शनिवार, 29 अगस्त 2015

प्रेमचंद की चंद दुर्लभ कहानियां




साभार हिन्दी समय

प्रस्तुति- स्वामी शरण 

दाराशिकोह का दरबार
सौदा-ए-खाम1
इश्तिहारी शहीद

जंजाल
महरी
वफा की देवी


दाराशिकोह का दरबार
darwar-premchand
[मुंशी बिशन सहाय आजाद के सम्पादन में लाहौर से उर्दू मासिक ‘आजाद’ प्रकाशित होता था, जिसके सितम्बर 1908 के अंक में प्रेमचंद की एक कहानी ‘दाराशिकोह का दरबार’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। लम्बे समय तक अनुपलब्ध रहने के पश्चात् यह कहानी सन् 1991 में डा. हुकम चंद नैयर ने खोज निकाली और कलकत्ते के उर्दू मासिक ‘इंशा’ के जनवरी 1995 के अंक में प्रकाशित कराकर प्रेमचंद साहित्य में सम्मिलित कराई। डा. नैयर ने इस कहानी की फोटोकापी बम्बई के प्रेमचंद-विशेषज्ञ गोपाल कृष्ण माणकटाला को भी प्रेषित कर दी थी, जिन्होंने इसका अविकल पाठ 2001 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘प्रेमचंद का सेक्यूलर किरदार और दीगर मजामीन’ में अपनी विस्तृत टिप्पणी के साथ प्रकाशित करा दिया।
प्रेमचंद साहित्य पर शोध करके डा. जाफर रजा ने सन् 1977 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पी-एच्.डी. की उपाधि प्राप्त की थी। इस शोध कार्य के क्रम में उन्हें प्रेमचंद की २५ अप्राप्य कहानियाँ भी प्राप्त हुई थीं जो अमृतराय के हंस प्रकाशन, इलाहाबाद से ‘गुप्त-धन’, भाग-३ शीर्षक संकलन में सम्मिलित होकर प्रकाशित होनी प्रस्तावित थीं। यह संकलन तो प्रकाशित नहीं हो पाया, परन्तु इन कहानियों की सूची डा. रजा ने ‘प्रेमचंद : उर्दू-हिन्दी कथाकार’ के पृष्ठ संख्या 109 पर प्रस्तुत कर दी थी। इस सूची में ‘दाराशिकोह का दरबार’ का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होने से यह अनुमान होता है कि इस कहानी का पाठ उनके पास भी उपलब्ध था।
सन् 1980 में प्रेमचंद जन्म शताब्दी के अवसर पर उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी, लखनऊ ने जो अखिल भारतीय सेमीनार आयोजित किया था, उसमें दिए गए व्याख्यानों का संकलन 1978 में ‘मकालात योमे प्रेमचंद’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इस संकलन में डा. शैलेश जैदी का लेख ‘प्रेमचंद के अफसाने और उनका तहजीबी शऊर’ भी प्रकाशित है। संकलन के पृष्ठ संख्या 91-92 पर डा. जैदी ने इस कहानी से एक उद्धरण दिया है जिससे पता चलता है कि इस कहानी का पाठ उनके पास भी उपलब्ध था।
आश्चर्य की बात है कि जो कहानी सन् 1977 तथा सन् 1980 में दो विद्वानों के पास उपलब्ध थी और जो सन् 1995 तथा 2001 में दो स्थानों पर प्रकाशित हो चुकी है, उसके सम्बन्ध में डा. कमल किशोर गोयनका सन् 2005 में पहली बार प्रकाशित अपनी पुस्तक में प्रेमचंद की शेष अनुपलब्ध कहानियों की सूची में निम्नांकित सन्दर्भ प्रस्तुत करते हैं -
"दाराशिकोह का दरबार : उर्दू कहानी, आजाद, लाहौर, सितम्बर 1908।1
1. प्रेमचंद की अप्राप्य कहानियाँ; 
स्पष्ट है कि डा. गोयनका इस कहानी को अप्राप्य बताते हैं, जो कि उपर्युक्त सन्दर्भों के आलोक में अशुद्ध तथा भ्रामक है।
उपर्युक्त समस्त तथ्यों से स्पष्ट है कि डा. हुकम चंद नैयर, गोपाल कृष्ण माणकटाला, डा. जाफर रजा, डा. शैलेश जैदी और डा. कमल किशोर गोयनका प्रभृति विद्वान् ‘दाराशिकोह का दरबार’ को प्रेमचंद की कहानी मानते हैं और इस रूप में ही इसका वर्गीकरण भी करते हैं। परन्तु इन सब विद्वानों के मत के प्रतिकूल मदन गोपाल इसे प्रेमचंद की कहानी न मानकर मात्र लेख ही मानते हैं और अपने कथन के पक्ष में लिखते हैं -
"कुछ मुहक्किकीन ने तो ‘दाराशिकोह का दरबार’ को अफसानों में शामिल करना चाहा है। सितम्बर 1908 में लाहौर के माहवार रिसाले ‘आजाद’ में शाया हुआ। यह अफसाना नहीं इंशाईयः है। प्रेमचंद तारीखी वाकिआत को मौजू बनाकर अफसाने जरूर लिखते थे जैसे इम्तिहान, नजूले बर्क, दिल की रानी, जंजीरे हवस, मगर इन सबमें वे ड्रामाई कैफियत पैदा कर देते थे। मगर ‘दाराशिकोह का दरबार’ में मुगल बादशाह शाहजहाँ के फरजन्दे अजीम की जिन्दगी के सिर्फ एक पहलू पर रोशनी डाली गई है। यह तो मजमून ऐसे ही है जैसे प्रेमचंद का क्रामवेल पर मजमून।1
1. कुल्लियाते प्रेमचंद, भाग-9,
अपनी मान्यता के पक्ष में मदन गोपाल ने जो तर्क प्रस्तुत किए हैं उन्हें पुष्ट करने के लिये कोई प्रमाण प्रस्तुत करने का उन्होंने कोई प्रयास नहीं किया। इस रचना के प्रस्तुत पाठ से इसकी ‘ड्रामाई कैफियत’ होने में कोई सन्देह नहीं रहता और इसमें दाराशिकोह के जीवन का मात्र ‘एक पहलू’ नहीं वरन् उसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व मुखर होता दिखाई देता है।
यहाँ यह उल्लेख करना असंगत न होगा कि यह कहानी प्रेमचंद की प्रारम्भिक कहानियों में से है। जिस समय प्रेमचंद ने यह कहानी लिखी उस समय वे कहानी की आधारशिला रख रहे थे। इस कहानी के प्रकाशित होने के मात्र तीन महीने पहले जून 1908 में प्रकाशित प्रेमचंद के प्रथम कहानी संकलन ‘सोजे वतन’ की कहानियाँ भी भाषा और शिल्प की दृष्टि से इस कहानी से अत्यधिक साम्य रखती हैं। इतना अवश्य है कि अपनी प्रारम्भिक कहानियों में प्रेमचंद पर पूर्ववर्ती दास्तानों और किस्सों का प्रभाव व्यापक रूप से दृष्टिगोचर होता है। ‘दाराशिकोह का दरबार’ भी इस प्रभाव से अछूती कहानी नहीं है और यह प्रेमचंद-पूर्व के किस्सों की शैली में लिखी कहानी ही है, लेख नहीं।
प्रेमचंद के समस्त लेखन से यह स्पष्ट होता है कि वे हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल पक्षधर थे। अपनी प्रारम्भिक कहानियों में से एक ‘दाराशिकोह का दरबार’ में प्रेमचंद ने अपनी विचारधारा स्पष्ट करने के लिए भारतीय इतिहास के उस अनूठे व्यक्तित्व - दाराशिकोह का चयन किया जो आज भी धर्म पर हावी होते कठमुल्लापन और कट्टरता का सटीक उत्तर है। अतः प्रेमचंद की मानसिक संरचना का तथ्यपरक अध्ययन करने की दृष्टि से यह उनकी अत्यंत महत्त्वपूर्ण कहानी है।
शहजादा दाराशिकोह शाहजहाँ के बड़े बेटे थे और बाह्य तथा आन्तरिक गुणों से परिपूर्ण। यद्यपि वे थे तो वली अहद मगर साहिबे किरान सानी1 ने उनकी बुद्धिमत्ता, विशेषता, गुणों और कलात्मकता को देखकर व्यावहारिक रूप में पूरे साम्राज्य की व्यवस्था उन्हीं को सौंप रखी थी। वे अन्य शहजादों की तरह सम्बद्ध प्रान्तों की सूबेदारी पर नियुक्त न किए जाते, वरन् राजधानी में ही उपस्थित रहते और अपने सहयोगियों की सहायता से साम्राज्य का कार्यभार संभालते। खेद का विषय है कि यद्यपि उनको योग्य, अनुभवी, गर्वोन्नत, आज्ञाकारी बनाने के लिए व्यावहारिकता की पाठशाला में शिक्षा दी गई, लेकिन देश की जनता को उनकी ओर से कोई स्मरणीय लाभ नहीं हुआ। इतिहासकारों का कथन है कि यदि औरंगजेब के स्थान पर शहजादा दाराशिकोह को गद्दी मिलती तो हिन्दुस्तान एक बहुत शक्तिशाली संयुक्त साम्राज्य हो जाता। यह कथन हालँाकि किसी सीमा तक एक मानवीय गुण पर आधारित है, क्योंकि मृत्यु के पश्चात् प्रायः लोग मनुष्यों की प्रशंसा किया करते हैं, फिर भी यह देखना बहुत कठिन नहीं है कि इसमें सच्चाई की झलक भी पाई जाती है।
शहजादा दाराशिकोह अकबर का अनुयायी था। वह केवल नाम का ही अकबर द्वितीय नहीं था, उसके विचार भी वैसे ही थे और उन विचारों को व्यावहारिकता में लाने का तरीका भी बिल्कुल मिलता हुआ नहीं, बल्कि उसके विचार अधिक रुचिकर थे और उनको व्यवहार में लाने के तरीके, नियमों और सिद्धान्तों में अधिक रुचि। उसकी गहन चिन्तन दृष्टि ने देख लिया था कि हिन्दुस्तान में स्थायी रूप से साम्राज्य का बना रहना सम्भव नहीं जब तक कि हिन्दुओं और मुसलमानों में मेल-मिलाप और एकता स्थापित नहीं हो जाती। वह भली-भाँति जानता था कि शक्ति से साम्राज्य की जड़ नहीं जमती। साम्राज्य की स्थिरता व नित्यता के लिए यह आवश्यक है कि शासकगण लोकप्रिय सिद्धान्तों और सरल कानूनों से जनता के दिलों में घर कर लें। पत्थर के मजबूत किलों के बदले दिलों में घर करना अधिक महत्त्वपूर्ण है और सेना के बदले जनता की मुहब्बत व जान छिड़कने पर अधिक भरोसा करना आवश्यक है। दाराशिकोह ने इन सिद्धान्तों का व्यवहार करना प्रारम्भ किया था। उसने एक अत्यन्त रोचक तथा सार्थक पुस्तक लिखी थी जिसमें अकाट्य तर्कों से यह सिद्ध किया था कि मुसलमानों की नित्यता हिन्दुओं से एकता व संगठन पर आधारित है। उसकी दृष्टि में बाबा कबीरदास, गुरु नानक जैसे महापुरुषों का बहुत सम्मान था क्योंकि दूसरे पैगम्बर मानव जाति में भेद उत्पन्न करते थे लेकिन ये महानुभाव सर्वधर्म समभाव की शिक्षा देते थे।
1. ‘साहिबे किरान’ तैमूर की उपाधि थी। उसकी छठी पीढ़ी के बाबर ने भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना की थी। मुगल बादशाहों में से शाहजहाँ के लिये सर्वप्रथम ‘साहिबे किरान सानी’ का विरुद प्रयुक्त हुआ और उसके पश्चात् शाह शुजा, मुराद बख्श, शाह आलम प्रथम, जहाँदार शाह, फर्रूखसियर, मुहम्मद शाह द्वितीय और अकबर द्वितीय के लिए भी इसी विरुद का प्रयोग किये जाने के प्रमाण मिलते हैं।
इस समय हिन्दू तथा मुसलमान, दोनों जातियाँ दो बच्चों की सी हालत में थीं। एक ने तो कुछ ही दिन पहले दूध छोड़ा था, दूसरा अभी दूध-पीता था। दाराशिकोह का विचार था कि इस दूध-पीते बच्चे पर दूसरे को बलिदान कर देना अहितकर होगा। हालाँकि उसके दूध के दाँत टूट गए हैं, लेकिन अब वे दाँत निकलेंगे जो और भी ज्यादा मजबूत होंगे। दाँत निकलने से पहले ही चने चबवाना अमानवीयता है। क्यों न दोनों बच्चों का साथ-साथ पालन-पोषण हो। अगर एक को अधिक दूध दिया जाये तो दूसरे को पौष्टिक चीजें दी जाएँ।
इस जातीय एकता के लिये दाराशिकोह के मन में भी वही बात आई जो अकबर के मन में आई थी। अर्थात् दोनों जातियों के हृदय से विजेता और विजित, आधिपत्य और अधीनता की भावना समाप्त हो जाए। दोनों खुले हृदय से मिलें, आपस में वैवाहिक सम्बन्ध हों, मेल-जोल बढ़े। न कोई हिन्दू रहे न कोई मुसलमान, बल्कि दोनों भारतभूमि के निवासी हों, दोनों में पृथक्-पृथक् होने का कोई चिह्न शेष न रह जाये। शहजादा इस एकता में अकबर से भी एक इंच आगे था। अकबर ने राजाओं की पुत्रियों से विवाह किया था, राजाओं को उचित प्रतिष्ठा प्रदान की थी, हिन्दुओं पर से उस जजिया का भार हटा दिया था जो उन्हें हिन्दू होने के कारण देना पड़ता था, लेकिन शहजादे का कहना था कि राजकन्याओं से ही विवाह क्यों किया जाए, मुगल परिवार की लड़कियाँ भी राजाओं को क्यों न ब्याह दी जाएँ। उसने भली-भाँति समझ लिया था कि भारतवासी अपनी लड़कियों का विवाह दूसरी जातियों में करने को अपना अपमान तथा तिरस्कार समझते हैं। और जब उनकी लड़कियाँ ली जाती हैं मगर मुसलमानों द्वारा लड़कियाँ दी नहीं जाती तब यह भावना और भी दृढ़ हो जाती है। सच्चा मेलजोल उसी दशा में होगा जब लड़की और लड़के में कोई अन्तर शेष न रह जाये। उसने स्वयं अग्रगामी बनना चाहा था, केवल अवसर की प्रतीक्षा में था।
शहजादा दाराशिकोह केवल समाज सुधारक नहीं था, उसके सिर पर ज्ञान तथा प्रतिष्ठा की पगड़ी भी बँधी हुई थी। उसने भारत की सभी प्रमुख भाषाओं पर अधिकार प्राप्त कर लिया था, विशेषकर संस्कृत से तो उसे प्यार सा हो गया था। घंटों हौज के किनारे बैठा पतंजलि या गौतम का दर्शन पढ़ता, चिन्तन करता और रोता। एशियाई भाषाओं के अतिरिक्त उसने यूरोप की भी कई भाषाओं में निपुणता प्राप्त कर ली थी। लातिनी, यूनानी तथा इबरानी भाषाओं पर उसकी अच्छी पकड़ थी। फ्रांसीसी, अंग्रेजी तथा जर्मन जैसी आधुनिक भाषाएँ, जिनका अभी तक इतना विकास नहीं हुआ था कि उनकी विशेषता व सौन्दर्य दूसरे देशों को आकर्षित करता, उसे प्रभावित नहीं कर सकीं, फिर भी उन भाषाओं से वह नितान्त अनभिज्ञ नहीं था। थोड़ी बहुत बातचीत समझ लेता और टूटे-फूटे शब्दों में अपने विचार भी प्रकट कर लेता था। वह इतने बड़े देश पर शासन करता था और उसके साथ-साथ अपनी व्यक्तिगत शिक्षा के लिये भी ऐसा प्रयास करता था; यह सोचकर आश्चर्य होता है कि उसकी क्षमताएँ कैसी थीं और मस्तिष्क कैसा।
दाराशिकोह ने वह गलती न की जो अकबर ने की थी। अकबर के सलाहकार या तो हिन्दू थे या मुसलमान और इसका स्वाभाविक परिणाम यह था कि दोनों में निरन्तर तू-तू मैं-मैं चला करती थी। यदि अकबर जैसा दृढ़ संकल्पी शासक न होता तो उस वर्ग को बिल्कुल भी वश में नहीं रख सकता था जिसमें मानसिंह, अबुल फजल जैसे मनोमस्तिष्क के लोग थे। स्पष्ट है कि ऐसे सलाहकारों की सम्मति कभी निरर्थक नहीं होगी, हरेक अपनी जाति की ओर ही खींचेगा। इस भय से शहजादे ने अपने सलाहकार अंग्रेजों से लिए थे क्योंकि उनसे अनुचित पक्षपात की आशंका नहीं हो सकती थी। पहले अपने दरबारियों से हरेक बात की पूछताछ करता और तब अपने फिरंगी सलाहकारों से राय लेकर निर्णय करता।
तीसरे पहर का समय है। शहजादा दाराशिकोह का दरबारे खास सजा है। अच्छी और नेक सलाह देने वाले सलाहकार पद के अनुरूप सजी-धजी पोशाकों में उपस्थित हैं। ठीक मध्य में एक जड़ाऊ सिंहासन है जिस पर शहजादे साहब विराजमान हैं। उनके चेहरे से चिन्तामग्न तथा विचारमग्न होना स्पष्ट होता है। हाथ में एक शाही फरमान है जिसे वे रह-रहकर व्याकुल दृष्टि से देखते हैं और फिर कुछ सोचने लगते हैं। सिंहासन से सटी हुई एक रत्नजटित कुर्सी पर हेनरी बोजे बैठा हुआ है, जो शहजादे का मनपसंद सलाहकार है और उसकी सलाह का बड़ा सम्मान किया जाता है। हेनरी बोजे के बराबर में दूसरी जड़ाऊ कुर्सी पर मालपेका बैठा हुआ है। सिंहासन के बाँईं ओर फ्रांसीसी पर्यटक बर्नियर एक कुर्सी पर बैठा हुआ कुछ सोच रहा है और उसके बराबर में एक दूसरी कुर्सी पर पुर्तगाली राजदूत जोजरेट बैठा है। पूरे दरबार में आश्चर्यजनक मौन पसरा हुआ है। चारों ओर के दरवाजे बंद हैं। सलाहकारों की आँखें बार-बार शहजादे की ओर उठती हैं लेकिन उन्हें चुप देखकर फिर नीची हो जाती हैं। थोड़ी देर बाद शहजादे साहब ने कहा, ‘महानुभावो! शायद आप लोगों को कंधार अभियान की तबाही का समाचार मिला हो।’
इस संक्षिप्त से वाक्य ने उपस्थित महानुभावों के मुँह का रंग उड़ा दिया। हरेक व्यक्ति सन्नाटे में आ गया और कई मिनट तक किसी को बोलने का भी साहस न हुआ। अन्ततः हेनरी बोजे ने कहा, ‘यह समाचार सुनकर हमें अत्यधिक शोक हुआ, हम सच्चे हृदय से साम्राज्य के पक्षधर हैं।’
पादरी जोजरेट : ‘मगर समझ में नहीं आता कि असफलता क्यों हुई। गोले उतारने वाले, सेना को व्यवस्थित करने वाले तो प्रायः फिरंगी थे जिनके सिरों पर हजरत मसीह की कृपा थी। उनका असफल रहना समझ में नहीं आता।’
यह कहकर उन्होंने गले से मसीह की छोटी सी तस्वीर निकाली और बड़े सम्मान के साथ चूमी। अब डाक्टर बर्नियर की बारी आई। पहले उन्होंने दर्शकों को उस दृष्टि से देखा जो सत्यनिष्ठ भी थी और सत्यवक्ता भी। इसके पश्चात् बोले, ‘महानुभावो! सच पूछिए तो इस अभियान की सफलता में मुझे पहले से ही सन्देह था। शहजादा मुहीउद्दीन इसके भाग्यविधाता बनने के योग्य नहीं थे। इसलिए नहीं कि उनमें यह योग्यता नहीं है, बल्कि केवल इसलिए कि वे अपने वैमनस्य को दबा नहीं सकते। मुझे विश्वास है कि इस असफलता का कारण राजा जगत सिंह का अलग रहना है।’
इसके पश्चात् कई मिनट तक सन्नाटा रहा।
अन्ततः शहजादे साहब ने चुप्पी को यूँ तोड़ा, ‘महानुभावो! मैं इस वाद-विवाद में नहीं पड़ता कि इस असफलता का वास्तविक कारण क्या है। इस बात की छानबीन करना उचित नहीं है। आप भली प्रकार जानते हैं कि ऐसा करना बुद्धिमानी के प्रतिकूल होगा।’
शहजादे साहब ने ये शब्द रुक-रुककर कहे। प्रतीत होता था कि इस समय ये मन में उभरने वाले विचारों से परेशान हो रहे हैं, जैसे कोई आन्तरिक दुविधा में पड़ा हो। मन पहले कहता हो अच्छा है ऐसा कर लेकिन फिर दिशा बदल जाता हो। अपनी बात समाप्त करके शहजादे ने उपस्थित लोगों को सार्थक दृष्टि से देखा। जो कुछ वाणी न कह सकी थी, आँखों ने कह दिया। पादरी जोजरेट ने शहजादे को उत्तर देते हुए कहा, ‘जहाँपनाह! धृष्टता क्षमा हो। गुलाम की तुच्छ राय तो यह है कि इस असफलता के कारणों पर प्रत्येक दृष्टि से विचार कर लें, भले ही वे कितने ही अरुचिकर क्यों न हों, ताकि भविष्य के लिये उन महत्त्वपूर्ण कारणों की रोकथाम भी कर ली जाये। असफलता हमें गलतियों से परिचित करा देती है, इसलिए मेरी दृष्टि में सफलताओं का इतना महत्त्व नहीं है जितना कि असफलताओं का। निस्संदेह सांसारिक अनुभव का असफलता से बढ़कर और कोई शिक्षक नहीं होता।’
यह कहकर पादरी साहब ने दर्शकों को गर्वोन्नत दृष्टि से देखा मानो उस समय उन्होंने कोई असाधारण काम किया हो। और निस्संदेह शहजादे साहब के वक्तव्य पर आपत्ति करना कोई साधारण काम नहीं था। उनकी सलाह सबको अच्छी लगी। शहजादे साहब ने भी समर्थन करते हुए कहा, ‘पादरी साहब! आप जो कहते हैं बहुत ठीक है। बेशक मैं गलती पर था लेकिन शायद आपने मेरे स्वर से यह तो अवश्य समझ लिया होगा कि मुझे जान बूझकर गलती करनी पड़ती है। इस असफलता के कारणों की खोज में मुझे मन से कोई आपत्ति नहीं। लेकिन ..... लेकिन किसी समय आँख बन्द करना ही ठीक होता है, विशेषकर उस समय जबकि शाही खानदान के एक वरिष्ठ सदस्य की प्रतिष्ठा में अन्तर आता हो। बस, इस समय तो हम केवल इस बात का निर्णय करना चाहते हैं कि क्या सदा के लिए कंधार से हाथ खींच लेना उचित है? इस समय तक कंधार पर दो अभियान हो चुके हैं लेकिन दोनों के दोनों असफल रहे। आपसे छिपा नहीं है कि इन दूर के अभियानों में साम्राज्य को भारी खर्च सहन करना पड़ता है।’
यह सुनते ही अरस्तू के खानदानी सलाहकारों के सिर पुनः लटक गए। निस्संदेह समस्या अत्यन्त जटिल थी और उसे सुलझाने के लिए सोच-विचार करने की भी आवश्यकता थी। पन्द्रह मिनट तक तो सबके सब अपना आपा खोए बैठे रहे, उसके बाद वाद-विवाद इस प्रकार प्रारम्भ हुआ-
हेनरी बोजे : ‘कंधार पर मुगल बादशाहों का अधिकार कब से है?’
