियों की समृद्ध  श्रेणी में शामिल करने योग्य हो गये हैं। हरेक कवि के पास कुछ न कुछ उत्कृष्ट कविताएं हैं उन्हें छांटकर हिन्दी कविता की प्रगतियात्रा का विचार-विवरण तैयार किया जाना जरूरी है तभी इतिहास बनेगा। हर नये कवि पर मेरा भरोसा है कि वह लीक से हटकर कुछ न कुछ करेगा। क्योंकि लीकवादी नये कवियों ने कविता को काफी एकरस बना दिया है।
अपनी पसंद के दस कवि बता सकें तो अच्छा लगेगा?
इस सवाल का उत्तर मैं एक प्रति प्रश्न के द्वारा देना चाहता हूं। जिस भाषा में अज्ञेय, मुक्तिबोध, नरेश मेहता, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, भवानी प्रसाद मिश्र, बच्चन, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर, श्रीकांत वर्मा, राजकमल, धूमिल, साही और सौमित्रा मोहन के महान कृतित्व का विराट प्रभाव सेतु मौजूद हो और जिसमें एक साथ कुंवर नारायण, केदारनाथ सिंह, कैलाश वाजपेयी, अशोक वाजपेयी, विनोद कुमार शुक्ल, चन्द्रकांत देवताले, ऋतुराज, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, गिरधर राठी, विष्णु खरे, मंगलेश डबराल, राज जोशी, अरुण कमल, विष्णु नागर, उदय प्रकाश, असद जैदी, कात्यायनी, देवी प्रसाद मिश्र, वीरेन डंगवाल, एकांत श्रीवास्तव, अष्टभुजा शुक्ल, अनामिका, विमल कुमार और नरेश सक्सेना जैसे विविधवर्णी बीस से भी अधिक सक्रिय श्रेष्ठ कवि मौजूद हों वहां केवल दस कवि गिनाकर हिन्दी कविता के परिदृश्य को छोटा क्यों किया जाए?यह परिदृश्य वस्तुतः और भी बड़ा है। क्योंकि इसमें भारत के अनेक हिन्दीतर भाषी प्रदेशों के सशक्त हिन्दी कवियों के नाम नहीं आये हैं। असली ताकत तो हिन्दी को उन्हीं से मिलती है। हिन्दी क्षेत्रों के हिन्दी कवि और लेखकों तक हिन्दी साहित्य को सीमित करके हिन्दी के आलोचकों ने अपनी सुविधानुसार सारा गुड़ गोबर किया है।
कविता और अन्य विधाओं की कुल जमा क्या हालत आप देखते हैं?
यह बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि हिन्दी के सारे साहित्यकार कविता और कहानी के पीछे डंडा लेकर पड़े हैं। ज्ञान की दूसरी महत्वपूर्ण विधाओं से उनका सरोकार नगण्य है। कविता और कथा साहित्य में धीरे-धीरे हमारे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करती नई टेक्नोलॉजी के साथ संघर्ष या राग-विराग पूर्ण संबंधों वाली स्थितियां या पात्रा कहीं दिखाई नहीं देते। आधुनिक हिन्दी कविता और कथाओं में माइथालॉजी के साथ भी संवाद बहुत कम दिखाई देता है। नयों में तो कतई नहीं। ज्ञान और विज्ञान की कोई टक्कर किसी कृति में आप मुझे दिखा दीजिए। बाजारीकरण और वैश्वीकरण का इतना हौवा है कि साम्यवाद और समाजवाद भी उसके सामने पफीके पड़ गये, लेकिन क्या कोई अच्छी कविता और कहानी इस संदर्भ में छांटकर व्याख्यायित की गयी है?नाटक और निबंध की इस समय सबसे बुरी हालत है। स्वास्थ्य, कानून और प्रबंधन की समस्याओं को लेकर क्या कोई आधुनिक उपन्यास सामने आया? बहुत जीरो माहौल है। बतौर पाठक सारे लेखकों को उठाकर पटक देने का मन होता है। ताकि एक बार वे अपने को पूरी तरह झाड़ते हुए उठ खड़े हों। कहां है उनका स्वाध्याय और कहां है उनकी नयी जीवन दृष्टि? कहां है उनका वह अनोखा कृतित्व जिसे हम अब तक नहीं जानते थे?जब रिपोर्ताज और यात्रा विवरण और संस्मरण शैलियां मिल-जुलकर कथा साहित्य में आयेंगी तो उपन्यास समृ( होगा। केवल कथा शैली उपन्यास के लिए कापफी नहीं है। उसमें जिन्दगी के कई अन्य नाटकीय तत्वों को शामिल करना जरूरी है। यही बात कविता पर भी लागू होती है। कविता जैसी कविता लिखते रहने से क्या फायदा? विषयवस्तु और शिल्प की बहुत नई तरह की तोड़-पफोड़ नये कवियों के द्वारा नहीं हो रही है। नये सड़क छाप मुहावरे किसी गहरी अनुभूति के साथ नहीं आ रहे हैं।
पाठक बढ़ाने के लिए क्या किया जाना चाहिए?इसमें यह भी प्रयोग किया जाना चाहिए कि किसी भी अच्छी पुस्तक का 10 हजार अथवा कम से कम 5 हजार प्रतियों से कम का संस्करण नहीं छपना चाहिए। इससे योजना को खास प्रचार भी मिलेगा। समीक्षार्थ, कम से कम दो सौ प्रतियां अलग से छापी जानी चाहिएं। पाठकों की संख्या स्तरीय पुस्तकों के प्रकाशन से और मूल्य कुछ कम रखने से बढ़ेगी। मूल्य कम करने का एक ही तरीका है कि संस्करण कम से कम पांच हजार प्रतियों का हो। शासन स्तर पर गांव-गांव में पुस्तकालयों की स्थापना से भी पाठकों की कमी दूर होगी। अच्छे और शुभ अवसरों पर परस्पर संबंधों की प्रगाढ़ता के लिए पुस्तकें भेंट करने की परम्परा को विकसित किया जाय। अगर यह रिवाज बन गया तो किताबें खूब बिकेंगी।
भूमंडलीकरण के दौर में क्या संकट आप महसूस करते हैं?