डाक्टर बर्नियर : ‘शहंशाह बाबर के शुभ युग से।’
हेनरी बोजे : ‘दीर्घकालीन शासन होने पर भी वहाँ इस खानदान का प्रभुत्व स्थापित नहीं हुआ।’
बर्नियर : ‘इसका कारण यही है कि शहंशाह बाबर के बाद भारत के सम्राट् हिन्दुस्तान के मामलों में इतने व्यस्त रहने लगे कि कंधार पर पर्याप्त ध्यान न दे सके। इसी कारण दोनों देशों के पारस्परिक सम्बन्ध दिन प्रतिदिन कमजोर होने लगे।’
बोजे : ‘संक्षेप में इसका अर्थ यह है कि भारत के सम्राटों को कंधार से उतना फायदा नहीं था कि उसको भी भारत का एक प्रान्त समझकर पर्याप्त ध्यान देते। यदि ऐसा करते तो कंधार कभी सिर न उठा पाता।’
बर्नियर : ‘निस्संदेह, भारत के सम्राटों का अधिकांश समय हिन्दू राजाओं को अधीन करने और प्रान्तों के वैमनस्य और उपद्रव शान्त करने में व्यतीत होता था। हजरत अर्श आशियानी ने हालाँकि एक बार कंधार को एक अभियान भेजना चाहा था लेकिन कुछ न कुछ रुकावटों से तंग आकर इरादा छोड़ दिया। अन्तिम रूप से यह कहना आसान नहीं है कि भारत के सम्राट् कंधार से क्यों बेखबर रहे। सम्भव है कि दूरी के विचार अथवा असफलता के भय अथवा भरे पूरे खजाने की गरीबी के कारण ऐसा न कर सके हों।’
मालपेका : ‘मगर क्या वही चिन्ताएँ इस समय भी सामने नहीं हैं। दक्खिन की उलझनें इतनी बढ़ गई हैं कि अब उनको सुलझाना बहुत कठिन है, और यह कहने की आवश्यकता नहीं कि दक्खिन-विजय कंधार-विजय से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है। भारत और कंधार के मध्य जो दूरी थी वह तिलमात्र भी कम नहीं हुई। और अब असफलता का भय पहले से भी अधिक है क्योंकि अब ईरान के शासक भी कंधार की सहायता के लिये कटिबद्ध हैं।’
पादरी जोजरेट : ‘ठीक कहा, मगर अब भारत के सिंहासन पर वह बादशाह नहीं है जिसे दूरी या असफलता का भय अपने संकल्प से डिगा सके। पूर्ववर्ती सम्राटों के काल में भारत का साम्राज्य शैशवावस्था में था। अब उसकी जवानी उठान पर है। उस काल में भारत पर हजरत मसीह की कृपा नहीं हुई थी। अल्लाह ताला साहिबे किरान सानी को दीर्घायु करें, उनके पवित्र मस्तक पर तो मसीह ने अपने हाथों से ऐश्वर्य का मुकुट रख दिया है।’
इस प्रभावशाली तर्क पर शहजादा दाराशिकोह के होठों पर क्षीण सी मुस्कराहट दिखाई देने लगी। दो-तीन मिनट विचारमग्न रहकर डाक्टर बर्नियर बोले, ‘महानुभावो! साम्राज्य की नित्यता के लिए आवश्यक है कि प्रतिपक्षी शक्तियाँ उसका लोहा मानें। दूसरे की दृष्टि में महत्त्व कम हो जाना उसके लिए प्राणघातक जहर है। यदि विपक्षियों के मन में उसका आतंक बैठ जाये तो फिर साम्राज्य अटल है। जब तक कि आन्तरिक बीमारियाँ उनकी तबाही का कारण न हों, दक्खिन की उलझनें बढ़ती ही जाती हैं। मरहठों ने उपद्रव फैलाने पर कमर बाँध ली है। जाठों ने भी कुछ सिर उठाया है। बस, यह समय भारतीय साम्राज्य के लिये बहुत ही नाजुक तथा खतरनाक है। इस नाजुक समय में कंधार से बेखबर होना इन उपद्रवियों को शेर बना देगा। यदि साहिबे किरान सानी ने अली मर्दान खाँ को शरण न दी होती और कंधार के लिये दो अभियान कूच न कर चुके होते तो इस समय उस देश से किनारा कर लेने में तनिक भी हानि नहीं थी। मगर जब संसार पर यह खुल गया है कि भारत के सम्राट् कंधार पर अधिकार जमाना चाहते हैं और इस काम के लिए उद्यत हैं तो फिर इस संकल्प से पीछे हटना साम्राज्य के लिए बहुत भयावह होगा। अब तो भारत का यह कथन होना चाहिए कि लड़ेंगे, मरेंगे मगर कंधार को नहीं छोड़ेंगे। यदि इस समय कंधार से हाथ खींच लिया तो मरहठों में स्वाभाविक रूप से यह विचार उत्पन्न होगा कि यदि इसी भाँति उपद्रव मचाते रहें तो हम भी कंधार की भाँति स्वतंत्र हो जाएँगे, दक्खिन के शाहों को हमारी क्षमता का अन्दाजा हो जाएगा। ईरान-नरेश समझेगा कि भारत में अब दम नहीं रहा तो वह कंधार से होता हुआ काबुल तक चला आएगा। और क्या आश्चर्य कि भारत की ओर भी मुँह कर ले, फिर तो काबुल के अफगान सिर उठाए बिना नहीं मानेंगे। संक्षेप में यह कि इस समय कंधार अभियान से मुँह मोड़ना बहुत भयावह है।’
डाक्टर बर्नियर के उग्र तथा हितकर व्याख्यान ने श्रोताओं को प्रभावित कर दिया। शहजादा साहब तो सन्नाटे में आ गये। उन्होंने अभी तक यह नहीं सोचा था कि कंधार से अलग होने के क्या परिणाम होंगे, क्या-क्या कठिनाइयाँ सामने आएँगी। अब डाक्टर बर्नियर के मुँह से इस दुष्परिणाम का वर्णन सुनकर उनके होश उड़ गये। फिर हेनरी बोजे के इस भाषण ने कुछ ढाढ़स बँधाया, ‘महानुभावो! डाक्टर बर्नियर साहब एक भ्रम में पड़ गये। सम्भवतः उनको ज्ञात नहीं है कि साम्राज्यों को अपना सिक्का जमाने के लिए केवल सेनाओं की ही आवश्यकता नहीं। ऐसे साम्राज्य जिनकी शक्ति हथियारों पर आधारित होती है, लम्बे समय तक नहीं बने रहते। बल्कि आवश्यकता है नैतिक बल की ताकि जनता के मन में उसकी ओर से कोई विपरीत धारणा उत्पन्न न हो। साम्राज्य का हरेक कथन तथा कार्य न्याय व समानता के समर्थन में हो, कोई उसे लालची न समझे। जब तक साम्राज्य इस कसौटी पर खरा नहीं उतरेगा, न तो उसकी धाक दिलों में बैठेगी और न ही अन्य विपक्षी शक्तियाँ उसका लोहा मानेंगी। मैं मानता हूँ कि साम्राज्य को बहुत साहसी होना चाहिए ताकि जनता के दिल में भी जोश पैदा हो, अपने शासकों से साहस का पाठ पढ़े, लेकिन यह ध्यान रहे कि साहस निरर्थक न हो। निरर्थक साहस और लोभ, दोनों समानार्थी शब्द हैं। मैं एक उदाहरण देकर समझाता हूँ कि सार्थक और निरर्थक साहस से मेरा क्या मंतव्य है। यूरोपीय देश बड़ी तत्परता से जहाज बना रहे हैं। सेनाओं की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती है। उन जहाजों पर दूर-दूर के देशों की यात्रा की जाती है, अन्य देशों से व्यापारिक अथवा क्षेत्रीय सम्बन्ध बनाए जाते हैं, नयी बस्तियाँ बसाई जाती हैं। इसे मैं सार्थक साहस कहता हूँ। लेकिन जब किसी कमजोर देश या शक्ति को तलवार के बल पर अधीन करने की कोशिश की जाती है तो मैं उसे निरर्थक साहस कहता हूँ क्योंकि उसके आवरण में अनीति और असमानता छिपी रहती है। अब आप स्वयं निर्णय कर सकते हैं कि भारतीय साम्राज्य का कंधार को अभियान भेजना सार्थक है या निरर्थक। मैं कहता हूँ निरर्थक है, नितान्त निरर्थक। और अत्यन्त खेद का विषय है कि जनता का भी यही विचार है यद्यपि उसकी आवाज आपके कानों तक नहीं पहुँची। अब विचार कीजिए कि यह भावना उत्पन्न हो जाना कितना भयंकर है क्योंकि जब अन्य शक्तियाँ देखेंगी कि भारत विजय या विश्वविजय हेतु सन्नद्ध है तो वे शक्ति-संतुलन के लिए अपनी सेना बढ़ाएँगी और क्या आश्चर्य है कि आपस में संगठित होकर हिन्दुस्तान पर ही चढ़ दौड़ें। जहाँपनाह! डाक्टर बर्नियर साहब ने कहा है कि अब भारत का यह संकल्प होना चाहिए कि लड़ेंगे, मरेंगे पर कंधार नहीं छोड़ेंगे। ये उनके मुँह से निकले हुए शब्द हैं। मैं उनकी अनुमति से कुछ शब्द और बढ़ाता हूँ अर्थात् कंधार को नहीं छोड़ेंगे! नहीं छोड़ेंगे! सारा संसार उलट-पलट हो जाये मगर कंधार को नहीं छोड़ेंगे! सारा संसार इकट्ठा हो जाये, हम मिट्टी में मिल जायें मगर हमसे कंधार नहीं छूटेगा! महानुभावो! ध्यान तो दीजिए यह सलाह है! एक छोटे से प्रान्त के लिये एक शानदार साम्राज्य को खतरे में डालना! मैं यह नहीं कहता कि खतरा सन्निकट है मगर खतरा सिर पर भी होता तो डाक्टर साहब के कथनानुसार हिन्दुस्तान को जान पर खेल जाना चाहिये था। यह सलाह नीतिसम्मत नहीं। नीतिसम्मत सलाह उसे कहते हैं कि साँप मर जाए और लाठी न टूटे। माना कि आपने पुनः कंधार को एक जबर्दस्त अभियान भेजा। मान लीजिए कि मामला लम्बा खिंचा। ईरान का शाह अपनी पूरी शक्ति के साथ आ डटा तो आपको सहायता की आवश्यकता हुई। और इस प्रकार आठ महीने बीत गये। नवें महीने में जब बर्फ पड़ने लगी तो आपको विवश होकर हटना पड़ा और शत्रु ने उस अवसर का दिल खोलकर लाभ उठाया। बताइये अपमान, दुर्दशा और असफलता के अतिरिक्त क्या हाथ लगा? आप कहेंगे कि हम पूरी शक्ति से कंधार पर आक्रमण करेंगे और आठ महीने में ही उसे अधिकार में ले लेंगे। आप पूरी शक्ति से उधर गये, इधर हमारी जरा-जरा सी हलचल की टोह लेने वाले दक्खिनवासी, मरहठे और जाठ मैदान खाली देखकर आ चढ़े। बताइये, उस समय भारत की सत्ता क्या करेगी? क्या किले की दीवारें लड़ेंगी या कलम पकड़ने वाले मुंशी, या सौदा बेचने वाले व्यापारी? जहाँपनाह! मैं डाक्टर साहब से सहमत हूँ कि सत्ता को अपना सिक्का जमाने की कोशिश करनी चाहिये। निस्सन्देह यदि उसकी धाक जम जाये तो बहुत अच्छा है मगर इसके लिए सत्ता को ही दाँव पर लगा देना कौन सी नीति है? यदि देश की वास्तविक शक्ति को आघात पहुँचाए बिना आप अपनी धाक जमा सकते हैं तो शौक से जमाइये, मगर मैं एक बार नहीं सौ बार कहूँगा कि यदि ऐसा करने से देश कमजोर होता हो तो इसका विचार भी मत कीजिए। दो अभियानों का असफल हो जाना स्पष्टतः सिद्ध करता है कि कंधार को जीतना मुँह का निवाला नहीं। लगभग आधी सदी के खूनखराबे के बाद भी दक्खिन के देशों का मुकाबले के लिए तैयार रहना उनकी आन्तरिक शक्ति का ज्वलन्त प्रमाण है। मैं डंके की चोट कहता हूँ कि यह साम्राज्य उन दोनों उद्दण्ड शत्रुओं का सामना एक साथ नहीं कर सकता। कंधार और दक्खिन, दोनों पर विजय पाना कठिन है। इनमें से एक ले लीजिये, कंधार या दक्खिन। मेरी सलाह यह है कि कंधार पर दक्खिन को वरीयता दीजिएगा।
जहाँपनाह! मेरा विचार है कि संसार के प्रत्येक प्रसिद्ध देश का पतन इसी कारण से हुआ कि उसने अपनी चादर से बाहर पाँव फैलाने की कोशिश की। उनके दुस्साहस लोभ-लालच की सीमा तक पहुँच गये। ईरान, यूनान, इटली, रोम सबने सीमा से अधिक पाँव फैलाये। केवल सैन्य शक्ति तथा तलवार के बल पर दूर-दूर के देशों को अधिकार में रखना चाहा, लेकिन परिणाम क्या हुआ। उन्हें अधीन करने के अभिमान में अपनी शक्ति खो बैठे, यहाँ तक कि न केवल अपने अधिकृत क्षेत्रों से ही हाथ धो बैठना पड़ा बल्कि अपने जत्थे को भी खो बैठे। उनका नाम इतिहास से सदा के लिए मिट गया। इस गलती में भारत क्यों पड़े? अन्य देशों से प्रेरणा क्यों न ग्रहण करे? हिन्दुस्तान विस्तृत देश है। यदि हिन्दुस्तान की आबादी पच्चीस वर्षों में दोगुनी भी हो जाए तो सदियों तक तंगी की शिकायत भी सुनने को नहीं मिलेगी। कंधार को अधीनस्थ देशों में सम्मिलित करना युद्ध के खर्चे को अत्यधिक बढ़ाना है क्योंकि वहाँ की पहाड़ी जातियाँ सदा झगड़े और उपद्रव का बोलबाला रखेंगी और उन विद्रोहों को दबाने के लिए एक भारी सेना रखनी पड़ेगी। बस, केवल साम्राज्य को विस्तार देने के विचार से कंधार पर आक्रमण करना या अभियान भेजना मेरी दृष्टि में उचित नहीं है।’
उस समय डाक्टर बर्नियर विचार-प्रवाह में डूबे हुए थे। उन्होंने हेनरी बोजे की आपत्तियों का खण्डन करने के लिए कुछ नोट किया था। उनके चेहरे से तनिक भी उत्साह या उतावलापन नहीं झलक रहा था। लोगों की दृष्टि उन पर लगी हुई थी कि देखें अब ये क्या उत्तर देते हैं। अन्ततः वे कई मिनट के असमंजस के पश्चात् बोले, ‘महानुभावो! मुझे अत्यन्त खेद है कि इस समय मुझे कुछ अरुचिकर सच्चाइयों को प्रकट करना पड़ता है। परन्तु क्योंकि सच्चाइयाँ बहुत कम रुचिकर होती हैं, आशा है कि आप लोग मुझे क्षमा करेंगे। मेरे विद्वान् मित्र हेनरी बोजे साहब ने कहा है कि शासन की स्थापना और स्थायित्व नैतिक गुणों पर आधारित है, न कि प्राकृतिक गुणों पर। जिसका अर्थ यह है कि ऐ भूखण्ड के बादशाह! यह मार-काट किसलिए? यह लड़ाई-झगड़ा किसलिए? यह पैदल व सवार किसलिए? इन्हें नरक में फेंकिए। कुछ ईश्वरवादी, पवित्र, धर्मात्मा बुजुर्गों से कहिए कि जनपथ पर खड़े होकर उपदेश दिया करें, बस बाकी अल्लाह-अल्लाह खैर सल्ला। फिर देखिये कि कैसे झन्नाटे का शासन चलता है। आश्चर्य है कि मिस्टर बोजे साहब व्यापक अनुभव होने पर भी ऐसी बेतुकी गलती में पड़ गये। हम यह नहीं कहते कि जो सिद्धान्त उन्होंने बताया है वह गलत है। लेशमात्र भी नहीं, वह बिल्कुल ठीक है। लेकिन सिद्धान्त का ठीक होना इस बात का प्रमाण नहीं है कि व्यावहारिक रूप में वह सभी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता हो। सम्भवतः ये विद्वान् यूटोपिया के लोकतंत्र का सपना देख रहे थे। वे भूल गये थे कि यूटोपिया का अस्तित्व सपने तक ही सीमित है और यहाँ उसकी चर्चा करना निरर्थक है। मैं मिस्टर बोजे से पूछता हूँ, भगवान् ने अच्छाई के साथ बुराई भी पैदा की थी। उनका उत्तर होगा नहीं, भगवान् ने अच्छाई पैदा की। अच्छाई की अनुपस्थिति बुराई है। इस पर भी जिधर देखिए बुराई का ही बोलबाला है। अच्छाई और बुराई की जो पहली लड़ाई अदन के बाग में हुई, उसमें भी मैदान बुराई के ही हाथ रहा। संसार में मशाल लेकर ढूँढ़िये तब भी अच्छे आदमी कठिनाई से इतने मिल सकेंगे जो एक नगर बसा सकें। सारा संसार बुराई से भरा हुआ है। ऐसी दशा में क्योंकर सम्भव है कि कोई शासन बना रह सके जब तक कि वह आतंकियों, उपद्रवियों, विद्रोहियों, अत्याचारियों के दमन के लिए सदा तत्पर न रहे। भगवान् से हमारी प्रार्थना है कि मिस्टर बोजे किसी देश के बादशाह हों और वे अपने सिद्धान्तों का पालन करके सारे संसार को पाठ पढ़ाएँ कि नैतिक गुणों पर शासन कैसे बना रहता है।
जहाँपनाह! कौन नहीं जानता कि मनुष्य जाति के कर्त्तव्य पृथक्-पृथक् हैं। बाप का कर्त्तव्य बेटे के कर्त्तव्य से पृथक् है। बाप का कर्त्तव्य बेटे की शिक्षा-दीक्षा, रोटी-कपड़ा और अन्य आवश्यकताएँ उपलब्ध करना है। और बेटे का कर्त्तव्य है माता-पिता की आज्ञा का पालन करना और उनकी सेवा करना। बादशाह का कर्त्तव्य जनता के कर्त्तव्य से बिल्कुल पृथक् है। प्रजापालन तथा न्यायप्रियता बादशाहों के उच्चतम कर्त्तव्य हैं और आज्ञापालन तथा कृतज्ञता जनता के। यदि पिता अपने बेटे को मारे तो उसे कोई भी बुरा नहीं कह सकता, लेकिन पिता की प्रतिष्ठा के प्रतिकूल पुत्र का एक कठोर वाक्य कहना भी पाप है। यदि सामान्य व्यक्ति बिना आज्ञा के दूसरे की वस्तुएँ ले ले तो उसे चोरी या लूट कहेंगे, लेकिन अपने अधीन करने के लिए एक बादशाह का दूसरे बादशाह पर आक्रमण करना लेशमात्र भी अनुचित नहीं है। राज्य का विस्तार करना तो बादशाहों का सर्वाधिक मुख्य कर्त्तव्य है क्योंकि प्रजापालन उसका एक विशेष अंग है। राज्य-विस्तार से व्यापार का विकास होता है, उद्योग-धन्धों की प्रगति होती है, प्रजा का राष्ट्रीय उत्साह बढ़ता है, देशभक्ति उत्पन्न होती है, अपनी जाति के कारनामों पर गर्व होता है। क्या ये सब विशेष और लाभदायक परिणाम नहीं हैं? प्राचीन राष्ट्रों के विनाश को राज्य-विस्तार से सम्बद्ध करना बुद्धिमानी के प्रतिकूल है। रोम, ईरान तथा यूनान का नाम इस कारण नहीं मिटा कि उन्होंने अपने अधिकृत क्षेत्र को विस्तार दिया वरन् इस कारण से कि उनमें आलस्य, भीरुता, आरामतलबी, विषय लोलुपता और दुराचरण बढ़ गया। वे प्रकृति के उस कानून से प्रभावित हो गये जिसे प्रकृति का चुनाव कहते हैं। सृष्टि के आरम्भ से समस्त जीवधारियों में वह खींचतान, वह आपाधापी मची हुई है जिसे जीवन-संघर्ष कहें तो असंगत न होगा। इस जीवन-संघर्ष में शक्तिशाली की विजय होती है और जो दुर्बल तथा निर्बल हैं वे हारते हैं और उनका नाम अशुद्ध लेख की भाँति सदा के लिए जीवन-पृष्ठ से मिट जाता है। इस कानून का प्रभाव मनुष्य और पशु, सभी पर एक समान होता है। पशुओं की सैकड़ों प्रजातियाँ विलुप्त हो गईं और सैकड़ों बड़ी-बड़ी जातियाँ गुमनाम, क्योंकि एक विशेष अवधि के पश्चात् प्रत्येक जाति में वे बीमारियाँ उत्पन्न हो जाती हैं जो धन, ऐश्वर्य, बड़प्पन तथा वैभव से सम्बद्ध होती हैं। इसके अतिरिक्त काल की गति प्रगति पर है और जब कोई एक जाति दीर्घकाल तक बनी रहती है तो उसमें सहसा पुरानेपन की गन्ध आने लगती है। और, क्योंकि प्रगतिशीलता एक मानवीय गुण है, यह जाति अपनी परम्पराओं, सभ्यता और संस्कृति में ऐसे परिवर्तन नहीं कर सकती जो वर्तमान काल के अनुकूल हों। अन्ततः नयी-नयी जातियाँ उठ खड़ी होती हैं जिनका उत्साह नया होता है, पुरानी जातियाँ उनका सामना नहीं कर सकतीं। क्या मिस्टर बोजे का आशय यह है कि हिन्दुस्तान इस जीवन-संघर्ष से मुँह फेर ले और डरपोक माना जाय और दूसरे नये देशों का शिकार बने? देखिये, आज योरुप में कैसे उत्साह से जीवन-संघर्ष हो रहा है। कौन सी सत्ता ऐसी है जो अपनी सीमाओं से बाहर पाँव फैलाने के लिये प्राणपन से प्रयास नहीं कर रही है। जहाज बनाए जा रहे हैं, उन पर हजारों मील की भयंकर यात्रा की जा रही है, कौड़ियों की भाँति रुपया फूँका जा रहा है और आदमियों की जानें अत्यल्प मूल्य पर बेची जा रही हैं। क्यों? इसलिए कि नयी बस्तियाँ बनाई जाएँ, देश का व्यापार विस्तृत हो, धन में वृद्धि हो और देश की बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए जगह बने। दो सदियों में फ्रांस की जनसंख्या चौगुनी हो जायेगी। यदि अभी से रोकथाम न की जाए तो उसके लिए क्या जीवनाधार होगा। हम यह नहीं कहते कि इस समय हिन्दुस्तान को तंगी अनुभव हो रही है। नहीं, अभी बहुत से विस्तृत क्षेत्र नितान्त निर्जन हैं लेकिन निकट भविष्य में यहाँ भी आवश्यक रूप से तंगी अनुभव होगी। जनसंख्या का बढ़ना एक प्राकृतिक नियम है, इसे कोई नहीं रोक सकता। हिन्दुस्तान योरोपीय देशों का अनुसरण और भविष्य के लिए अभी से प्रयास क्यों न करे। आगत काल को वर्तमान काल से अधिक मूल्यवान समझा जाता है।’
डाक्टर बर्नियर जिस समय अपने स्थान पर बैठे, सभाजनों ने प्रशंसा की बौछार कर दी। विशेषकर शहजादे साहब को उनका भाषण बहुत अच्छा लगा, तत्काल सिंहासन से उतरकर उनसे हाथ मिलाया। हेनरी बोजे साहब मन ही मन में कटे जा रहे थे। वे समझते थे कि डाक्टर बर्नियर का सम्मान मेरा परोक्ष अपमान है क्योंकि डाक्टर साहब उनसे बहुत कम मतभेद किया करते थे, और अगर करते भी थे तो मुँह की खाते थे। मगर इस समय मैदान उन्हीं के हाथ रहा। कुछ मिनटों के मौन के बाद भी जब हेनरी बोजे साहब अपने स्थान से न हिले तो पादरी जोजरेट ने यूँ मोती बिखराए, ‘महानुभावो! मेरी जानकारी में सभ्य राष्ट्रों की विजयश्री से कभी यह आशय नहीं लिया जाना चाहिये कि अपने देश का ही फायदा सोचें, अपने देश को ही दौलत से मालामाल तथा निहाल करें और केवल अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए अन्य देशों की गरदन पर आज्ञापालन का जुआ रख दें। बल्कि इन विजयों से विजित देशों का लाभ दृष्टि में रहना चाहिए। यूनान की विजयों ने यूनान का केवल यश ही नहीं बढ़ाया बल्कि उसके विजित राष्ट्रों में ज्ञान व सभ्यता, उद्योग व व्यवसाय तथा सत्कलाओं की आधारशिला रखी। सारे यूरोप ने ही नहीं बल्कि सारे संसार ने यूनान के ही सांस्कृतिक विद्यालय में शिक्षा पाई है। यूनान ने संसार को सबसे पहले राजनीति के सिद्धान्त सिखाये। दर्शन और तर्कशास्त्र, पिंगल व रसायनशास्त्र, चिकित्साशास्त्र व संगीतशास्त्र सब इसी यूनानी मस्तिष्क के खिलौने हैं। आज योरुप में यह आँखें चुँधिया देने वाला प्रकाश कहाँ होता यदि यूनान ने अपनी संस्कृति की प्रज्ज्वलित मशाल से उस घटाटोप अंधेरे को दूर न कर दिया होता। यूनान का इतिहास उन बलिदानों से भरा पड़ा है जो यूनानियों ने दूसरों को सभ्य बनाने के लिए किये। इटली की विजयों ने संसार पर वह उपकार किया जिसे वे अनन्त काल तक भूल नहीं सकते। जिसने सभ्य अनीश्वरवादियों को आदमी बनाया, जिसने संसार की मुक्ति का द्वार खोल दिया। महानुभावो! वह कौन सा उपकार है? वह यह है कि इटली ने मसीह के मिशन को सारे संसार में फैलाया, मसीही प्रकाश से असत्य का अंधकार दूर किया। इटली से ही आध्यात्मिक प्यास बुझाने वाले पानी का स्रोत फूटा।
जहाँपनाह! कौन कहता है कि इटली का नामोनिशान मिट गया? कौन कहता है कि इटली की सत्ता विनष्ट हो गई? आज का संसार एक बड़ी इटली है और संसार के समस्त राज्य इटली का नाम रोशन कर रहे हैं। यदि सन् 200 ई. में इटली की बादशाहत उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँची हुई थी तो आज चौथे आकाश तक पहुँची हुई है। हरेक देश की संस्कृति, नैतिकता तथा व्यवहार, सत्ता के सिद्धान्त जो आज संसार में प्रचलित हैं, इटली की टकसाल में ही ढलकर निकले हैं। यहाँ तक कि हम पर यूनान का जो प्रभाव पड़ा है, वह भी इटली के कारण ही है। इटली की भाषा लैटिन ही आज संसार के सभ्य देशों की मान्य भाषा है।
भगवान् ने भारत को एशिया में ज्ञान तथा सभ्यता का खजांची बनाया है और अब कुछ दिनों से उसे अमूल्य मसीही रत्न भी सौंपे जाने लगे हैं। बस, उसका कर्त्तव्य है कि अन्य एशियाई देशों को अपनी सम्पदा से यश प्रदान करे, दिल खोलकर उस खजाने को लुटाए, विशाल हृदयता दिखाये, दानशीलता का प्रमाण दे। यदि इस अकूत सम्पदा से वह स्वयं लाभ उठाएगा तो स्वार्थी कहलाएगा, आने वाली पीढ़ियाँ उस पर कंजूसी का आरोप लगाएँगी। यदि वह संस्कृति का प्याला स्वयं पियेगा और दूसरे देशों को उससे आनन्दित नहीं होने देगा तो उस पर अपना ही पेट भरने का आरोप लगाया जाएगा। बस, उसका कर्त्तव्य है कि कंधार को यह प्याला पिलाए और मन में समझे कि वह इस कार्य को करने के लिए ईश्वर द्वारा नियुक्त किया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि कंधार यह प्याला सरलता से नहीं पियेगा, मगर इसका कारण यह है कि वह इसके आनन्द को नहीं जानता, इसके लाभों से अनभिज्ञ है। अब भारत का कर्त्तव्य है कि उसे इसका आनन्द दे और इसका लाभ उसके मन में जमा दे।’
पादरी जोजरेट ने अपना भाषण समाप्त किया ही था कि खानदानी शहजादे ने सिंहासन से उतरकर उनसे हाथ मिलाया। हर्ष के आवेग से डाक्टर बर्नियर साहब का मुँह खिल उठा, मगर हेनरी बोजे साहब का चेहरा बुझ गया क्योंकि उन पर स्पष्टतः प्रकट हो गया कि अब मेरी सलाह स्वीकार किए जाने की तनिक भी आशा शेष नहीं रही। पादरी साहब का क्या पूछना! वे तो समझते थे आज जग जीत लिया। और क्यों न समझते! अब तक किसी ने इस दृष्टि से कंधार अभियान पर विचार नहीं किया था। यह पादरी साहब की ही सूझबूझ है।
इस भाषण के पश्चात् कई मिनट तक सन्नाटा रहा। अन्ततः शहजादे साहब ने कहा, ‘महानुभावो! मैं आपका हृदय से आभारी हूँ कि आपने अपने बुद्धिमत्तापूर्ण वक्तव्यों से मुझे प्रफुल्लित किया। जिस समय मैंने इस दीवाने खास में पाँव रखा था, मैं कंधार अभियान का धुर विरोधी था। दो निरन्तर पराजयों ने मेरा साहस तोड़ दिया था और स्वाभाविक रूप से मेरे मन में यह विचार उत्पन्न होता था कि ईश्वर ने इस प्रकार हमारे भ्रामक उत्साह का दण्ड दिया है। मगर डाक्टर बर्नियर और पादरी जोजरेट के प्रभावशाली वक्तव्यों ने मेरे विचारों की कायापलट कर दी और अब मेरा यह निश्चय है कि यथासम्भव कंधार को हाथों से न निकलने दूँगा। मैं कंधार को हिन्दुस्तान का एक प्रान्त बना दूँगा और यह कोई नयी बात नहीं है। संस्कृत किताबें प्रमाण हैं कि प्राचीन काल में जब आर्यों की तूती बोल रही थी, तब कंधार भारत का एक प्रान्त था, दोनों देशों के शासकों में वैवाहिक सम्बन्ध थे। राजा धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी कंधार की राजपुत्री थी। दोनों बहनों में अब तनिक मनोमालिन्य हो गया है, लेकिन मैं उन्हें पुनः गले मिलाऊँगा।’
इस वक्तव्य के पश्चात् सभा विसर्जित हुई।
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[मौलाना मौ. अली ने 1911 में कलकत्ता से ‘कामरेड’ नामक अंग्रेजी समाचार पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ करके पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया। जब दिल्ली दरबार करके अंग्रेजों ने भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली स्थानान्तरित कर ली तो मौलाना मौ. अली ने भी दिल्ली से ही अपनी गतिविधियाँ चलाने का निर्णय लिया और परिणामस्वरूप उन्होंने 23 फरवरी 1913 को दिल्ली से उर्दू दैनिक समाचार पत्र ‘हमदर्द’ निकालना प्रारम्भ कर दिया। जब तत्कालीन ब्रिटिश शासन ने राजद्रोह के अपराध में मौलाना मौ. अली को सलाखों के पीछे कर दिया तो ‘हमदर्द’ भी 10 अगस्त 1915के पश्चात् प्रकाशित नहीं हो पाया। पीछे चलकर ‘हमदर्द’ का प्रकाशन 9 नवम्बर 1924 को पुनः प्रारम्भ हुआ जो 12 अप्रैल 1929 तक जारी रहा तथा इसके पश्चात् सदा के लिए बन्द हो गया।
‘हमदर्द’ में जहाँ राजनीतिक समाचार प्रमुखता से प्रकाशित होते थे और देशभक्ति की भावनाएँ जाग्रत करने वाले लेख प्रकाशित होते थे, वहीं दूसरी ओर मुंशी प्रेमचंद जैसे लोकप्रिय कथाकार की कहानियाँ भी इसके प्रथम कालखण्ड में प्रकाशित हुईं। ध्यातव्य है कि ‘हमदर्द’ में प्रकाशित प्रत्येक कहानी के पारिश्रमिक के रूप में मौलाना मौ. अली ने प्रेमचंद को एक सोने की गिन्नी प्रदान की थी जो उनकी श्रेष्ठ साहित्यिक अभिरुचि का प्रबल प्रमाण है। ‘हमदर्द’ में प्रकाशित प्रेमचंद की कहानियों का विवरण प्रस्तुत करते हुए गोपाल कृष्ण माणकटाला लिखते हैं -
"पहले दौर में ‘हमदर्द’ में प्रेमचंद की भी चन्द कहानियाँ शाया हुई थीं जिनमें से दर्जे जैल चार कहानियों का पता चलता है-1. ‘आबे हयात’ - यकुम जून और 3 जून 1913 की दो इशाअतों में; 2. ‘बाँगे सहर’ - 11 जून और 13 जून 1913 की दो इशाअतों में 3. ‘दारू-ए-तल्ख’ -13, 18 और 19 जुलाई की तीन इशाअतों में; 4. ‘नमक का दारोगा’ -10 अक्टूबर 1913 की इशाअत में।1
माणकटाला साहब अपनी किसी भी पुस्तक में उपर्युक्त चार कहानियों के अतिरिक्त ‘हमदर्द’ में प्रकाशित होने वाली प्रेमचंद की अन्य किसी कहानी की चर्चा नहीं करते, लेकिन इसी पत्र में प्रकाशित एक अन्य कहानी को ‘अप्राप्य’ बताते हुए डा. कमल किशोर गोयनका लिखते हैं -
"1914-अगस्त, सौदा-ए-खाम, हमदर्द मासिक, कहानी, अप्राप्य।2
1. प्रेमचंद : हयाते नौ,
2. प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य, भाग-2,
उपर्युक्त उद्धरण में डा. गोयनका ‘हमदर्द’ को एक मासिक पत्र बताते हैं जबकि वास्तव में यह दैनिक समाचार पत्र था। यह भयंकर भूल करके भी डा. गोयनका को आशा है कि यह कहानी उर्दू ‘मासिक’ ‘हमदर्द’ में उन्हें मिल ही जायगी और वे इसी कल्पना-लोक में प्रसन्न हैं। अपनी उपर्युक्त भ्रामक सूचना की आवृत्ति करते हुए डा. गोयनका सन् 2005 में प्रकाशित अपनी पुस्तक में लिखते हैं -
"सौदा-ए-खाम; उर्दू कहानी, हमदर्द अगस्त 19141
१७ वर्षों की सुदीर्घ कालावधि में भी डा. गोयनका को इस कहानी का पाठ न मिलने से यह अनुमान करना कुछ अनुचित न होगा कि जो रचना एक दैनिक समाचार पत्र में प्रकाशित हुई थी, वह गोयनकाजी को उस मासिक पत्रिका में कैसे प्राप्त हो सकती है जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं है।
गोपाल कृष्ण माणकटाला ने जब वार्द्धक्य के कारण विगत 12 अप्रैल 2008 को मुझे मुम्बई बुलाकर अपना समस्त संग्रह सौंप दिया तो उनके संग्रह के साथ किसी उर्दू पत्रिका से निकाले गए कुछ पृष्ठ भी प्राप्त हुए जिनके ऊपरी पृष्ठ पर ‘गोशा-ए-प्रेमचंद’ छपा है। इन पृष्ठों में माणकटालाजी की पुस्तक ‘प्रेमचंद : कुछ नये मुबाहिस’ की अनुक्रमणिका, प्रेमचंद के दो लेख ‘कुरान में फिरकेवाराना इत्तिहाद के अनासिर’ तथा ‘मलकाना राजपूत मुसलमानों की शुद्धि’ एवं डा. रिजवान अहमद खान का लेख ‘प्रेमचंद और खूने हुरमत’ प्रकाशित हैं। डा. खान ने अपने संक्षिप्त लेख के साथ प्रेमचंद की दो कहानियाँ ‘खूने हुरमत’ और ‘सौदा-ए-खाम’ और एक अन्य लेखिका की कहानी ‘बाली बेवा’ प्रकाशित कराई हैं। डा. खान की सूचना के अनुसार ‘सौदा-ए-खाम’ कहानी उर्दू मासिक ‘तमद्दुन’ के फरवरी 1920 के अंक में प्रकाशित हुई थी जिसके अन्त में एक कोष्ठक में ‘अज हमदर्द’ शब्द भी मुद्रित थे। डा. खान द्वारा प्रस्तुत विवरण से स्पष्ट है कि उन्होंने इस कहानी का जो पाठ प्रकाशित कराया है, वह वही पाठ है जो ‘तमद्दुन’ में प्रकाशित हुआ था। खेद है कि माणकटालाजी से जो पृष्ठ प्राप्त हुए हैं उन पृष्ठों पर पत्रिका का नाम तथा अंक प्रकाशित नहीं है इसलिये विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता कि ये किस पत्रिका के पृष्ठ हैं, परन्तु ऐसा अनुमान होता है कि ये सम्भवतः ‘निगार’, कराची (पाकिस्तान) के जुलाई 1989 के अंक के पृष्ठ हैं। परन्तु यह मात्र अनुमान है, जिसे किसी प्रामाणिक सूचना से पुष्ट किया जाना आवश्यक है।
उपर्युक्त पृष्ठों के प्राप्त होने से यह अवश्य ही कहा जा सकता है कि प्रेमचंद की यह कहानी पुनः प्रकाशित होने के कारण ‘अप्राप्य’ नहीं रही, भले ही साहित्यिक क्षेत्र में इसका संज्ञान नहीं लिया जा सका और यह 20 भागों में प्रकाशित ‘प्रेमचंद रचनावली’ तथा उर्दू में २४ भागों में प्रकाशित ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’ में भी सम्मिलित नहीं की जा सकी। फिर भी इस कहानी को प्रेमचंद की दुर्लभ कहानी अवश्य ही स्वीकार किया जा सकता है, जो किसी भी दृष्टि से अनुचित नहीं है।]
1. प्रेमचंद की अप्राप्य कहानियाँ, 
शाम का समय था। इलाहाबाद सैन्ट्रल जेल के सामने छतनार बरगद के पेड़ के नीचे दो सिपाही बैठे हुए थे। किशोरवय कारे सिंह जोर-जोर से भाँग पीस रहा था और यह कोशिश कर रहा था कि बट्टे के साथ सिल उठ आए, और काला-कलूटा रुस्तम खान धीरे-धीरे अफीम घोलता था। दोनों के चेहरे चमक रहे थे और दोनों मुस्करा- मुस्कराकर एक दूसरे की ओर देखते थे।
कारे सिंह ने कहा, ‘आज अच्छे आदमी का मुँह देखा था।’
रुस्तम खान ने अफीम का एक घूँट पिया और मुँह बनाते हुए बोले, ‘पता चल जाए तो मैं उस भागवान को डब्बे में बंद कर लूँ और रोज दर्शन किया करूँ।’
कारे सिंह ने भाँग का एक बड़ा सा गोला बनाया और उसे हाथों से तोलकर सन्तोष भरे स्वर में बोले, ‘ऐसे दो-एक आदमी रोज आते रहें तो क्यों परचूनिये, ग्वाले और कोठी वाले की लताड़ सहनी पड़े।’
आज सेशन जज ने एक बहुचर्चित मुकदमे का फैसला सुनाया था और एक धनी परिवार की विधवा को दो साल की सजा दी थी। पता नहीं मुकदमे की असलियत क्या थी। जनता की आवाज कुछ कहती थी, मुकदमे का फैसला कुछ। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि कुछ हुस्नो इश्क और ईर्ष्या-वैमनस्य का मामला था। जेल दारोगा, वार्डन और डाक्टर फूले नहीं समा रहे थे। आज उनके हाथ एक सोने की चिड़िया लग गई थी। उसी के चरणों का प्रताप था कि आज कहीं भाँग के गोले थे, कहीं अफीम की चुस्कियाँ और कहीं उम्दा शराब के दौर।
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तीन दिन बीत गये। रात के दस बजे का समय था। इलाहाबाद जेल के दरवाजे पर बिजली की लालटेन जल रही थी। कारे सिंह और रुस्तम खान वर्दी पहने, संगीनें चढ़ाए पहरे पर थे।
रुस्तम खान ने बन्दूक पटककर कहा, ‘इस नौकरी से नाक में दम आ गया। यह मजे की मीठी नींद का समय है या खड़े-खड़े कवायद करने का।’
कारे सिंह का ध्यान किसी दूसरी तरफ था, कान में बात न पड़ी। अचानक रुस्तम खान के पास जाकर बहुत भेद भरे स्वर से बोले, ‘यार, तुमसे एक बात कहूँ? पेट के हल्के तो नहीं हो, जान जोखिम में है।’
रुस्तम खान ने आश्वस्त करते हुए पूछा, ‘क्या मुझ पर भी भरोसा नहीं है, आजमाकर देखो।’
कारे सिंह को विश्वास हो गया। बोले, ‘तीन दिन से रोज इसी समय जेल के अंदर से कोई मेरे पास कागज के टुकड़े फेंकता है। एक ठीकरे में लिपटा हुआ बस मेरे सामने ही आकर गिरता है और मजमून सबका एक। यह देखो।’
रुस्तम खान ने आश्चर्यमिश्रित उत्सुकता के साथ टुकड़ों को लिया और बहुत धीरे-धीरे पढ़ने लगा - ‘ठाकुर कारे सिंह को हरनाम देवी का बहुत-बहुत प्यार। यदि बीस हजार नकद, पाँच हजार के गहने और एक प्यार-भरा दिल लेना हो तो मुझे यहाँ से किसी तरह निकालो। बस, जिन्दगी की आस तुम्हीं से है।’
रुस्तम खान को ईर्ष्या हुई - यह कोई ऐसा गबरू जवान तो है नहीं, हाँ रंग जरा साफ और बदन सुडौल है। बोले, ‘यार तुम्हारा भाग्य तो जागता हुआ नजर आता है।’
कारे सिंह ने उत्साह से कहा, ‘जागेंगे तो हम दोनों के नसीब साथ ही जागेंगे।’
रुस्तम खान ने सच्ची सहानुभूति और उत्साहवर्धक दृष्टि से देखा, ईर्ष्या न रही। बोले, ‘मुझे तुमसे यही उम्मीद है। मैं तुम्हारे साथ जान देने को तैयार हूँ।’
दोनों दोस्त आपस में फुसफुसाने लगे। उन टुकड़ों के सम्बन्ध में जो सन्देह पैदा हो सकते थे, वे पैदा हुए। कोई छल-कपट तो नहीं है, शायद किसी दुश्मन की शरारत हो, किसी बुरा चाहने वाले ने जाल बिछाया हो। लेकिन औरत का क्या भरोसा! कहीं धोखा दे तो अपना काम निकालकर धता बता दे। उसे ऐसे सैकड़ों आदमी मिल सकते हैं। फिर उसे नाम कैसे पता चला। जरूर किसी धोखेबाज की शरारत है। लेकिन रुस्तम खान ने अपने जबर्दस्त तर्कों से सारे सन्देह दूर कर दिए - ‘धोखा-फरेब कुछ नहीं, उसका दिल तुम पर आ गया है। तुम्हारे जैसा सजीला जवान पूरी दुनिया में नहीं है। चाहे शर्त लगा लो, कोई बात नहीं है। उसकी निगाह तुम पर पड़ी और रीझ गई। और नाम का क्या, किसी से पूछ लिया होगा। खूबसूरत औरत है, लाखों का कारोबार है। और यदि धता ही बता दे, दो चार महीने तो उसके साथ रहने का का मजा लूटोगे। इतने दिनों में तो मालामाल हो सकते हो, चाहे सोने की दीवारें बनवा लो।’
इस समय कारे सिंह को रुस्तम खान एक अत्यन्त अनुभवी, बुद्धिमान और प्यारा दोस्त लगता था। उसके सारे सन्देह मिट गए। अटकते-अटकते बोले, ‘तो तुम्हारी यही सलाह है?’