दुनिया छोटी हो या बड़ी, महत्वपूर्ण यह है कि दुनिया अपनी हो। पूरी दूनिया से अपनत्व तभी पैदा होगा जब स्थानीयता की ढाल को हटाकर लोग निष्कवच होकर दुनियावी प्रेम में आलिंगित हों। राष्ट्रीयता भी एक स्थानीयता है, समस्त पृथ्वी को एक परिवार समझने के लिए कभी हम इस स्थानीयता का भी परित्याग कर सकेंगे। चुनौतियां भी हैं और बाधाएं भी हमारे स्वभाव में ही छिपी हुई हैं। क्या नई पीढ़ी भूमंडलीकरण के इस दौर में यह संतुलन प्राप्त कर पायेगी जो हम नहीं कर पाये?
उपन्यास ज्यादा बिकते हैं कविता संग्रहों के मुकाबले, ऐसा क्यों?
आपका गणित मुनाफे के तर्क पर आधारित लगता है। जिन लेखकों को आप बिकाउफ मानते हैं उनकी भी कौन सी किताब ज्यादा बिकी है या बिक रही है – यह आपने नहीं बताया। क्या इनकी हर पुस्तक ज्यादा बिकती है। कविता पुस्तकों की तुलना उपन्यास के साथ नहीं की जा सकती। कविता पुस्तकों के नये संस्करण आना अपने आप में एक महत्वपूर्ण खबर है। उस खबर को अलग से प्रसारित और प्रचारित किया जाना चाहिए। उपन्यास की एक हजार प्रतियां और किसी कविता संग्रह की एक सौ प्रतियों की बिक्री को मैं बराबर समझता हूं। सरलता की ओर सभी जाते हैं, कठिनाई का रास्ता बहुत कम लोग चुनते हैं, उन्हीं कम लोगों की वजह से समझदारी बची हुई है।
अपनी कविता की रचना-प्रक्रिया पर अवश्य कुछ कहें?
रचना-प्रक्रिया, खासकर कविता की, अत्यंत अनिश्चित है। कभी वह एक विचार के रूप में हो सकती है कभी एक दृश्य के रूप में। कभी वह एक संवाद के रूप में हो सकती है कभी एक प्रतिवाद के रूप में। लगता है कि कविता, भाषा का एक अनिश्चित ज्वार है जो विषय के अनुरूप शिल्प को अपने साथ पैदा करने की कोशिश में किसी बात को एकदम नये तरीके से कहने के लिए रचनाकार में अलग-अलग तरीके से पैदा हो जाता है। कविता कभी एक भावावेग पर आधारित लगती है कभी किसी गहरे दुख से बनी हुई। कविता एक उच्छल खुशी भी दे सकती है और एक गहरा पछतावा भी। कविता तमाम असभ्यताओं के बीच और बावजूद एक जीवनानुभव को सभ्यता में शामिल करने की कोशिश है। कविता, एकांत में रची गयी सार्वजनिक अनुभूति है तो सार्वजनिक अनुभूति का रचनात्मक एकांत भी कविता में ही दिखायी देता है। कविता केवल शब्दों से ही नहीं बनती बल्कि कर्म के हर क्षेत्रा में मानवीय संलग्नता से भी बनती है। कविता की रचना-प्रक्रिया निस्सरण के अर्थ में पानी जैसी सरल और पार करने के अर्थ में नदी जैसी जटिल है।

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