रुस्तम खान ने दृढ़ता से कहा, ‘हाँ।’
कारे सिंह, ‘कुछ आगा-पीछा न करें?’
रुस्तम खान, ‘आगा-पीछा करके पछताओगे। मोती तो डूबने से ही मिलता है।’
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ये बातें हो ही रही थीं कि दोनों सिपाहियों के सामने कागज में लिपटा हुआ एक ठीकरा आकर गिरा। रुस्तम खान ने दौड़कर उठा लिया। यह अफीम की तरंग हो या तरक्की न होने की निराशा, इस मामले में उसकी हैसियत एक सहयोगी और हमदर्द की होने पर भी उसका उत्साह और साहस असली हीरो से कई कदम आगे था। टुकड़ा खोलकर पढ़ने लगा - ‘जवाब का इंतजार है। मैं यहाँ बगीचे में खड़ी हूँ।’
बारूद में आग लग गई। धैर्य और चरित्र की दीवार तो कमजोर थी ही, लेकिन भय की मजबूत तथा ऊँची दीवार भी हिल गई। रुस्तम खान ने वह सवाल किया जिसका एक ही जवाब हो सकता था - ‘अब?’
कारे सिंह ने डरते-डरते कहा, ‘मैं भी तुम्हारे साथ हूँ।’
लेकिन जब कारे सिंह सीढ़ी लाने चला ताकि अहाते की ऊँची दीवार पर चढ़ सके तो उसके हाथ-पैर थर-थर काँप रहे थे। बातों के हवामहल से निकलकर अब वह काम के मुहाने पर खड़ा था और सोच रहा था कि सीढ़ी उठाऊँ या न उठाऊँ। यदि कोई देख ले, किसी दूसरे सिपाही की नजर पड़ जाए या रुस्तम खान ही विश्वासघात कर बैठे तो जान आफत में फँस जाय। इस सोच-विचार में उसे देर हुई तो रुस्तम खान लपके हुए आए और व्यंग्यात्मक स्वर में बोले, ‘यहाँ खड़े-खड़े सीढ़ी के नाम को रो रहे हो क्या? चूड़ियाँ क्यों नहीं पहन लीं?’ कारे सिंह ने शर्मिन्दगी से सिर झुकाकर उत्तर दिया, ‘भई, यह काम मेरे बूते का नहीं, मैं क्या करूँ।’ रुस्तम खान उन शीघ्र भरोसा करने वाले लोगों में था जो सिर झुकता है मगर तर्क देते नहीं थकते। बोला, ‘अच्छा हटो, मैं ही ले जाता हूँ।’
यह कहकर उसने एक लम्बी सीढ़ी कंधे पर उठाई और लाकर उसे जेल की दीवार से सटाकर खड़ा कर दिया। अब कठिनाई का पहला और कठिन पग उठाना था - सीढ़ी पर चढ़कर अन्दर कौन जाए। कारे सिंह जानता था अगर मैंने जरा भी संकोच किया तो रुस्तम खान सीढ़ी पर चढ़ जाएगा और सेहरा भी उसी के सिर होगा। जो भेदी था वह शत्रु बन जाएगा। रुस्तम खान की जिन्दादिली ने उसे भी कुछ जोश दिलाया। सीढ़ी पर तो चढ़ा परन्तु इस तरह मानो कोई सूली के तख्ते पर लिए जाता हो। हरेक कदम के साथ दिल बैठा जाता था और बहुत मुश्किल से सीढ़ी के डंडों पर पैर जमते थे। अन्तरात्मा की आवाज कभी की बंद हो चुकी थी लेकिन दंड का भय बाकी था। इन्सान मच्छर के डंक की उपेक्षा कर सकता है लेकिन कौन है जो तेज भाले के सामने ढाल बन सके। कारे सिंह पछताता था और अपने को कोसता था कि बेकार बैठे बिठाए अपनी जान आफत में डाल दी। पता नहीं सुबह को क्या गुल खिलेंगे और यह अवश्यम्भावी था कि यदि रुस्तम खान नीचे न खड़ा होता तो वह कुशलतापूर्वक नीचे उतर आने के लिये देवताओं की मनौतियाँ मानता। इस तरह मचलते और हिचकते हुए उसने आधा रास्ता पार कर लिया।
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आधा रास्ता पार करने के बाद कारे सिंह को एक प्रकार की स्फूर्ति अनुभव हुई। स्फूर्ति क्या थी, सन्तोष का सहारा था। उसने तेजी से पैर उठाए और बात की बात में जेल की दीवार पर जा पहुँचा। वहाँ पहुँचते ही उसने दूसरी ओर निगाह दौड़ाई और उसके मन में गुदगुदी सी होने लगी। एक ओट में खड़ी हरनाम देवी अपनी ओर बुला रही थी। यह लिखना कि किस तरह कारे सिंह अपने साफे को सीढ़ी के एक डंडे से बाँधकर नीचे उतर गया और वहाँ उस रूपसी ने उससे क्या प्यार मोहब्बत की बातें कीं, आपस में क्या-क्या वादे हुए और फिर किस प्रकार वह उसे दीवार के ऊपर लाया, यह एक लम्बा किस्सा है। यह लिखना पर्याप्त है कि कारे सिंह ने वही किया जो एक मनचला आशिक ऐसी हालत में कर सकता था। हरनाम देवी को कद-काठी भरपूर मिली थी और जब कारे सिंह ने मैदान जीतने के लिए उसे अपनी पीठ पर लादा था तो उसकी कमर टूटी जाती थी। रूपसी ने ऐसे अन्दाज से आसन जमाया था मानो घोड़े की सवारी ही कर रही हो। मगर कारे सिंह ने ये सब मुसीबतें भी हँसते-हँसते झेल लीं। ये सब प्यार की देन हैं। शिकायत का एक शब्द भी मुँह पर न आया, हाँ अपने दिल से मजबूर था। इस तरह जब घंटे भर की मशक्कत के बाद फिर रुस्तम खान के पास आया तो उसकी साँस फूल रही थी और सारा शरीर पसीना-पसीना हो रहा था। रुस्तम खान ने उसे गोद में उठा लिया और हरनाम देवी से बहुत आदरपूर्वक कहा, ‘बाईजी, इस गुलाम का भी खयाल रहे।’
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समय बहुत मूल्यवान था। हरनाम देवी बरगद की ओट में खड़ी हो गई। दोनों सिपाहियों ने झटपट वर्दी उतार फेंकी और तब रुस्तम खान ने दूसरे सिपाही को जगाकर पहरा बदला। वह एक पहाड़ी था, बहुत गुर्राया कि बारह नहीं बजे, अभी से तंग करने लगे। लेकिन, रुस्तम खान की खुशामद-दरामद ने उसे ठंडा कर दिया। इधर वह पहरे पर आया, उधर वे तीनों आदमी शहर की ओर चल दिए। हरनाम देवी ने सब्जी मंडी का पता दिया था। आगे-आगे कंधे पर बन्दूक रखे रुस्तम खान गर्व में फूले चले जाते थे मानो कोई मोर्चा ही जीतकर आए हों। बीच में हरनाम देवी थी, शर्मीली और छुईमुई सी। कारे सिंह सबसे पीछे थे, मौन, चिन्तित और भयभीत। कदम-कदम पर खटका होता था कि कहीं पीछे सिपाहियों की पलटन तो नहीं चली आ रही है। इस तरह लगभग आधा मील चलने के बाद पक्की सड़क मिली। हरनाम देवी एक ठंडी साँस लेकर बैठ गई और बोली कि अब मुझसे चला नहीं जाता, मेरे पाँव मन-मन भर के हो गए। एक इक्का लाओ। रुस्तम खान बहुत शर्मिन्दा हुए कि यह प्रस्ताव उनकी ओर से आना चाहिए था। अपनी गलती पर बहुत पछताए और तब कारे सिंह को बन्दूक सौंपकर इक्के की तलाश में चले।
आधी रात थी, चाँदनी छिटकी हुई, जमीन पर आँखें लुभाने वाली घास की चादर, पेड़ की शीतल छाया, फूलों से सजी हुई सम्पूर्ण प्रकृति आनन्द के सुरीले गान से सम्मोहित हो रही थी। यह स्वाभाविक था कि कारे सिंह के दिल में प्यार के विचारों का तूफान उठ खड़ा हो। हरनाम देवी ने एक लुभावनी अदा से उसके दोनों हाथ पकड़ लिए और बोली- ये बहुत शरारत करते हैं, मैं इन्हें बाँध दूँगी।
कारे सिंह को मटके भर भाँग का नशा था, दिल जुल्फों में उलझ चुका था, गर्दन में वफा की रस्सी पड़ी हुई थी। सारा साफा खत्म हो गया, हरनाम देवी फंदे लगाते-लगाते थक गई, लेकिन वह अपनी मस्ती की तरंग में इन रसीली अदाओं की बहार लूटता रहा।
तभी उसकी आँखों के सामने से भ्रम का परदा हटा। हरनाम देवी ने साड़ी उतार फेंकी और उसके बदले एक गठीला, बड़ी-बड़ी मूछों वाला जवान हाथ में बन्दूक लिए खड़ा दिखाई दिया। एक पाँच हाथ की साड़ी आदमी को कितना धोखा दे सकती है! कारे सिंह ने पैर पटककर कहा, ‘अरे घासीराम!’
इसी बीच रुस्तम खान इक्का लाते हुए दिखाई दिये। घासीराम ने वह साड़ी उठाकर कारे सिंह को ओढ़ा दी और बोला, ‘यह तुम्हारी हरनाम देवी तुम्हारे हवाले है। इसके बदले में यह बन्दूक मुझे दे दो। अब मैं चलता हूँ, मेरी गलती माफ करना।’
कारे सिंह ने चीख पुकार मचाई लेकिन घासीराम गायब हो चुका था। रुस्तम खान पर इस घटना का जो कुछ असर हुआ वह कहने की बात नहीं। आशाओं से भरे हुए सुहाने स्वप्न टूट गए। इस राजदारी, कोशिश और हमदर्दी का यह पुरस्कार मिला कि कारे सिंह ने सारा इल्जाम उसके सिर रखा और जब वह अपनी सफाई देने लगा तो गरीब को ऐसा घोबीपाट मारा कि उसकी कलाई टूट गई।
उसी रात को शहर में दो सशस्त्र डाके पड़े। दैनिक समाचार पत्रों ने लिखा कि कुख्यात डाकू घासीराम इलाहाबाद जेल से निकल भागा है और शहर में चारों ओर डाके और लूट का बोलबाला है।
isitarah-premchand
[साहित्येतिहास साक्षी है कि जब-जब किसी रचनाकार पर लेखकीय प्रतिबन्ध आरोपित हुए हैं तब-तब छद्म लेखकीय नामों के अन्तर्गत रचनाएँ प्रकाशित कराने में संकोच नहीं किया गया। भारतीय साहित्य के सर्वश्रेष्ठ रचनाकार मुंशी प्रेमचंद भी इसका अपवाद नहीं हैं। यह भी आश्चर्यजनक रूप से सत्य है कि नवाबराय के नाम से लिखने वाले धनपतराय श्रीवास्तव का एक ऐसा ही छद्म नाम ‘प्रेमचंद’ भी है जिसकी व्यापक प्रसिद्धि के आलोक में उनके मूल तथा लेखकीय नाम ही विस्मृति के गहन अन्धकार से आवृत्त होकर रह गए हैं।
नवाबराय के लेखकीय नामोल्लेख के साथ जमाना प्रेस, कानपुर से प्रकाशित प्रेमचंद के प्रथम उर्दू कहानी संकलन ‘सोजे वतन’ को लेकर कुछ न कुछ विवाद हुआ जिसके कारण उन पर कतिपय लेखकीय प्रतिबन्ध भी आरोपित कर दिए गए। विद्वानों ने इस विवाद को प्रायः संकलन की ‘जब्ती’ अथवा ‘बेजाब्ता जब्ती’ के रूप में उल्लिखित किया है, परन्तु इस सम्बन्ध में पुष्ट प्रमाण खोजे जाने अपेक्षित हैं। यह अवश्य है कि इसी विवाद से उद्भूत प्रतिबन्धों के कारण नवाबराय का प्रेमचंद में रूपान्तरण हुआ था। इस रूपान्तरण के संक्रमण-काल में प्रेमचंद की रचनाएँ कभी विभिन्न छद्म नामों से तो कभी बिना नाम के प्रकाशित होती रहीं। यही नहीं, प्रेमचंद का नाम ग्रहण करने तथा इस नाम की व्यापक प्रसिद्धि हो जाने के पश्चात् भी प्रेमचंद अपने छद्म नामों के अन्तर्गत रचनाएँ प्रकाशित कराते रहे।
आश्चर्यजनक रूप से प्रेमचंद का एक छद्म नाम ऐसा भी है जिसके अन्तर्गत उनकी प्रथम रचना उस समय प्रकाशित हुई जब प्रेमचंद के नाम की धूम मची हुई थी। यह छद्म नाम है ‘बम्बूक’ और इस नाम के अन्तर्गत उनकी प्रथम कहानी ‘जमाना’ के अप्रैल-मई 1915 के संयुक्तांक में ‘इश्तिहारी शहीद’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी।
बम्बूक के लेखकीय नाम से प्रकाशित प्रेमचंद की दो कहानियाँ - ‘शादी की वजह’ (‘जमाना’, मार्च 1926) और ‘ताँगे वाले की बड़’ (‘जमाना’, सितम्बर 1926) प्रेमचंद के पुत्र अमृतराय ने अपने शोध और जानकारी के आधार पर उनकी प्रामाणिक रचना स्वीकार करके १९६२ में ‘गुप्त धन’ शीर्षक संकलन में सम्मिलित करके प्रकाशित करा दी थीं। उल्लेखनीय है कि उस समय प्रो. कमर रईस इस सम्बन्ध में अमृतराय से सहमत थे और डा. जाफर रजा अपनी प्रारम्भिक असहमति व्यक्त करने के अनन्तर गहन-गम्भीर शोध के आधार पर उनसे सहमत हुए थे।
बम्बूक के लेखकीय नामोल्लेख के अन्तर्गत प्रकाशित प्रेमचंद की प्रथम कहानी ‘इश्तिहारी शहीद’ किसी कारण अथवा अनवधानता के कारण अमृतराय ही नहीं, प्रेमचंद साहित्य के किसी भी अध्येता अथवा विशेषज्ञ के संज्ञान में न आ सकी। यह सुदुर्लभ कहानी प्रेमचंद को एक सफल हास्य लेखक के रूप में स्थापित करने के लिये पर्याप्त है, और इस दृष्टि से यह कहानी प्रेमचंद की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कहानियों में निश्चित रूप से सम्मिलित किए जाने योग्य है।]
मेरी सादगी, मेरी सच्चाई, मेरा भोलापन मेरे लिए जी का जंजाल हो गया। आज चार सप्ताह हो गए, यह मुसीबत मैंने स्वयं अपने ऊपर ओढ़ ली और अब इससे पीछा छूटने का कोई उपाय दिखाई नहीं देता।
जब से मैं पेंशन लेकर रसूलाबाद आया, किताबें पढ़ने और ईश्वर का नाम लेने में समय बीतता था। शाम को कस्बे के रईस इकट्ठा होते और हँसी-मजाक में दो घड़ी बिताते। मुंशी रामखिलावन पोस्टमास्टर से अच्छी पहचान हो गई थी। यही साहब मेरी मुसीबत की जड़ हैं। जब मैं पहले-पहल यहाँ आया था तो मुंशीजी के सिर पर थोड़ा सा गंजापन था। आपके किसी दोस्त ने प्रेरित करके लाहौर के प्रसिद्ध दवाखाने इंडियन मैडीकल हाल की बाल उगाने वाली दवा की शीशी मँगवा दी। यद्यपि आप पूर्णतया सहमत नहीं थे और संकोच से यही कहते थे कि अब इस अवस्था में गंजेपन की क्या चिन्ता करूँ, तथापि एक सप्ताह पश्चात् ही साढ़े तीन रुपये की वी.पी.पी. आ टपकी और मुंशीजी ने अपने दोस्त की बात रखने को छुटा ली। कुछ महीनों के इस्तेमाल के बाद प्रभु कृपा से आपके सिर पर बाल उग आए। अब पोस्टमास्टर साहब इस दवा को बड़ी इज्जत की दृष्टि से देखने लगे और लोक-कल्याण के लिए हर छोटे-बड़े से इसकी चर्चा करने लगे। कोई आदमी एक पोस्ट कार्ड लेने गया तो आपने दवा की प्रशंसा का पोथा ही खोल लिया। अब वह बेचारा दुहाई दे रहा है कि आज तक मेरे खानदान में कोई गंजा नहीं हुआ और मुझे इस दवा की कभी आवश्यकता नहीं पड़ेगी, लेकिन आप आग्रह कर रहे हैं कि भाई सुन तो लो। न पैसे लौटाते हैं न पोस्ट कार्ड ही देते हैं। खैर, ये तो आए दिन की बातें हैं।
अब मेरा किस्सा सुनिए। एक दिन आप मुझसे कहने लगे कि न्याय की माँग है कि इस दवाखाने को एक सार्टिफिकेट दिया जाय। क्योंकि मेरा अनुभव व्यापक था और मैंने लम्बे समय तक तहसीलदार के पद पर अत्यन्त कुशलता के साथ कार्य किया था इसलिए वे इस सार्टिफिकेट को प्रमाणित कराने के लिए मेरे पास आए। मैंने भी इसे एक महत्त्वहीन बात समझकर पूरा घटना-क्रम लिखकर उसके अन्त में अपने हस्ताक्षर कर दिए। बस, मानो उसी दिन से एक नई बला मेरे सिर पर आन गिरी। अफसोस है, कैसी मनहूस घड़ी थी कि मैं आज तक इसके लिए पछता रहा हूँ।
सार्टिफिकेट पहुँचते ही दवाखाने ने उसे लाहौर के सभी दो-दो पैसे वाले अखबारों में मोटे-मोटे अक्षरों में छपवा दिया और जुल्म यह किया कि उसके साथ-साथ मेरा पता भी दे दिया। बस साहब, मैं भी उसी दिन से इश्तिहारबाजी को मानने लगा। कारखाने के मैनेजर साहब का धन्यवाद का एक लम्बा पत्र आया जिसमें उन्होंने मुझसे यह पूछा था कि मैं उनकी अन्य अनुभूत दवाइयों के सार्टिफिकेट देने के लिए क्या लूँगा। उनकी तैयार की हुई एक हाजमे की गोली थी। आपने मुझे एक धनराशि भेंट करने का आश्वासन दिया, यदि मैं यह लिखकर दे दूँ कि मेरे दोस्त का बिल्कुल सड़ा हुआ पेट इससे ठीक हो गया। यदि मैं यह लिख दूँ कि उनका मोम का तेल गठिया की रामबाण औषधि है तो वे मेरे साथ हर प्रकार का व्यवहार करने को तत्पर थे। जिस प्रकार मैनेजर साहब ने लिखा था, उससे ऐसा लगता था कि यदि मैं यह लिख दूँ कि उनका मंजन प्रयोग करने से एक बुढ़िया के अठारह वर्ष से गिरे हुए दाँत पुनः निकल आए हैं तो वे मुझे अपने कारखाने का साझीदार ही बना लेंगे। वे इसे मेरा कर्त्तव्य समझते हैं कि मैं उनके केशरंजन की एक दर्जन शीशियाँ अपने आत्मीय मित्रों को प्रयोग कराकर उन्हें इसके लाभ की सूचना दूँ। लेकिन मुझे इन सब सेवाओं से क्षमा माँगनी पड़ी।
केवल यही नहीं, दूसरे दवा-विक्रेताओं ने भी मुझ पर कृपा की। मुहम्मद अफजल एण्ड संस ने बाल उगाने के पाउडर की छह पुड़िया मेरे पास इसलिए भेजीं कि यदि मेरे कुछ और दोस्त गंजे हों तो वे इस दवा का प्रयोग करके देखें, दो सप्ताह में ही उनके बाल उग आएँगे। स्वदेशी कैमीकल वर्क्स ने रजिस्टर्ड ट्रेड मार्क वाली गोलियाँ पेड पार्सल के द्वारा भेजीं और बहुत अनुरोध किया कि मैं उनका प्रयोग करूँ। भगवान् न करे, यदि पोस्टमास्टर साहब के बाल फिर कभी गिर जायँ तो इसके प्रयोग से बिना बरसात की प्रतीक्षा किए बाल पुनः उग आएँगे और फिर कभी नहीं गिरेंगे। इस दावे के प्रमाणस्वरूप सौ रुपये का वांछित पुरस्कार भी लिफाफे में साथ ही भेजा गया था और इसके अतिरिक्त और बहुत से छपे हुए सार्टिफिकेट भी साथ में थे। एक रेलवे पार्सल में बहुत से इश्तिहार और दीवारों पर चिपकाए जाने वाले छह सौ पोस्टर अलग से आए। इन सब बातों से पता चला कि श्रीमानजी ने मुझे अपना आनरेरी एजेन्ट समझ लिया है। जरा यह उदारता तो देखिए - आपने मेरे माध्यम से जाने वाले आर्डर पर उचित कमीशन का भी वादा कर लिया। पचास वर्ष से बालों के सम्बन्ध में हर प्रकार का कार्य करने वाली बाल जिया कम्पनी ने भी अपने तेल की एक दर्जन नमूने की शीशियाँ भेजीं जिनसे मेरे दोस्तों के बाल थोड़े समय में ही निकल आएँ। वैदिक प्रचारक कम्पनी, जालन्धर के एजेन्ट स्वयं कष्ट उठाकर मुझसे मिलने आए और अपनी दवा की छह डिब्बियाँ दे गए कि मेरे दोस्तों तथा परिचितों में जो गंजे शेष रह गए हों, उन पर इस दवा का प्रयोग कर देखा जाय। मतलब यह कि मैं इन कृपाओं से इतना परेशान हुआ कि मैंने लाहौर के दैनिक अखबारों में छपवा दिया कि अब मेरे कोई दोस्त गंजे शेष नहीं रहे और इसलिए अब कोई साहब अपनी मूल्यवान दवाइयाँ मेरे पास परीक्षा के लिए भेजने का कष्ट न करें। लेकिन इस पर भी मुझे छुटकारा न मिला। वास्तव में जितने प्रकार के पत्र मेरे पास आए यदि मैं उन सबकी नकल करूँ तो एक भारी भरकम किताब तैयार हो जाय।
मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि जिस दिन से पोस्टमास्टर साहब के गंजेपन के अनुभव अखबारों में प्रकाशित हुए, तब से इस कस्बे की डाक चौगुनी हो गई है। कन्याकुमारी से लेकर हिमालय तक का कोई भी गंजा न बचा होगा जिसने पोस्टमास्टर साहब के गंजेपन और स्वदेशी मैडीकल हाल की दवा के सम्बन्ध में मुझे कम से कम दो पत्र न लिखे हों। उन हजारों पत्रों से मुझे गंजों का ऐसा अनुभव हुआ है कि यदि किसी समय गंजों पर कमीशन बैठा तो मुझे विश्वास है कि वह मेरी ही अध्यक्षता में बनेगा।
एक सज्जन ने बहुत प्रेम-प्रदर्शन के पश्चात् जिज्ञासा की कि क्या पोस्टमास्टर साहब जन्मजात गंजे थे। दूसरे सज्जन जानना चाहते थे कि क्या उनका गंजापन वंश परम्परा से चला आता था, और यदि ऐसा था तो वह उन्हें दादा या नाना, किसकी ओर से उत्तराधिकार में मिला। और यह कि उनके खानदान की महिलाओं में तो गंजापन नहीं होता।
एक अंग्रेज डाक्टर कलकत्ता में बालों के सम्बन्ध में प्रयोग कर रहे थे। उन्होंने अंग्रेजी में एक चिट्ठी लिख भेजी जिसमें सिर का एक नक्शा भी बना हुआ था। पोस्टमास्टर साहब के जो बाल गिर गए थे, उस नक्शे में उन्हें पूरे करने का निवेदन था - गंजेपन के स्थान के किनारे पर कितने बाल छोटे होकर रह गए थे? प्रतिदिन कितने बाल गिरा करते थे? और कितने बाल बीच से टूटे थे? ये डाक्टर साहब बालों के सम्बन्ध में एक पुस्तिका लिख रहे थे। उसके लिए उन्हें इस प्रकार की जानकारियों की अत्यधिक आवश्यकता थी। यदि मैं उनके उत्तर लिखने का प्रयास करता तो अवश्यम्भावी था कि मेरे परिजनों को उपचार हेतु मुझे आगरा के लिए चलता करना पड़ता।
जिला झांसी से एक सज्जन ने पूछा कि क्या ये वही मुंशी रामखिलावन हैं जो उनके कस्बे में सन् 18९९ में पार्सल बाबू थे, उनके भी गंजापन था। और यदि ये वही सज्जन हों तो अभी तक उनके जिम्मे बकाया पन्द्रह दिन का मकान का किराया, जो कि सवा रुपये के हिसाब से दस आने होता है, वसूल करके डाक द्वारा या दस्ती भेज दूँ।
बनारस से एक सज्जन ने पूछा कि इन मुंशीजी के नाखून भी थे या नहीं। यदि नहीं थे तो बालों के साथ-साथ नाखून भी निकले या नहीं। एक पंडितजी ने कृपापूर्वक लिखा कि जब ईश्वर ने उन्हें बाल नहीं दिये तो उन्हें ईश्वरेच्छा के विरुद्ध बाल उगाने की क्या आवश्यकता थी। आप समझिए कि इन बातों से ईश्वर बहुत रुष्ट होते हैं। दूसरे यह कि गंजा भागवान और पुत्रवान होता है। फिर मेरे दोस्त ने ऐसी गलती क्यों की! तीसरे यह कि अब तो जो हुआ सो हुआ, अब वे इसके प्रायश्चित्त में प्रत्येक एकादशी को एक निर्धन ब्राह्मण को भोजन करा दिया करें और कभी ऊँट-गाड़ी की सवारी न करें।
हजरत ‘हकीर’ लखनवी ने मेरे दोस्त के बाल उगने की प्रसन्नता में एक कसीदा लिखकर मेरे पास भेजा। हजरत नूर ने गंजेपन के हकीम से पूछा कि क्या जले हुए सिर पर भी पुनः बाल निकल सकते हैं। पटना के एक सज्जन ने तो हद ही कर दी। आपने अपने विवाह का छपा हुआ निमन्त्रण-पत्र और जन्म-पत्री ही भेज दी। अजीमाबाद से एक हकीम साहब ने लिखा कि यदि मैं दो हजार रुपये उनके पास अमानत के रूप में जमा कर दूँ तो वे अपनी अनुभूत दवाइयों के इश्तिहार दें और नफे में भागीदार बनाएँ। जिन्होंने अपने घोड़े के बाल बहुत अधिक कटवा दिए थे, ऐसे एक सज्जन ने मुझसे उपचार पूछा कि कब तक बाल पुनः निकल सकते हैं और यह कि पोस्टमास्टर साहब की दवा से लाभ होगा या नहीं। डिप्टी झमक लाल साहब ने पूछा कि उनकी कुतिया के बाल गर्मी में गिर जाते हैं और जानवरों पर इस दवा का क्या प्रभाव होता है।
एक सज्जन का बच्चा गलती से इस दवा को पी गया और इसलिए उन्होंने मुझसे यह पूछा कि बच्चे के पेट के अन्दर तो बाल नहीं निकलेंगे और उसका दम तो नहीं घुटने लगेगा। उन्होंने मुझसे सलाह भी माँगी कि यदि उसे बालसफा की एक शीशी पिला दें तो कैसा रहे ताकि बाल निकलने के साथ-साथ ही साफ भी होते चलें।
कम मूछों वाले जवानों के एक हजार तीन सौ बयालीस पत्र आए जिन्होंने यह पूछा कि क्या इस दवा से उनकी मूछें बढ़ जायँगी। एक सज्जन को मूछों की कमी के कारण पुलिस का एक पद नहीं मिलता था। उन्होंने बहुत अनुनय-विनय की कि जैसे भी सम्भव हो, उनकी मूछों के लिए किसी भी मूल्य की कोई दवा देखकर भेज दी जाय। कई हजार नौजवानों ने पूछा कि क्या इस दवा के प्रयोग से उनकी पत्नियों के बाल कमर तक पहुँच सकते हैं?
दूर-दूर के स्थानों से हजारों आदमी मुझसे मिलने और मेरी राय माँगने आए। सच पूछिए तो उन सभी ने मेरी बोलती बन्द कर दी। खाना-पीना, उठना-बैठना, मेल-जोल, स्नान-ध्यान सब हराम हो गया। मतलब यह है कि जिस समय देखिए कोई न कोई सज्जन आए डटे बैठे हैं। जहाँ कहीं बाहर जाता वहाँ भी यह बला मेरे साथ-साथ ही रहती। एक बार की बात है कि मैं एक आत्मीय के विवाह में एक दूसरे शहर में गया। वहाँ भी सारे शहर के गंजे मेरे दर्शनों को आए।
एक सज्जन ने तार देकर मुझसे पूछा कि क्या मुंशी रामखिलावन साहब दवा का प्रयोग करने से पहले सुबह-शाम, दोनों समय अपना सिर पानी से धोया करते थे। और यह कि वे दवा की मालिश किसी नौकर से कराते थे या स्वयं करते थे। एक दिन मैं हजामत बनवा रहा था। मेरी नाक पकड़े हुए नाई उस्तरा साफ कर रहा था कि एक सज्जन दौड़ते हुए आए। पता चला कि आप स्नान कर रहे थे कि आपके सिर के दो बाल हाथ में आ गए। बस फिर क्या था, उस समय से ही खाना-पीना सब हराम है और इस होने वाले गंजेपन के भय से दुखी हैं। और, मुझसे उपचार पूछने के लिए लगभग दो सौ मील से आ उपस्थित हुए और मुझे हकीम का विरुद दे दिया।
एक बार मुझे सूचना मिली कि किसी समय मुझ पर बहुत कृपालु रहे जौनपुर के कमिश्नर मिस्टर एडम्स साहब बहादुर शाम की गाड़ी से मेरे कस्बे के स्टेशन से होते हुए जा रहे हैं। मुझे उनकी कृपाएँ याद थीं और भैया के सम्बन्ध में भी स्मरण कराना था, इसलिए मैं उनसे भेंट करने स्टेशन को गया। रेल पर लोगों ने मेरी खुशबू सूँघ ली। फिर क्या था, सैकड़ों यात्रियों ने मुझे घेर लिया। कोई सज्जन कुछ पूछते हैं, कोई सज्जन कुछ और मुझे साहब से भेंट नहीं करने देते। इस बखेड़े से मेरा पूरा उद्देश्य, जिसके लिए मैं इतनी दूर से आया था, व्यर्थ हो गया और मैं दाँत पीसकर रह गया। हाय! मैंने कैसे बुरे समय में सार्टिफिकेट को प्रमाणित किया था कि यह बला किसी क्षण भी पीछा नहीं छोड़ती।
किसी समय मैं घर से बाहर निकला। कोई सज्जन पूछ रहे हैं कि हजरत, बालों के लिए पगड़ी बाँधना लाभदायक है या टोपी पहनना। और टोपियों में कौन सी टोपी को वरीयता दी जाय। यदि कोई व्यक्ति तुर्की टोपी पहनने का अभ्यस्त हो और फिर एकदम बिना सूचना के फैल्ट कैप पहनने लगे तो उसके बाल गिरने लगे। यदि मोटे कपड़े की टोपी पहनने वाला महीन कपड़े की टोपी पहनने लगे, तो इसमें किसी प्रकार के भय की तो बात नहीं है। एक सज्जन रात को दो बजे की गाड़ी से जाने वाले थे। स्टेशन जाते समय मेरे मकान से गुजरे। मुझे जगाया, मैं बाहर आया। दुआ-सलाम के बाद आपने पूछा कि रेल की यात्रा में रात के समय टोपी पहने रहें या उतारकर रख दें। इसके पश्चात् कहा कि मैं उनकी टोपी को तोलकर देख लूँ कि वह उनके दिमाग के लिए भारी तो नहीं है क्योंकि आपको स्मरण होता है कि कभी किसी अखबार में आपने टोपी के वजन और स्मरण-शक्ति के सम्बन्ध में कुछ पढ़ा या सुना था। आपने यह भी कहा कि मेरी टोपी में ऊपर की ओर छेद नहीं है और अब नये प्रकार की टोपियाँ आई हैं, जिनमें छेद होते हैं। इसलिए मैं भी अपनी टोपी में छेद कर लूँ या लखनऊ के प्रसिद्ध टोपी वाले मियाँ नजफुद्दीन से छेद करा लूँ। मैं आश्चर्यचकित था कि क्या उत्तर दूँ। अन्ततः राम-राम करके घड़ी देखकर आपने कहा कि अब गाड़ी का समय निकट है, मैं फिर कभी कष्ट दूँगा। मैंने इत्मीनान की साँस ली कि जान बची लाखों पाए।
किस्सा यह है कि अब मेरी जान पर आ बनी है। अफसोस, मेरी जान का बीमा नहीं हुआ है अन्यथा मैं आत्महत्या कर लेता। अब तो जान देने में पेंशन की चिन्ता होती है। मैंने साढ़े चौंतीस साल बहुत सख्त अधिकारियों की देख-रेख में काम किया है, बहुत से मोर्चे जीत चुका हूँ लेकिन यह बला सिर से किसी प्रकार भी टाले नहीं टलती। आह, मेरी भलमनसाहत मेरे गले पड़ी और अब मेरी जान संकट में है। यह मुसीबत अब बिल्कुल असहनीय है। मैंने नौकरों को बार-बार समझाकर कहा और बर्खास्त कर देने की भी धमकी दी कि प्रत्येक व्यक्ति से पहले काम पूछ ले तभी मुझे उसकी सूचना दे। और यदि उसके गंजापन हो या बालों की चर्चा करे तो उसे किसी मूल्य पर भी मकान में न घुसने दे, चाहे वह कितना ही आत्मीय क्यों न हो।
लेकिन उस दिन जब मैं बैठक में आया तो एक सज्जन एक घंटे से डटे हुए बैठे मिले। आपने बहुत सम्मान के साथ प्रणाम किया। मेरा माथा ठनका लेकिन मुझे चाहे-अनचाहे बैठना पड़ा। अब श्रीमान् उठे और सब दरवाजे और खिड़कियाँ बन्द करके धीरे से बोले कि कोई सुनता तो न होगा। मैं घबराया कि यह व्यक्ति अवश्य ही मेरी हत्या करने आया है। मैं भी अपनी जान से ऊब चला था फिर भी मैंने यह कहना आवश्यक समझा कि भाई ठहर जाओ, मैं अपने वसीयतनामे पर हस्ताक्षर कर लूँ। इसके उत्तर में उसने अपनी टोपी मेरे पैरों में रख दी और मुझसे वादा करा लिया कि मैं उसके किस्से की चर्चा किसी से न करूँ। इस शपथ-सौगन्ध के पश्चात् उसने अपने सिर से नकली बाल उतार डाले और तब मुझे पता चला कि उसके सिर पर एक भी बाल नहीं था। वह कहने लगा कि इन नकली बालों से उसे बहुत कष्ट होता है लेकिन नौकरी के कारण यह ढोंग बनाया है और उपचार के लिए आपकी सलाह लेने आया हूँ। उसने अपनी जेब से एक आतशी शीशा निकालकर मुझे दिया, दो रुपये भी भेंट किए और कहा कि इस दूरबीन से मेरा सिर देखकर बताइए कि कहीं यह असाध्य तो नहीं है। मैंने उसको मुंशी रामखिलावन के पास भेजा और इस प्रकार इस अटल बला को अपने सिर से टाला।
अब श्रीमान्, मुझको अफसोस के अतिरिक्त अपने भाग्य पर रोना आता है। ईश्वर की सौगन्ध, अब कभी मुझसे ऐसी गलती नहीं होगी। मैं अपनी वसीयत में शर्त लगा जाऊँगा कि मेरे कुनबे में कभी कोई व्यक्ति किसी भी दवा को प्रमाणित न करे अन्यथा ब्रह्मज्ञानी मित्र इस ईश्वर के बंदे को भी पागल बना देंगे। अब चाहे स्वयं हजरत ईसा मसीह ही क्यों न कहें, लेकिन इस पापी से पुनः इसे प्रमाणित करने की गलती नहीं होगी। जिस मुसीबत में मैं स्वयं अपनी मूर्खता से आ फँसा हूँ, उसे मैं मात्र लोक-कल्याण की दृष्टि से सार्वजनिक कर रहा हूँ ताकि देश के अन्य निर्दोष व्यक्ति इस बला से सुरक्षित रहें।
पोस्टमास्टर साहब और दवा विक्रेताओं को मैं इसके अतिरिक्त और क्या कहूँ कि भगवान् भला करें।
शेष कृपा!
janajal-premchand
[‘गुप्त धन’ शीर्षक से दो भागों में प्रेमचंद की 56 अप्राप्य हिन्दी-उर्दू कहानियाँ प्रकाशित कराते हुए अमृतराय ने सन् 1962 में लिखा था-
"मेरा अनुमान है कि अभी तीस-चालीस कहानियाँ और मिलनी चाहिए। उर्दू-हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं की पुरानी फाइलें - और हिन्दी से भी ज्यादा उर्दू पत्र- पत्रिकाओं की फाइलें आसानी से नहीं मिलतीं। अक्सर खण्डित मिलती हैं। कम जाने-माने और साप्ताहिक-पाक्षिक पत्रों की तो प्रायः नहीं मिलतीं।...मैं पूरी तरह निराश नहीं हूँ और सच तो यह है कि पुराने पत्रों की छानबीन अभी उस आत्यंतिक लगन से की भी नहीं जा सकी है जो कि अपेक्षित है। मुझे यकीन है कि अगले कुछ बरसों में मुझे या मेरे किसी और उत्साही भाई को और भी कुछ कहानियाँ मिलेंगी।1
अमृतराय का उपर्युक्त कथन वास्तविकता पर आधारित है। यह तो सत्य है कि 1962 के पश्चात् प्रेमचंद के अप्राप्य साहित्य को खोजने तथा प्रकाशित कराने की दिशा में अमृतराय कोई विशेष प्रयत्न करते भी दिखाई नहीं देते, परन्तु उन्होंने जो ‘यकीन’ जाहिर किया था उसे किन्हीं अर्थों में डा. जाफर रजा चरितार्थ करते दिखाई देते हैं, जिन्होंने प्रेमचंद साहित्य पर शोध करके 1977 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पी-एच्.डी. की उपाधि प्राप्त की थी। उनका शोध-प्रबन्ध उर्दू में 1977 में ही प्रकाशित हो गया था, जिसका हिन्दी अनुवाद 1983 में प्रकाशित हुआ था। इसमें डा. रजा लिखते हैं -
"इन पंक्तियों के लेखक को अपने शोध कार्य के बीच उर्दू तथा हिन्दी के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं से पच्चीस ऐसी कहानियाँ प्राप्त हुईं जो अब तक सर्वथा अज्ञात थीं। यह कहानियाँ शीघ्र ही हंस प्रकाशन, इलाहाबाद से ‘गुप्त धन’ भाग-3 के रूप में प्रकाशित हो रही हैं।2
1. गुप्त धन, भाग-1,
2. प्रेमचंद : उर्दू हिन्दी कथाकार,
उपर्युक्त शब्दों के साथ डा. रजा ने इन पच्चीस कहानियों के नाम भी प्रस्तुत किए हैं। आश्चर्य की बात है कि अमृतराय के हंस प्रकाशन से ‘गुप्त धन’ का यह तीसरा भाग तो कभी भी प्रकाशित नहीं हो सका, लेकिन श्रीपतराय के सरस्वती प्रेस से जो ‘सोलह अप्राप्य कहानियाँ’ शीर्षक संकलन सन् 1981 के आसपास कभी प्रकाशित हुआ था, और जिसमें संकलित कहानियों के सम्बन्ध में डा. कमल किशोर गोयनका यह दावा करते हैं कि इनकी खोज तथा लिप्यन्तरण का कार्य उन्होंने सम्पादित किया था, उनमें से एक कहानी के अतिरिक्त अन्य कोई भी कहानी ऐसी नहीं है जो डा. जाफर रजा द्वारा प्रस्तुत सूची में उल्लिखित न हो। गौरतलब है कि इन कहानियों के सम्बन्ध में मदन गोपाल का भी यही दावा है कि इनकी खोज का श्रेय उन्हें ही है। परन्तु तथ्य स्वयं बोलते हैं कि इन्हें डा. जाफर रजा ने ही तलाश किया था और उनके नामोल्लेख के बिना इन कहानियों को श्रीपतराय ने ‘सोलह अप्राप्य कहानियाँ’ में और डा. गोयनका ने ‘प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य’, भाग-१ (1988) एवं ‘प्रेमचंद की अप्राप्य कहानियाँ’ (2005) में प्रकाशित कर देने में तनिक भी संकोच नहीं किया।
डा. जाफर रजा द्वारा प्रस्तुत प्रेमचंद की कहानियों की सूची में एक कहानी ‘जंजाल’ (‘तहजीबे निस्वाँ’, अगस्त १९१८) का उल्लेख भी प्राप्त है, जिसके सम्बन्ध में डा. गोयनका लिखते हैं कि यह कहानी ‘पूरी चेष्टा के बावजूद’ उन्हें प्राप्त नहीं हो सकी। इसके प्रकाशन का सन्दर्भ डा. गोयनका निम्नानुसार प्रस्तुत करते हैं -
"जंजाल’ उर्दू से, तहजीबे निस्वाँ, उर्दू मासिक, अगस्त 19181
डा. गोयनका द्वारा प्रस्तुत उपर्युक्त सन्दर्भ अशुद्ध एवं अपूर्ण है। ‘तहजीबे निस्वाँ’ कोई उर्दू मासिक पत्र नहीं था, वरन् सन् 1898में लाहौर से प्रकाशित होना आरम्भ हुआ साप्ताहिक पत्र था, जिसकी आदि सम्पादिका मुहम्मदी बेगम थीं, जिनके बाद इसके सम्पादन का भार आसिफ जहाँ बेगम ने संभाला। पीछे चलकर सैयद इम्तियाज अली ताज इसके सम्पादक हुए। इस पत्र में प्रेमचंद की ‘जंजाल’ शीर्षक कहानी 3 अगस्त 1918 तथा 10 अगस्त 1918 के दो अंकों में क्रमशः प्रकाशित हुई थी और इस पर लेखकीय नामोल्लेख भी ‘प्रेमचंद’ के रूप में ही प्रकाशित हुआ था।
प्रेमचंद की कहानी-कला के विकास-क्रम, उनकी संवेदनाओं, सामाजिक मूल्यों के प्रति निष्ठा के साथ-साथ नारी मनोविज्ञान पर उनकी गहरी पकड़ का प्रत्यक्ष परिचय प्राप्त करने की दृष्टि से ‘जंजाल’ विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण कहानी है। ध्यातव्य है कि ‘तहजीबे निस्वाँ’ एक महिलोपयोगी साप्ताहिक पत्र था, जिसमें प्रेमचंद की ‘बाजयाफ्त’ और ‘बूढ़ी काकी’ जैसी नारी मनोविज्ञान पर आधारित कहानियाँ प्रकाशित हुई थीं।
गहनों के प्रति महिलाओं के स्वाभाविक आकर्षण की भावभूमि पर प्रेमचंद का उर्दू उपन्यास ‘किशना’ दिसम्बर 1906 में प्रकाशित हुआ था, जो सम्प्रति अप्राप्य है। इसी भावभूमि पर प्रेमचंद ने पीछे चलकर एक उपन्यास ‘गबन’ शीर्षक से लिखा था, जिसके सम्बन्ध में पं. जनार्दन प्रसाद झा द्विज का मत है कि यह ‘किशना’ का ही संशोधित तथा परिवर्द्धित रूप है। इन दोनों उपन्यासों के मध्य प्रकाशित कहानी ‘जंजाल’ भी ठीक इसी भावभूमि की रचना है, जिसे ‘किशना’ की ही भावभूमि पर आधारित बताना कुछ असंगत न होगा।
इस कहानी ‘जंजाल’ में पात्रों के चरित्र-चित्रण, यथार्थ का प्रतिफलन और आदर्श की स्थापना में प्रेमचंद पूर्णतः सफल रहे हैं। सशक्त शिल्प और समाज को सार्थक संदेश देने की दृष्टि के साथ-साथ पाठकीय रोचकता की दृष्टि से भी यह कहानी प्रेमचंद की एक उत्कृष्ट कहानी है।]
1. प्रेमचंद की अप्राप्य कहानियाँ,
दबाने से इच्छाएँ समाप्त हो जाती हैं, हमें इसमें सन्देह है। सम्भव है कुछ मामलों में ऐसा होता हो, लेकिन प्रायः सहनशीलता बंद हवा की तरह आँधी की पूर्व- पीठिका हुआ करती है।
पार्वती को अपने पति के साथ रहते हुए पाँच साल से ज्यादा हो गए लेकिन उसने उनसे कभी कोई फरमाइश नहीं की। यदि वह कभी दबी जबान से या परोक्ष रूप से किसी गहने या कपड़े की चर्चा करती तो सुरेन्द्रनाथ अत्यन्त बेबसी के साथ कहते, ‘मेरी आमदनी और खर्च का हिसाब तुम्हारे हाथ में है। यदि इसमें कोई गुंजाइश दिखाई दे तो जो चाहे चीजें बनवा लो। इससे अधिक प्रसन्नता की बात मेरे लिये क्या होगी कि तुम्हें गहनों से सजी देखूँ।’ यह उत्तर सुनकर पार्वती सिर झुका लेती और सोचती कि मैं सारी उम्र यूँ ही नंगी-बुच्ची बनी बैठी रहूँगी। कभी सोचती है कि यह खर्च न करूँ, इस मद में कमी करूँ, लेकिन चूल कभी ठीक नहीं बैठती थी।
उसके पास पहले के भी कुछ गहने थे लेकिन वह उन्हें भी नहीं पहनती थी। त्योहार या उत्सव में भी वह प्रायः सादी साड़ी पहनकर ही रह जाती थी। वह अपनी महरी और पड़ौसिनों को दिखाना चाहती थी कि उसे गहनों की भूख नहीं है, लेकिन यह इस समय अपने दुर्भाग्य और पति की निर्धनता की घोषणा थी। उसे रह-रहकर विचार आता कि मेरे लिये सुरेन्द्र जितना कुछ कर सकते हैं उतना नहीं करते। वे मेरी अनापत्ति और सीधेपन का नाजायज फायदा उठाते हैं। निराश होकर वह कभी-कभी सुरेन्द्र से झगड़ना चाहती, झगड़ती, मुँह फेरकर बात करती, उसे सुना-सुनाकर अपने भाग्य को कोसती। सुरेन्द्र समझ जाते कि इस समय हवा का रुख बदला हुआ है, बचकर निकल जाते। कभी-कभी गंगा स्नान या किसी मेले से लौटकर पार्वती पर गहनों का उन्माद-सा छा जाता। वह संकल्प करती कि एक बार मन की निकाल ही लूँ, जो दो-चार सौ रुपये बचे हुए हैं उनकी कोई चीज बनवा लूँ, कल की चिन्ता में कहाँ तक मरूँ। लेकिन एक क्षण में उसका यह उन्माद उड़नछू हो जाता, यहाँ तक कि लगातार सहन करने के कारण उसकी सजने के शौक की इच्छाएँ मरकर मन के एक कोने में पड़ी रहती थीं।
मगर आज पाँच साल के बाद यह इच्छा जाग्रत हुई है। इसमें बेचैनी नहीं है लेकिन बेचैनी से भी ज्यादा दुःखदायी उदासी है। पार्वती के छोटे भाई की शादी होने वाली है, उसके मायके से बुलावा आया है। इस समारोह में भाग लेना जरूरी है। गहनों का पहनना आवश्यक हो गया। इस अवसर पर सुरेन्द्र भी अपनी विवशता का बहाना न कर सके। इस समय यह उपाय भी सफल होता दिखाई नहीं दिया।
शाम के समय सुरेन्द्र बाहर से लपके हुए आए। उनका चेहरा चमक रहा था। उन्होंने पार्वती के हाथ में एक पोटली रख दी। पार्वती ने खोलकर देखा तो पोटली में एक जड़ाऊ कंगन, एक चन्द्रहार और झुमके दिखाई दिए। पार्वती कुछ सहम-सी गई। उसे सपने में भी उम्मीद नहीं थी कि सुरेन्द्र उसके लिये इतनी और ऐसी कीमती चीजें लाएँगे। खुशी के बदले एक व्याकुलता, एक भय का अनुभव हुआ। वह डरते-डरते बोली, ‘ये कितने के हैं?’
सुरेन्द्र, ‘पसन्द तो हैं न?’
पार्वती, ‘पहले दाम तो बताओ।’
सुरेन्द्र, ‘चार सौ।’
पार्वती, ‘सच?’
सुरेन्द्र, ‘मेरे पास और रुपये कहाँ थे?’
पार्वती, ‘उधार तो नहीं लेने पड़े?’
सुरेन्द्र, ‘नहीं, उधार क्या लेना।’
पार्वती, ‘तब पसन्द हैं।’
सुरेन्द्र ने वास्तविकता छिपानी चाही थी लेकिन अपनी विशाल-हृदयता का बखान किए बिना न रह सके। सोचा कि इन्हें क्या पता चलेगा कि इनके लिए इस समय कितने बोझ के नीचे दबा जा रहा हूँ। बोले, ‘सच-सच कह दूँ! बारह सौ लगे।’
पार्वती ने पति को तिरस्कार की दृष्टि से देखते हुए कहा, ‘तो इतनी चीजें लाने की क्या जरूरत थी?’
दानवीर जैसी लापरवाही के साथ सुरेन्द्र बोले, ‘एक मुद्दत के बाद जब जेवर बनवाने लगा तो कंजूसी करने बैठता। शर्म भी तो कोई चीज है।’ पार्वती ने पति की ओर कृतज्ञता की दृष्टि से देखा। उसमें कुछ प्यार की झलक थी कुछ शिकायत की, कुछ गर्व की कुछ परेशानी की। उसने और अधिक प्रश्न न किए कि कहीं कोई ऐसी बात कानों में न पड़ जाय जिससे इन गहनों को वापस कर देना ही जरूरी हो जाय। जिस व्यक्ति के हलक में प्यास से काँटे पड़े हुए हों वह यह नहीं पूछता कि बर्तन कैसा है और पानी किसने भरा है।
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एक हफ्ते तक पार्वती एक दूसरी ही दुनिया में रही। उसके अन्दाज में एक शान, बातों में अभिमान और चेहरे से अमीरी झलकती थी। कितने ही ऐसे काम जिन्हें वह पहले निस्संकोच कर लिया करती थी, अब उसे दूभर लगने लगे। यहाँ तक कि अपनी नन्हीं बच्ची तारा को गोद में लेते हुए भी उसे अपने कपड़े मैले होने की आशंका होने लगती, लेकिन वह स्वयं अपने व्यवहार में आए इस परिवर्तन से अनजान थी।
सातवें दिन उसका भाई आया और पार्वती मायके चली। उसने सुरेन्द्र से हर तीसरे दिन पत्र भेजने का आश्वासन लिया। उनके सामने खड़ी घंटों रोती रही, ऐसा मालूम होता था कि बिछुड़ने के दुःख से उसका कलेजा फटा जा रहा है। लेकिन घर से निकलते ही दिखावे की इच्छा उसके मन पर छा गई। वह गाड़ी के एक जनाने डिब्बे में आकर बैठी, जिसमें अधिकांश महिलाएँ निम्न वर्ग की थीं। उन्होंने पार्वती को आतंकित दृष्टि से देखा और इधर-उधर सिमट गईं। पार्वती खिड़की के सामने जाकर ऐसे बैठी मानो इतनी आवभगत उसका जन्मसिद्ध अधिकार हो। उसे गाड़ी में भले खानदान की केवल एक ही महिला दिखाई दी। उसका चेहरा गम्भीर था। वह एक साफ साड़ी पहने हुए थी, पैरों में सलीपर थे, हाथों में चूड़ियाँ, लेकिन शरीर पर गहने के नाम पर एक तार तक न था। वह निम्न वर्ग की कई महिलाओं के बीच हाथ-पाँव सिकोड़े बैठी थी। मन ही मन पार्वती ने कहा - निस्सन्देह सुन्दर महिला है, लेकिन सम्मान कहाँ। कोई बात भी तो नहीं पूछता, एक कोने में दबी बैठी है। शरीर पर चार गहने होते तो यही सब ओछी महिलाएँ इसका सम्मान करतीं।
नीचे फर्श पर पार्वती के निकट ही एक गरीब महिला बैठी हुई थी। उसकी गोद में एक बच्चा था, जो रह-रहकर इतने जोर से खाँसता और चीख मारता कि पार्वती मन ही मन झुँझलाकर रह जाती। जब उससे रहा न गया तो उसने उस महिला से कहा, ‘तुम दूसरी पटरी पर जा बैठो। इस लड़के के खाँसने से मुझे नींद नहीं आ रही है।’ गरीब महिला ने पार्वती की ओर आश्चर्य से देखा और धीरे से सरक गई।
रात आधी से अधिक बीत गई थी। खिड़कियों से ठंडी हवा आ रही थी। गरीब महिला ने खिड़कियाँ बंद करनी चाहीं तो पार्वती ने आदेशात्मक स्वर में कहा, ‘नहीं, रहने दो। मुझे गर्मी लग रही है।’ धीरे-धीरे बच्चे की खाँसी बढ़ने लगी। कुछ देर तक तो वह चिल्लाता रहा, फिर उसका गला पड़ गया। उसने दूध पीना छोड़ दिया। सामने बैठी सीधी-सादी महिला कुछ देर तक तो बच्चे को देखती रही, फिर उसने उस गरीब महिला के पास आकर बच्चे को गोद में ले लिया। बच्चे की हालत खराब थी, सीने पर बलगम जमा हुआ था, लगता था कि निमोनिया की शुरुआत है। उसने फौरन अपना बक्स खोलकर उसमें से एक दवा निकाली और हवा से बचाकर बच्चे के सीने पर हल्के हाथ से मलने लगी। फिर दूसरी शीशी से एक चम्मच दवा निकालकर बच्चे को पिलाई। गाड़ी की सब महिलाएँ आकर बच्चे के निकट खड़ी हो गईं। निरन्तर एक घंटा तेल मालिश करने के बाद उस भली महिला ने अपने बक्से से एक फलालैन का टुकड़ा निकालकर बच्चे के सीने पर बाँध दिया। बच्चा सो गया।
वह रात के तीन बजे तक बच्चे को गोद में लिए एक-एक घंटे पर दवा पिलाती रही। बच्चे ने दूध पीना शुरू किया, उसके गले की घरघराहट रुक गई और वह मौत के फंदे से निकल आया। बच्चे की माँ अपनी उपकारिणी के पाँवों पर गिर पड़ी और रो-रोकर उसे धन्यवाद देने लगी।
इलाहाबाद में पार्वती और वह सीधी-सादी महिला, दोनों उतरीं। पार्वती का भाई आकर कुलियों को पुकारने लगा। जब कोई कुली न आया तो पार्वती को ही अपने सन्दूक, बिस्तर आदि उतार-उतारकर भाई को देने पड़े। उसकी रेशमी जाकट चिरक गई। उधर उस गम्भीर सीधी-सादी महिला ने जैसे ही अपना बिस्तर उठाया तो लपककर एक महिला ने उसके हाथों से बिस्तर ले लिया, दूसरी ने उसका सन्दूक उतार लिया, तीसरी ने उसका दवाओं का बक्स उठाया और कई महिलाएँ उसे धर्मशाला तक पहुँचाने आईं। बीमार बच्चे की माँ बार-बार उसके आगे हाथ जोड़ती और पैरों पर गिरती। दूसरी महिलाएँ भी उससे गले मिलीं। ऐसा लगता था मानो वे अपने किसी आत्मीय से बिछुड़ रही हों। लेकिन किसी ने पार्वती की बात भी न पूछी। उसके जाने से सब महिलाओं को सच्ची खुशी हुई, मानो सिर से एक बला ही टल गई। अब उन्हें जरा कमर सीधी करने की जगह तो मिलेगी। बीमार बच्चे की माँ ने तो उसे घृणा की दृष्टि से देखा और मन ही मन उसे जी भरकर कोसा।
पार्वती ने मन में कहा - इस सीधी-सादी औरत ने तो अच्छा ही रंग जमा लिया। सभी महिलाएँ अनुचरी बन गईं, मानो कोई मन्त्र ही फूँक दिया हो। गँवारों के बीच तो ऐसा हो सकता है, परन्तु किसी भले घर में इसे कौन घास डालेगा।
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पार्वती का मायका शहर से सटी एक ऐसी बस्ती में था जिसे न शहर कह सकते थे, न देहात। वहाँ शहर की तो एक भी सुविधा न थी मगर देहात के सभी कष्ट मौजूद थे। न शहर की सड़कें, लालटेनें, नालियाँ थीं न देहात का विस्तार, हरियाली और हवा। वहाँ का दूध शहर वाले पीते थे, सब्जी शहर वाले खाते थे, लकड़ी शहर वाले जलाते थे। वहाँ के मजदूर काम करने शहर में जाते थे। खाने-पीने की चीजें वहाँ शहर से आकर ही बिकती थीं। पार्वती के पिता के पास कुछ जमीन थी लेकिन वे मजदूरों की कमी के कारण खेती न कर सकते थे। उसके दोनों भाई अंग्रेजी पढ़ते और वकालत का सपना देखते थे। भोले-भाले से चालाक बनने की धुन सवार थी।
बेटी का ठाट-बाट देखकर पार्वती की माँ फूली न समाई। उसकी दुनिया उन्हीं इने-गिने मकानों और उनके निवासियों तक सीमित थी। वहाँ के गहने-कपड़े, शादी- ब्याह, झगड़े-टंटे उसके अस्तित्व की धुरी थे। वह उनमें ही बसती थी और उन्हीं का सपना देखती थी। मुहल्ले में किसी के घर बच्चा पैदा होना उसके लिये पनामा नहर के उद्घाटन से भी बड़ी घटना थी, और किसी घर में एक नये कंठे का बनना देहली के निर्माण से कहीं अधिक शानदार। पार्वती को देखकर बाग-बाग हो गई। उसे साथ लेकर पड़ौसिनों के घर गई। जो भी उसके कंगन और चन्द्रहार को देखता, लोटपोट हो जाता। माँ सामने वाले की सामर्थ्य के अनुसार उन गहनों का मूल्य बढ़ाती रहती थी। दो-तीन दिन पूरे मुहल्ले में उन गहनों की नुमाईश हुई। पार्वती का सिक्का जम गया, उसका रौब बैठ गया।
पार्वती की चाल-ढाल से एक शान टपकती थी। वह खाना खाने बैठती तो नाक सिकोड़ लेती, घी बेस्वाद है; पानी पीती तो मुँह बनाकर, ठंडा नहीं है। माँ सबको सुना-सुनाकर कहती, ‘भला इनसे पूछो, घर का सा सुख यहाँ कहाँ मिलेगा। वहाँ अपने मन का खाती थी, अपने मन का पहनती थी। यहाँ गृहस्थी में तो मोटा-महीन सब मिलेगा। मगर बेचारी में जरा भी ऐंठ नहीं है, वही पुराना स्वभाव है, वही अल्हड़पन।’
पार्वती की बिटिया तारा पूरे मुहल्ले की गुड़िया बनी हुई थी। सभी छोटे-बड़े उसे गोद में उठाते और प्यार से चूमते। कोई कहता, बेटी यह हँसली हमको दे दो, तो तारा तोतली बोली में कहती, ‘हमाली है।’ कोई पूछता, बेटी ये कड़े किसने बनवाए हैं, तारा कहती, ‘मेले बाबूदी ने।’
शादी का दिन निकट आ गया। रस्म-रिवाज होने लगे। मुहल्ले की औरतें बन- सँवरकर आने लगीं, लेकिन पार्वती उन सबकी रानी लगती थी। सभी औरतों की दृष्टि उसके कंगन, चन्द्रहार और झुमकों पर ही टिकी रहती। सब उससे दबती, उसका लिहाज करती, उसकी हाँ में हाँ मिलाती। पार्वती को यह सम्मान केवल अपने गहनों के बल पर ही मिल रहा था। बरात चलने के दिन न्यौते में सुरेन्द्रनाथ भी आए। जब वे शाम के समय घर में गए तो मुस्कराकर पार्वती ने कहा, ‘आज जी चाहता है कि तुम्हारी पान-फूल से पूजा करूँ।’
मुस्कराकर सुरेन्द्र ने कहा, ‘बना रही हो।’
पार्वती, ‘नहीं, सच कहती हूँ। इस समय मन यही चाहता है। तुम्हारे इन गहनों ने मेरा बोलबाला कर दिया। सारे मुहल्ले में धाक जम गई, सबकी सब पानी भरती हैं। ये न होते तो झूठे भी कोई बात न पूछता। अपनी जमा अपने घर में है, लेकिन नेकनामी मुफ्त। ऐसा सौदा और क्या होगा!’
सुरेन्द्र, ‘मैं जानता तो दो-एक चीजें और ले लेता।’
पार्वती, ‘ओह! तब तो सारे मुहल्ले में मैं ही मैं होती। औरत की इज्जत गहने-कपड़े से होती है, नहीं तो अपने माँ-बाप भी आँख से गिरा देते हैं।’
सुरेन्द्र पछताए कि और गहने क्यों न खरीद लिए। भले ही दो-चार सौ और उधार हो जाते, इसकी लालसा तो मिटती।
-4-
पार्वती को मायके में रहते दो महीने हो गए। सुरेन्द्र को दफ्तर से छुट्टी न मिली कि आकर ले जाते। शादी का सब काम पूरा हुआ, मेहमान बिदा हो गए, सन्नाटा छा गया। धीरे-धीरे पड़ौसिनों का आना-जाना भी बन्द हुआ। पार्वती के गहनों के चार दिन के साम्राज्य का अन्त हो गया। वही गहने थे वही कपड़े, मगर अब उन्हें देखने में क्या आनन्द आता। अब पूरे-पूरे दिन पार्वती अकेली बैठी रहती। कभी कोई औरत मिलने आ भी जाती तो बस दो-चार बातें करके ही अपनी राह लेती। किसी को भी अपने घर के कामकाज से फुर्सत न थी। यह अकेलापन पार्वती को बहुत अखरता। मायके से उसका मन उचाट हो गया। उसे पता चल गया कि नित्य नये गहने बनते रहने से ही उसकी बात बनी रह सकती है, पुराने तमाशे को कोई मुफ्त में भी नहीं देखता। कोढ़ में खाज यह हुई कि और भी कई घरों में उसके जैसे गहने बनने लगे। यहाँ तक कि एक मनचले शौकीन बनिये ने, जिसे नमक के काम में बड़ा भारी लाभ हुआ था, कलकत्ते के बने हुए कंगन और हार मँगवाए, जिन्होंने पार्वती का रंग फीका कर दिया। रही-सही बात भी जाती रही। रेत की दीवार भरभराकर ढह गिरी।
एक दिन पार्वती अकेली बैठी सुरेन्द्र को पत्र लिख रही थी कि अब यहाँ जरा सा भी मन नहीं लगता। दो दिन की छुट्टी मिले तो मुझे ले जाओ। इतने में उसकी बचपन की सहेली बागेश्वरी उससे मिलने आई। वह पार्वती के साथ खेली हुई थी। उसका ब्याह एक गरीब खानदान में हुआ था लेकिन उसके पति ने रंगून जाकर खूब पैसा कमाया और चार-पाँच साल के बाद लौटा तो पत्नी के लिए एक मोतियों का हार लेता आया। बागेश्वरी आज ही मायके आई थी। पार्वती ने उसका मोतियों का हार देखा तो आँखें खुल गईं, दो हजार से कम का नहीं होगा। पार्वती ने उसकी प्रशंसा तो की लेकिन उसका दिल बैठा जाता था; जैसे कोई ईर्ष्यालु कवि अपने नौसिखिये प्रतिद्वंद्वी की कला की प्रशंसा करने में कंजूसी करे।
यह रोग पार्वती की आत्मा में घुन की तरह लग गया। उसने दूसरों के घर आना-जाना छोड़ दिया, मन मारे अपने घर में ही बैठी रहती। उसे ऐसा लगता था कि अब औरतें, यहाँ तक कि उसकी माँ भी उसे तिरस्कार की दृष्टि से देख रही हैं। पहले गहनों की चर्चा में उसे एक विशेष आनन्द मिलता था, अब वह भूलकर भी गहनों की चर्चा नहीं करती। मानो अब उसे इस सम्बन्ध में मुँह खोलने का भी मन न हो।
आखिरकार एक दिन उसने अपने सब गहने उतारकर बक्से में रख दिए और ठान लिया कि इन्हें खोलूँगी नहीं। उसे इन गहनों के खरीदने पर पछतावा होने लगा। दिखावे की चाह में जिन्दगी के सुख-चैन में बेकार खलल पड़ गया। वह बिना गहनों के ही अच्छी थी कि यह मुफ्त की उलझन तो नहीं थी। घर के रुपये गँवाकर यह सिरदर्द खरीदना बड़ा महँगा सौदा है। तीज के दिन पार्वती की माँ ने कहा, ‘बेटी, आज मुहल्ले की सब औरतें स्नान करने जा रही हैं। तुम भी चलोगी?’
पार्वती ने उपेक्षा से कहा, ‘नहीं, मैं नहीं जाऊँगी।’
माँ, ‘चलती क्यों नहीं। बरस-बरस का त्योहार है, सब अपने मन में क्या कहेंगी?’
पार्वती, ‘जो चाहे कहें, मैं तो जाऊँगी नहीं।’
-5-
क्वार के दिन थे। सुरेन्द्र को अभी तक छुट्टी नहीं मिली थी। पार्वती ने जल-भुनकर उन्हें कई चिट्ठियाँ लिखी थीं, पर इधर दो हफ्ते से पत्र लिखना बंद कर दिया था। उसे अपनी जिन्दगी बोझ लगती थी। मुहल्ले में बुखार और चेचक का प्रकोप था, कोई किसी के घर आता-जाता न था। नाश्ते के बदले घरों में काढ़ा पकता था। अस्पताल में मेला सा लगा रहता था। वैद्य और हकीम पत्थर के देवता बने हुए थे। एक दिन पार्वती की माँ ने कहा, ‘बेटी, आज शीतला देवी आ रही हैं। चलो, उनसे मिल आएँ।’
पार्वती, ‘शीतला देवी कौन हैं?’
माँ, ‘यह तो नहीं जानती, मगर कभी-कभी यहाँ आया करती हैं। औरत क्या है देवी ही है।’
पार्वती, ‘क्या करती हैं?’
माँ, ‘यहाँ तो जब आती हैं, बीमारों की दवा-दारू करती हैं और किसी से एक पैसा भी नहीं लेतीं।’
पार्वती, ‘तो घर की मालदार होंगी?’
माँ, ‘नहीं, सुनती हूँ कि सिलाई करके गुजर-बसर करती हैं। ब्याह के बाद ही पति हैजे से मर गया, उसका मुँह तक नहीं देखा। तब से इसी भाँति काम कर रही हैं।’
पार्वती, ‘तो क्या अभी उम्र अधिक नहीं है?’
माँ, ‘नहीं, अभी उम्र ही क्या है। नारायण ने जैसी शक्ल-सूरत दी है, वैसा ही स्वभाव है। किसी महल में होती तो महल जगमगा उठता। ऐसी हँसमुख, ऐसी मिलनसार कि पास से हटने का मन नहीं होता। जब तक यहाँ रहती हैं, भीड़ लगी रहती है। पूरा मुहल्ला घेरे रहता है।’
इतने में महरी ने आकर कहा, ‘बहूजी, शीतला देवी आई हैं और पाठशाला में बैठी हुई लड़कियों से कुछ पूछ रही हैं। कई लड़कियों को तो इनाम भी दिए हैं। मैं भी जाती हूँ, जरा दर्शन कर आऊँ।’
माँ ने कहा, ‘अरी तू पानी तो भर दे, न जाने कब तक लौटेगी।’
महरी, ‘अभी लौटी आती हूँ। कहीं ऐसा न हो कि चली जाएँ।’
महरी के जाने के एक घंटे बाद पार्वती की वही मोतियों के हार वाली सहेली आकर बोली, ‘चलो बहन, शीतला देवी से मिल आएँ। मुहल्ले की सभी औरतें जा रही हैं।’
पार्वती को भी उत्कंठा हुई। तारा को एक अच्छी सी फ्रॉक पहना दी परन्तु स्वयं वही सादी सी साड़ी पहने हुए शीतला से मिलने चली। गहने नहीं पहने।
जब दोनों सहेलियाँ पाठशाला में पहुँची तो औरतों और बच्चों की भीड़ जमा थी। शीतला देवी जमीन पर बैठी हुई बच्चों को देख रही थी और बक्स से निकाल- निकालकर दवा देती जाती थी। मानो पेड़ों की छाँव में एक उजला कुंड था - वैसा ही मौन, गम्भीर, शान्तिमय और सुन्दर! शीतला की आँखों से एक चित्ताकर्षक पवित्रता झलक रही थी। पार्वती ने उसे पहचान लिया। यह वही सीधी-सादी महिला थी जिसे उसने गाड़ी में देखा था। पार्वती ने देखा कि इस औरत के सामने मैं कैसी निकृष्ट हूँ। और कुछ मैं ही नहीं, मुहल्ले की वे सभी औरतें जो गहनों से गोंड़नी की भाँति सजी हुई हैं इस औरत के सामने सेविकाओं की भाँति खड़ी हैं। यदि ये सभी अपने को सोने से मँढ़वा लें तो भी क्या! क्या इनका ऐसा सम्मान हो सकता है? इससे बात करके कौन निहाल नहीं हो जाता। और जो बीमार हैं वे तो मानो बिना दाम के ही गुलाम हैं। सचमुच इसी का नाम सम्मान है। यह क्या कि चार औरतें आवें और आँखें मटका-मटकाकर हमारे गहनों का बखान करने लगें, मानो हमारा शरीर नहीं बल्कि गहनों की नुमाईश का मैदान ही हो।
आज से एक महीना पहले शायद इस प्रकार के विचार पार्वती के मन में न उभरते। लेकिन आजकल गहनों से उसका मन फिरा हुआ था। सामान्य रूप से दार्शनिक विचारों के मूल में निराशा और उदासी ही होती है। पार्वती चित्रलिखित सी खड़ी शीतला देवी का तौर तरीका, बात करने का ढंग और आत्मीयतापूर्ण व्यवहार ध्यान से देखती रही। वह सोचती थी, ‘यह औरत कितनी सुन्दर है लेकिन इसके साथ ही इच्छाओं से कितनी मुक्त। मैं सम्मान की भूखी हूँ लेकिन मैं जिसे सम्मान समझती थी, वह यथार्थ से कितना दूर है। मैं अभी तक छाया के पीछे ही भाग रही थी, आज उसका वास्तविक रूप दिखाई दिया है।’
जब शाम ढल गई और भीड़ छँटी तो शीतला देवी की दृष्टि पार्वती पर पड़ी। वह उसे तत्काल पहचानकर बोली, ‘बहन, तुम्हें तो मैंने रेलगाड़ी में देखा था।’
पार्वती ने कहा, ‘हाँ, उस दिन मैं यहाँ आ रही थी।’
शीतला देवी ने पार्वती को सर से पाँव तक देखा और फिर उसकी सहेली बागेश्वरी की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा। मुस्कराकर बागेश्वरी ने कहा, ‘कुछ दिनों से गहने नहीं पहनती।’
शीतला, ‘क्या गहनों से नाराज हैं?’
बागेश्वरी, ‘इनका मन ही जाने।’
पार्वती, ‘आप भी तो नहीं पहनती।’
शीतला, ‘मुझे मयस्सर ही कहाँ। मैं तो भिखारिन हूँ, बहनों की सेवा करती हूँ और पुण्य के मार्ग में वे जो कुछ दे देती हैं, उसी से अपना पेट पालती हूँ।’
पार्वती, ‘मुझे भी अपने जैसी भिखारिन बना दीजिए।’
शीतला देवी हँसकर उठ खड़ी हुई और बोली, ‘भीख माँगने से भीख देना बहुत अच्छा है।’
रात में जब पार्वती लेटी तो शीतला देवी का दमकता चेहरा उसकी आँखों में नाच रहा था जो उसके मन को खींचे लेता था। उसने सोचा, क्या मैं भी शीतला देवी बन सकती हूँ? तत्काल सुरेन्द्र उसके सामने आकर खड़े हो गए, तारा रो-रोकर उसकी गोद में आने के लिए मचलने लगी। जीवन की इच्छाओं की एक बाढ़ ही उठ खड़ी होकर टक्कर मारने लगी। नहीं, शीतला देवी बनना मेरे वश में नहीं है, लेकिन मैं एक बात कर सकती हूँ और वह अवश्य करूँगी।
-6-
एक सप्ताह में पार्वती अपनी ससुराल आ पहुँची। सुरेन्द्र ने उसका मुरझाया मुँह देखा तो आश्चर्य से बोले, ‘गहनों से रूठ गईं क्या?’
पार्वती, ‘पुराने हो गए, नये बनवा दो।’
सुरेन्द्र, ‘अभी तो इन्हीं का हिसाब चुकता नहीं हुआ।’
पार्वती, ‘मैं एक उपाय बताती हूँ। इन गहनों को वापस कर दो। वापस तो हो जाएँगे?’
सुरेन्द्र, ‘हाँ, बहुत आसानी से। इन दो महीनों में सोने का भाव बहुत चढ़ गया है।’
पार्वती, ‘तो कल वापस कर आना।’
सुरेन्द्र, ‘पहनोगी क्या?’
पार्वती, ‘दूसरे गहने बनवाऊँगी।’
सुरेन्द्र, ‘और रुपए कहाँ हैं?’
पार्वती, ‘उन गहनों में रुपये नहीं लगेंगे।’
सुरेन्द्र, ‘मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझा।’
पार्वती, ‘ये गहने जी के जंजाल हैं। इनसे मन भर गया। इन्हें बेचकर किसी बैंक में जमा कर दो। हर महीने मुझे उसका ब्याज दे दिया करना।’
सुरेन्द्र ने बात हँसी में उड़ानी चाही लेकिन पार्वती के हावभाव से ऐसा दृढ़ संकल्प प्रकट होता था कि वे उस विषय में गम्भीरता से विचार करने पर विवश हो गए।
दूसरे महीने में शीतला देवी के नाम बारह रुपये का एक गुमनाम मनीऑर्डर पहुँचा। कूपन में लिखा हुआ था, यह तुच्छ धनराशि स्वीकार कीजिए। ईश्वर की इच्छा हुई तो यह धनराशि स्थायी रूप से प्रतिमाह मिलती रहेगी। आप इसे जिस भाँति चाहें खर्च करें। अब से दुआएँ ही मेरा आभूषण होंगी। ये धातु के टुकड़े तो जी के जंजाल हैं, इनसे मेरा मन भर गया है।
mahi-premchand
[बीसवीं सदी के प्रारम्भ में जब मुंशी प्रेमचंद इलाहाबाद के टीचर्स ट्रेनिंग कालेज में प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे थे तब वहाँ उनके सहपाठी बाबू लाल कृष्ण के साथ-साथ उनके समस्त मित्र उन्हें बम्बूक के नाम से पुकारते थे। इस तथ्य का उद्घाटन करने के साथ ही बाबू लाल कृष्ण ने अपने लेख ‘मुंशी प्रेमचंद : एक हमसबक की निगाह में’ (‘जमाना’, प्रेमचंद नम्बर, दिसम्बर 1937) में यह भी स्पष्ट कर दिया था कि प्रेमचंद के साथ इसी नाम से उनका पत्राचार भी होता था। और, इस तथ्य की पुष्टि करते हुए डा. अली अहमद फातमी ने अपने लेख ‘प्रेमचंद और इलाहाबाद’ (‘हमारी जबान’, नई दिल्ली, 8-14अगस्त 2006) में लिखा है कि प्रेमचंद ने बम्बूक के नाम से अपनी कई रचनाएँ भी प्रकाशित कराई थीं। अपने समय के प्रसिद्ध अंग्रेजी पत्रकार और प्रेमचंद के ज्येष्ठ पुत्र श्रीपतराय के अन्तरंग मित्र मदन गोपाल भी 1980 में प्रकाशित अपनी अंग्रेजी पुस्तक - ‘प्रेमचंद : हिज रेलेवैंस टुडे’ में स्पष्ट उल्लेख करते हैं कि प्रेमचंद का एक ‘उपनाम’ बम्बूक था। प्रेमचंद ने मुंशी दयानारायण निगम को सम्बोधित अपने जून 1905 के पत्र में ‘बम्बूक’ शब्द का स्पष्ट उल्लेख भी किया है।
प्रेमचंद के छोटे बेटे अमृतराय ने प्रेमचंद के निकट सम्पर्क के लोगों से प्राप्त व्यक्तिगत जानकारी के आधार पर प्रो. कमर रईस की सहमति से उनकी प्रामाणिक रचना स्वीकार करते हुए ‘बम्बूक’ के लेखकीय नाम से प्रकाशित दो कहानियाँ - ‘शादी की वजह’ (‘जमाना’, मार्च 1926) और ‘ताँगे वाले की बड़’ (‘जमाना’, सितम्बर 1926) ‘गुप्त धन’ (1962) में संकलित करके प्रकाशित करा दी थीं। उल्लेखनीय है कि प्रेमचंद का ही नाम बम्बूक होने के सम्बन्ध में प्रेमचंद के सर्वाधिक आत्मीय मित्र मुंशी दयानारायण निगम ने अक्टूबर 1936 के ‘जमाना’ के अंक में ही स्पष्ट उल्लेख कर दिया था और ‘जमाना प्रेमचंद नम्बर’ (दिसम्बर 1937) में भी स्पष्ट किया था कि उनके कानपुर प्रवास के काल में भी उन्हें ‘बम्बूक’ के नाम से सम्बोधित किया जाता था।
प्रेमचंद के इसी छद्म नाम ‘बम्बूक’ के लेखकीय नामोल्लेख के अन्तर्गत एक कहानी ‘जमाना’ के नवम्बर 1936 के अंक में भी ‘महरी’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी जो किसी भी प्रेमचंद-विशेषज्ञ के संज्ञान में नहीं आ सकी। इस दुर्लभ कहानी में प्रेमचंद जहाँ एक ओर सहज एवं स्वाभाविक हास्य की सृष्टि करने में पूर्णता के साथ सफल रहे हैं, वहीं दूसरी ओर इसके द्वारा स्वावलम्बी होने की प्रबल प्रेरणा भी देते हैं। और, इस दृष्टि से यह प्रेमचंद की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कहानी है।]
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भगवान् भला करे लल्लूजी की माँ का, जिनके बल पर हर प्रकार का आराम है। अन्यथा डाकखाने की नौकरी जहाँ सात-आठ घंटे की हाजिरी और कभी दफ्तर को देर न हो, यह चमत्कार नहीं तो और क्या है? घरबार का सारा काम सदा स्वयं ही समय पर हो जाता, हमारी गाड़ी कभी ‘लेट’ होती ही नहीं। घर की सभी चूलें घड़ी के पुर्जों की भाँति सदा अपनी-अपनी जगह पर ठीक रहती हैं। यह सब लल्लूजी की माँ का जादू है। यदि मुझे किसी छुट्टी के दिन दफ्तर जाना पड़ जाय तो रो पडूँ लेकिन वे बेचारी हैं कि उनको न इतवार से मतलब है, न ही बड़े दिन से। काम है कि प्रतिदिन बढ़ता ही जाता है। मेरा घमण्ड वेतन के साथ-साथ बढ़ता जाता है लेकिन वे उफ तक नहीं करतीं। घर में प्रभु की कृपा से चार बच्चे हैं, उनके ही काम से एक औरत को अवकाश मिलना कठिन है, फिर पता नहीं वे अन्य कामों के लिए किस प्रकार समय निकाल लेती हैं। मेरे व्यक्तिगत सुख के सभी काम वे स्वयं ही करती हैं। जाड़े में सुबह-सुबह गर्म पानी मौजूद, हजामत का सामान अपनी जगह तैयार, पूजा के बर्तन साफ, पालिश किए हुए जूते, अर्थात् कहीं से उँगली रखने का कोई अवसर न मिलता। इस पर मजा यह कि इन बातों में कुछ खर्च नहीं होता। एक जमाना था कि मुझे बीस रुपये मासिक मिलते थे। उस समय देसी जूते और साधारण से चारखाने के कोट पर गुजर होती थी। अब परमात्मा की कृपा से सौ रुपये मासिक मिलते हैं तो पालिशदार जूता और रेशमी कोट से कम नहीं चाहिए। वे बेचारी हैं कि जिस प्रकार पहले रहती थीं, उसी प्रकार आज भी गुजर करती हैं। केवल दूसरे साल एक गहना और कार्तिकी के दिन त्रिवेणी स्नान, बस इसी में प्रसन्न हैं। इधर हम लोग हैं कि प्रत्येक वर्ष वेतन-वृद्धि होती है लेकिन धन्यवाद के स्थान पर सदा उलाहना-उपालम्भ ही मुँह पर रहता है और हर समय पोस्टल एसोसिएशन की पुकार कि वार्षिक वेतन-वृद्धि में बढ़ोतरी और दफ्तर के कार्य का समय कम रखा जाय और कोई भी अधिकारी आँख उठाकर न देख सके। मैं जो दाल-चावल खाता हूँ, वही वे भी खाती हैं। ईश्वर की देन है कि उन्हें सन्तोष रहता है और मुझे असन्तोष और अधीरता।
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मैं पूरा का पूरा वेतन लल्लूजी की माँ के हाथ में ही दे देता हूँ और मुझे वह सुख-सुविधा मिलती है जो तीन सौ रुपये के अफसर को भी नसीब न हो। अतिथि भी प्रसन्न रहते हैं और सभी सम्बन्धी भी सन्तुष्ट हैं। सच पूछिए तो जितना काम वे करती हैं वह सौ रुपये से अधिक का होता है। साहब लोग अपने बच्चों के लिए पन्द्रह-बीस रुपये मासिक पर आया रखते हैं लेकिन उनको वह आराम और प्यार नसीब नहीं होता जो मेरे बच्चों को है। यदि मैं एक बावर्ची रखूँ तो कम से कम दस रुपये मासिक और भोजन देने पर भी इतना अच्छा खाना नहीं बना सकता। इस पर मजा यह कि सदा खर्च में किफायत दृष्टि में रहती है। यदि मैं पन्द्रह रुपये मासिक पर अपने लिए एक बैरा रखूँ तो भी वह इतनी देखभाल और रख-रखाव नहीं कर सकेगा। फिर बच्चों के कपड़ों की सिलाई ही दस-पन्द्रह रुपये मासिक की हो जाती है। झाड़ू-बर्तन की नौकरानी ही दस-पाँच रुपये मासिक ले जाती। अर्थात् चाहे जो हिसाब लगाइए, यदि मेरा लगभग समस्त वेतन भी नौकरों को भेंट कर दिया जाय तो भी इतना आराम नसीब नहीं हो सकता, जितना कि इस भागवान के रहने से उपलब्ध है।
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इसे अंग्रेजी शिक्षा का प्रभाव समझिए या अखबार पढ़ने अथवा बड़े-बड़े नेताओं के भाषणों का परिणाम, प्रायः मेरे मन में आता है कि अपने जीवन-साथी से इतनी मेहनत कराना भारी अत्याचार है और वास्तव में एक औरत का इस सीमा तक काम करना अन्याय है, लेकिन वह बेचारी अपने मुँह से कुछ नहीं कहती। सम्भवतः उनके मन में कभी विचार ही नहीं आता है। मेरे मन में कभी-कभी उफान सा उठता है कि एक महरी या नौकरानी रख दूँ तो शायद उन्हें कुछ आराम मिले। वास्तव में बहुत स्वार्थीपन की बात है कि मैं तो बाबू बना हुआ हर प्रकार का आराम उठाऊँ और घर की देवीनौकरानी की भाँति दिन-भर काम ही करती रहे। लेकिन जब कभी देवीजी से इसकी चर्चा होती है तो वे सदा हँसकर टाल देती हैं -
"क्यों बेकार में खर्च बढ़ाओगे? मैं कुछ पढ़ी-लिखी तो हूँ नहीं जो दिन-भर पलंग पर लेटी रहूँ, या सुबह-शाम पार्क की सैर को जाऊँ। जिस तरह काम चलता है, चलने दो।" यदि मैं दबाव देता हूँ तो वे कहने लगती हैं - "मैं तो मना नहीं करती, महरी रख लो।"
मेरे समय से पहले तो सदा एक नौकरानी घर में रही, मुझे वही समय याद आता है। बुढ़िया नौली के बाद घर में कोई नौकरानी नहीं रही। भगवान् भला करे, उसकी कमर झुक गई थी लेकिन मरते दम तक अकेली ही सारा काम करती रही। सदा सेवा ही की, स्वयं कभी बीमारी तक में भी कोई सेवा न ली। उस पर मजा यह कि केवल एक रुपया वेतन और खाने पर, और वह उम्र भर का वेतन भी मरने पर घर में ही छोड़ मरी। माँ से अधिक सेवा करने वाली, दुःख-दर्द बाँटने वाली! अब ऐसे नौकर कहाँ मिलते हैं। क्या समय था, अत्यल्प वेतनों पर भी लोग सम्पन्न थे। इसके प्रतिकूल आजकल वह समय है कि आय और व्यय, दोनों में वृद्धि, उस पर भी हर समय असन्तोष। पहले प्रत्येक वस्तु सस्ती थी। लट्ठा और उत्तम मलमल चार आने गज, अच्छी मिठाई पाँच-छह आने सेर। अब खर्च दोगुना हो गया है मगर वह बात ढूँढ़े नहीं मिलती। भगवान् करे वह समय एक बार तो पुनः आ जाय, चाहे थोड़े ही समय के लिए हो लेकिन एक बार तो ‘टके सेर भाजी और टके सेर खा जा’ बिक जाय।
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अब मैंने किसी आवश्यकता के कारण नहीं और न किसी के कहने पर बल्कि अपनी इच्छा से, फैशन की दृष्टि से एक महरी रखने का संकल्प कर लिया, लेकिन यह संकल्प रास नहीं आया। हर बार नयी मुसीबतों से दो-चार होना पड़ा और आराम तो एक ओर, चिन्ता ही चिन्ता रही। प्रतिदिन बर्तनों और कपड़ों का गुम होना आरम्भ हुआ। खर्चे अत्यधिक बढ़ गए। यदि पहले दस-पन्द्रह रुपये के घी में काम चल जाता था तो अब पच्चीस का लगने लगा। नौकरानी है कि हर समय अपने पिछले स्वामी की बड़ाई का गीत गाती रहती है, "वहाँ यह होता था वह होता था, इस प्रकार घी पतनालों में बहाया जाता था, दूध से बर्तन धुलते थे, यह मिलता था वह मिलता था।"
अर्थात् आराम कम और खर्च अधिक हो गया, हर समय की बकझक ऊपर से।
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पहली नौकरानी जो मिली उसकी अवस्था बीस-बाईस वर्ष की रही होगी। आप उसे रूपसी नहीं कह सकते हैं लेकिन शिष्ट अवश्य थी और उसकी आँखों में एक प्रकार की चमक भी थी। यद्यपि कोई विशेष बात नहीं हुई लेकिन देवीजी को शिकायत ही रही। वह कहतीं कि मैं अब दफ्तर देर से जाता और शीघ्र लौट आता हूँ। लेकिन मैं पूरे समय तक दफ्तर में ही रहता। डाकखाने की नौकरी में देरी और जल्दी कैसी। दूसरी शिकायत यह हुई कि मैं जमना (नौकरानी का नाम) की ओर बहुत देखता हूँ, हर समय उसी से बातें करता रहता हूँ, लेकिन मुझे कोई असामान्य बात नहीं लगी। लेकिन जब शिकायत बढ़ते-बढ़ते कष्ट और शोक तक जा पहुँची तो मैंने अन्ततः उसे नौकरी से निकाल दिया। इसके पश्चात् मैंने ढूँढ़कर एक बुढ़िया रखी ताकि घर में किसी प्रकार का सन्देह उत्पन्न न हो और आवश्यकता भी पूरी हो जाय, लेकिन यह प्रयोग भी असफल रहा। बुढ़िया से न तो पानी से भरा कोई बर्तन ही उठता है, न पलंग ही उठा सकती है। वह तो हड्डियों और खाल का एक थैला-भर थी और सच पूछिए तो उसे स्वयं ही एक सेवक की आवश्यकता थी। बहरहाल लल्लूजी की माँ को उससे कोई आराम नहीं मिला। उन्हें पहले जितना काम करना पड़ता था, अब भी उतना ही करना पड़ता था। लेकिन बीच में मैं बेवकूफ बना। संक्षेप में यह कि अन्ततः उसे भी नौकरी से निकाल दिया और अब एक मध्यम आयु वाली की खोज आरम्भ हुई। सर्विस सीकिंग एजेन्सी के माध्यम से एक चालीस वर्षीया नौकरानी की खोज हुई। उससे पहले अनेक सेविकाएँ आईं और चली गईं। कोई काम का विवरण पूछती और काम बताया जाता तो यह कहती हुई उलटे पाँवों चली जाती कि काम तो दो नौकरों का है और वेतन एक का भी नहीं। इस पर जब दूसरी महरी आई तो मैंने कहा कि काम तो कुछ नहीं है, केवल पलंग बिछाकर पड़े रहना होगा। वह भी चली गई। विचित्र दशा है। यदि काम लेता हूँ तो नौकर नहीं रहता। यदि कहता हूँ कि कोई काम नहीं तो भी कोई परिणाम नहीं निकलता। खैर, हफ्ते-पखवाड़े की खोज के पश्चात् एक और मिली कि जिस पर न किसी प्रकार के सन्देह हो सकते थे और जो कामचोर भी नहीं थी। हर प्रकार से, अपनी बुद्धि से भली प्रकार सोच-विचार कर उसे नौकर रखा।
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थोड़े समय में पता चला कि यह औरत जब चाहती अच्छा काम करती और जब न चाहती तो कुछ न करती। ऊपर से यह कि जब जी में आता धृष्टता का व्यवहार करती। एक दिन की घटना सुनिए - देवीजी ने थाली में मिट्टी और मिट्टी में पंजे का निशान देखा तो उससे पूछा, "चम्पा, यह थाली तो बहुत मैली है।" चम्पा बोली, "ये तो साफ पंजे और उँगलियों के निशान हैं। मैं ही क्या, सभी देख सकते हैं। मगर ये मेरी नहीं हैं, हुमा (यह मेरी बड़ी लड़की का नाम है) की होंगी। लड़के तो इस घर में मिट्टी से खेला ही करते हैं।"
देवी, "अरी चम्पा, क्यों इतना झूठ बोलती है। लड़की के इतनी बड़ी उँगलियाँ कहाँ। बेकार बातें बनाती है और बच्चों को बदनाम करती है।"
चम्पा, "मैं तो बात बनाती हूँ मगर झूठ तो तुम ही बोला करती हो।"
देवी, "जबान संभालकर बात कर। यह महीना पूरा हो ले तो हम तुझे बर्खास्त कर देंगे।"
चम्पा, "तुम क्या बर्खास्त करोगी, मैं खुद ही थोड़े दिनों में नौकरी छोड़ने वाली हूँ। केवल अपना सुभीता देख रही थी। मेरा आदमी हैरान है कि मैं इतने दिनों यहाँ कैसे रही। वे तो शुरू से ही इस घर के खिलाफ थे। यहाँ किसी नौकर का गुजारा हो ही नहीं सकता। सब चीजों पर ताले और मुहरें लगी हैं। सूखी तनख्वाह ही तनख्वाह है। यह बात तो साफ है कि यहाँ कभी कोई नौकर नहीं रहा है।"
जब मैं शाम को दफ्तर से आया तो मुझे यह बात पता चली। मैंने यह कहकर टाल दिया कि तुमको नौकर नहीं रखना है तो निकाल दो। जो मैंने लल्लूजी की माँ के साथ किया, उस अन्याय पर मुझे बाद में बहुत पश्चात्ताप हुआ। खैर, उस समय तो यह बात आई गई हो गई और मैंने चम्पा को समझा दिया। और फिर कुछ दिनों तक काम चलता रहा।
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एक दिन की बात सुनिये। देवीजी ने दस बार चम्पा-चम्पा पुकारा। वह नीचे थी लेकिन बोली नहीं। चम्पा सुनती है लेकिन बोलती नहीं। तब देवीजी नीचे आईं और उससे कहा, "तुझे पचास आवाजें दीं, तूने जवाब न दिया।"
चम्पा, "अरे बीबी! रहने दो, क्यों झूठ बोलती हो। तुमने दस बार ही तो पुकारा और पचास बार कहती हो। तुमने ही तो कहा था कि महीना बन्द हो जाय तो हम निकाल देंगे, और आज पहली तारीख है। अब मैं क्यों बोलूँ।"
देवीजी गुस्से से आग होकर चली आईं। चम्पा उत्तर देने में बिजली, बेचारी पर्दे में रहने वाली देवीजी चुप होकर मेरे कारण गुस्सा पी जाती और मुझसे कुछ न कहतीं। मेरा कमरा भली प्रकार साफ न होता और यदि वे कुछ कहतीं तो वह कहती कि कौन बड़ा साफ कमरा है। एक दिन चम्पा ने चीनी मिट्टी के गुलदान तोड़ डाले। देवीजी ने पूछा तो कहा, "लड़कों ने तोड़े हैं।"
देवीजी, "लड़के इनको कभी नहीं छूते।"
चम्पा, "तो साहब मैंने ही तोड़े। मुझे कब कहा था कि गुलदान न तोड़ें। शीशे के बर्तनों को कहा था, सो आज तक एक भी नहीं टूटा है। जो काम करेगा उससे टूट-फूट भी होगी। गुलदान पुराने तो थे। आपको नौकर नहीं रखना है, बेकार झूठे आरोप लगाती हैं।"
जब शाम को मैं पहुँचा तो कहा, "हाँ सरकार, खता हो गई। साफ करने पर एक दूसरे पर गिर गया और टूट गए।"
मैं यथासम्भव प्रसन्न रहने का प्रयत्न करता हूँ। क्या करूँ, दिन-भर दफ्तर की हाय-हाय, शाम से घर की परेशानियाँ। एक दिन मैंने कहा कि, "चम्पा, मेरे जूते में एक कील निकल आई है, उसको किसी चीज से ठोक दे।"
वह चुप रही। शायद मन में यह सोचती रही होगी कि जिस समय नौकर रखा था उस समय यह नहीं कहा था कि यह काम भी उसी के जिम्मे होगा। शायद इसी विचार से उसने उसमें हाथ तक नहीं लगाया। मुझे सुबह को कील वैसी ही मिली तो मैंने उससे पूछा कि तूने कल शाम को जो कील दबाई थी वह रात में फिर निकल आई। तो वह उत्तर देती है, "बाबू, जूते पुराने हैं, कहाँ तक चलें। इनको बदल डालो और अच्छे दाम के जूते ले लो कि कुछ चलें।"
इस भाँति जब मेरा नाक में दम आ गया तो मैंने उसे निकाल दिया और फिर कोई महरी न रखी। इस प्रकार खोया हुआ चैन आप ही आप मिल गया। सच है, अब नौकरों का समय नहीं रहा, प्रत्येक व्यक्ति स्वयं अपना सर्वश्रेष्ठ नौकर है।
वफा की देवी
wafa-premchand
[प्रेमचंद का एक उर्दू कहानी-संकलन ‘निजात’ शीर्षक से सन् 1933 में लाहौर से तीर्थराम हरबंसलाल ने प्रकाशित किया था। इसके सम्बन्ध में डा. कमल किशोर गोयनका निम्नांकित सूचना उपलब्ध कराते हैं -
"निजात’ - उर्दू कहानी-संकलन/प्रकाशक - तीरथराम हरबंसलाल, अनारकली, लाहौर, प्रथम संस्करण 1933/संग्रह की कहानियाँ मार्च 1934 में ‘आखिरी तोहफा’ शीर्षक से भी प्रकाशित हुईं। उपेन्द्रनाथ अश्क के लेख ‘प्रेमचंद के पत्र’ (‘हंस’, दिसम्बर 1948) के अनुसार तीरथराम हरबंसलाल ने प्रेमचंद से 250 रु. में ‘निजात’ का कापीराइट लिया था। लेकिन पुस्तक प्रकाशन के साथ ही उसकी दुकान बन्द हो गई। प्रेमचंद ने फिर 50 रु. लेकर इसका कापीराइट नारायणदत्त सहगल, लाहौर को दे दिया जिसने ‘आखिरी तोहफा’ नाम से इसकी कहानियों को मार्च 1934 में प्रकाशित किया। ... ‘निजात’ का विज्ञापन ‘नैरंगे खयाल’, जून-जुलाई 1936, पर प्राप्त होता है1
डा. गोयनका की सूचना परोक्ष प्रमाण पर आधारित होने के कारण प्रामाणिक नहीं मानी जा सकती। फिर जिस पुस्तक का प्रथम संस्करण 1933 में प्रकाशित हुआ हो, उसका विज्ञापन 1936 में प्रकाशित होना कुछ तर्कसंगत नहीं जान पड़ता। इतना अवश्य है कि इस कहानी-संकलन ‘निजात’ का नामोल्लेख डा. कमर रईस, मदन गोपाल प्रभृति विद्वानों ने किया अवश्य परन्तु पुस्तक की अनुपलब्धता के कारण इसका विस्तृत विवरण प्रस्तुत नहीं किया जा सका। प्रेमचंद के इस अलभ्य कहानी-संकलन की प्रति खोजकर इसका सम्पूर्ण प्रामाणिक विवरण इन पंक्तियों के लेखक ने ही पहली बार साहित्य-संसार के समक्ष प्रस्तुत किया था जिससे इस सूचना की प्रामाणिक रूप से पुष्टि हो जाती है कि ‘आखिरी तोहफा’ नामक संकलन में प्रकाशित कहानियाँ वही हैं, जो इससे पूर्व प्रकाशित ‘निजात’ में सम्मिलित होकर प्रकाशित हुई थीं। ध्यातव्य है कि ‘निजात’ तो फिर कभी प्रकाशित नहीं हुआ और ‘आखिरी तोहफा’ शीर्षक संकलन ही व्यापक रूप से चर्चित और प्रचलित रहा।
इस संकलन में सम्मिलित एक कहानी है ‘वफा की देवी’। डा. कमल किशोर गोयनका इस कहानी को ‘अप्राप्य’ घोषित करते हुए लिखते हैं -
"वफा की देवी’, उर्दू से, ‘आखिरी तोहफा’ 1934 उर्दू कहानी-संग्रह में संकलित।2
1. प्रेमचंद विश्वकोश, भाग-2, 
2. प्रेमचंद की अप्राप्य कहानियाँ, 
ध्यातव्य है कि उर्दू कहानी-संकलन ‘आखिरी तोहफा’ की उपलब्धता निरन्तर बनी हुई है। इसका सन् 2000 में प्रकाशित एक संस्करण हमारे संग्रह में उपलब्ध है जिसमें यह कहानी पृष्ठ संख्या 169 से 204 तक प्रकाशित है। यह कहानी ‘कुल्लियाते प्रेमचंद’ के भाग 14 में पृष्ठ संख्या 225 से 249 तक भी प्रकाशित हुई है। यही नहीं, इसी कहानी-संकलन में सम्मिलित एक कहानी ‘बारात’ को तो डा. गोयनका ने ‘प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य’, भाग-1 तथा ‘प्रेमचंद की अप्राप्य कहानियाँ’ में प्रकाशित करा दिया है, फिर क्या कारण है कि इसी संकलन में सम्मिलित कहानी ‘वफा की देवी’ को प्रकाशित कराने में उन्हें सफलता न मिल सकी?
जो कहानी अधुनातन संकलनों में प्रकाशित होकर उपलब्ध है, उसे ‘अप्राप्य’ घोषित करने में क्या ‘विशेषज्ञता’ है, कुछ कह पाना सम्भव नहीं है। हाँ, इतना अवश्य है कि जो महानुभाव उर्दू भाषा एवं लिपि से नितान्त अपरिचित हैं, उनके लिये तो यह कहानी आकाश-कुसुम के समान ‘अप्राप्य’ ही है।]
माघ का महीना, सुबह का समय, हरिद्वार में गंगा का किनारा, स्नान का मेला, सामने की पहाड़ियाँ सुबह की सुनहरी किरणों में नहाई खड़ी हैं। यात्रियों की इतनी भीड़ है कि कंधे से कंधा छिलता है। जगह-जगह साधु-संन्यासियों और कीर्तनियों की टोलियाँ बैठी हुई हैं। इस समय सांगली के कुँअर साहब और उनकी रानी स्नान करने आए हैं। उनके साथ उनकी छह वर्ष की लड़की भी है। कुँअर साहब के सिर पर जयपुरी पगड़ी, नीची अचकन, अमृतसरी जूते, बड़ी-बड़ी मूछें, गठीला शरीर। रानी का रंग गेहुँआ, शरीर नाजुक, गहनों से सजी हुई। लड़की भी गहने पहने हुए है। कई सिपाही, प्यादे उनके साथ भाला-बल्लम लिए, वर्दियाँ पहने चले आ रहे हैं। कई सेवक भी हैं।
ये लोग भीड़़ को हटाते, नदी-किनारे पहुँचकर स्नान करते हैं। चार आदमी रानी के स्नान के लिए परदा करते हैं। लड़की पानी से खेल रही है, राजा साहब पंडितों को दान दे रहे हैं और लड़की पानी पर अपनी नाव तैरा रही है। अचानक नाव एक रेले में बह जाती है, लड़की उसे पकड़ने के लिए लपकती है। उसी समय भीड़ का ऐसा रेला आता है कि लड़की माँ-बाप से अलग हो जाती है। कभी इधर भा गती कभी उधर, बार-बार अपनी माँ को देखने का भ्रम होता है। फिर वह रोने लगती है, डर के मारे किसी से कुछ बोलती भी नहीं, न रास्ता ही पूछती है। बस खड़ी फूट-फूटकर रो रही है और अपनी माँ को पुकारती है। अचानक एक रास्ता देखकर उसे धर्मशाला के मार्ग का भ्रम होता है। वह उसी पर हो लेती है, लेकिन वह रास्ता उसे धर्मशाला से दूर ले जाता है।
इधर लड़की को न पाकर कुँअर साहब और उनकी रानी इधर-उधर खोजने लगते हैं और बौखलाकर अपने नौकरों पर बिगड़ते हैं। नौकर लड़की की तलाश में चले जाते हैं। एक छोटी लड़की को देखकर रानी सहसा उसकी ओर दौड़ पड़ती है, लेकिन जब अपनी गलती पता चलती है तो आँखों पर हाथ रखकर रोने लगती है। कुँअर साहब गुस्से से आग बबूला हो रहे हैं, मगर तलाश करने कहीं नहीं जाते। अभी उनका साफा ठीक नहीं हुआ, अचकन भी नहीं सजी, बाल भी सँवारे नहीं जा सके। अब वहाँ नौकर तो रहे नहीं, वे पंडितों पर बिगड़ते हैं और अन्ततः नखशिख से सज- धजकर, कमर में तलवार लगाकर लड़की की तलाश में निकलते हैं। इसी मध्य गंगा के किनारे आकर रानी मन्नत माँगती है। भीड़ के मारे एक कदम चलना मुश्किल है। भीड़ बढ़ती जाती है। बेचारे हतभागे माँ-बाप धक्कम-धक्के में कभी दो पग आगे बढ़ते हैं तो कभी दो पग पीछे हो जाते हैं।
इधर रोती हुई लड़की अपनी धर्मशाला को पहचानने की कोशिश में और दूर चली जा रही है।
सहसा कुँअर साहब के मन में आता है कि शायद लड़की धर्मशाला में पहुँच गई हो और उसे नौकरों ने पा लिया हो। फौरन भीड़ को हटाते हुए दोनों धर्मशाला की ओर चल देते हैं मगर वहाँ पहुँचकर देखते हैं कि लड़की का कुछ पता नहीं। घबराकर दोनों फिर निकल पड़ते हैं। आश्चर्य यह है कि आगे-आगे लड़की रोती चली जा रही है और पीछे-पीछे माँ बाप उसकी तलाश में जा रहे हैं, बीच में केवल बीस गज की दूरी है मगर दोनों का आमना-सामना नहीं होता। यहाँ तक कि घंटों बीत जाते हैं। बादल घिर आते हैं। रानी थक जाती है, उससे एक कदम भी चला नहीं जाता। वह सड़क के किनारे बैठ जाती है और रोने लगती है। कुँवर साहब लाल-लाल आँखें निकाले, बेसुध हुए सारी दुनिया पर झल्लाए हुए हैं।
निराश होकर राजकुमारी फिर हरिद्वार घाट की ओर चलती है और माँ-बाप के सामने से निकल जाती है, लेकिन दोनों की दृष्टि दूसरी ओर है, आँखें चार नहीं होतीं।
इतने में कंधे पर मृगछाला डाले, हाथ में तम्बूरा लिए एक जटाधारी महात्मा चले आ रहे हैं। राजकुमारी को घबराया देखकर वे समझ जाते हैं कि यह अपने घरवालों से बिछुड़ गई है। वे उसे गोद में उठा लेते हैं और उससे उसके घर का पता पूछते हैं। लड़की न तो अपने माता-पिता का नाम बता सकती है न अपने घर का पता, वह बस रोए जाती है। डर के कारण उसका मुँह ही नहीं खुलता।
अब साधु के मन में एक नई इच्छा उत्पन्न होती है। लड़की को गोद में लिए वे सोच रहे हैं कि मुझे क्या करना चाहिए? उनका मन कहता है - जब इसके माँ-बाप का पता ही नहीं तो मैं क्या कर सकता हूँ? उनका मन लड़की को छिपा रखने के लिए प्रेरित करता है। वे राजकुमारी को लिए अपनी कुटिया की ओर चले जाते हैं। उनकी लड़की और पत्नी दोनों मर चुके हैं और इसी शोक में वे संसार से विरक्त हो गए हैं। इस चाँद सी लड़की को पाकर उनके हृदय में पितृ-प्रेम पुनः जाग्रत हो उठता है। वे समझते हैं कि परमात्मा ने उन पर दया करके उनके जीवन-दीप को जगमगाने के लिए इसे भेजा है।
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पथरीली जगह पर एक साफ सुथरी, बेलों और फूलों से सुसज्जित कुटिया है। पीछे की ओर बहुत नीचे एक नदी बह रही है। कुटिया के सामने छोटा-सा मैदान है। दो हिरन और दो मोर मैदान में घूम रहे हैं। वही महात्मा कुटिया के सामने एक चट्टान पर बैठे तम्बूरे पर गा रहे हैं। राजकुमारी भी उनके सुर में सुर मिलाकर गा रही है। उसकी उम्र अब दस साल की हो गई है। भजन गा चुकने पर लड़की कुटिया में जाकर ठाकुरजी को स्नान कराती है।
साधु भी आ जाते हैं और दोनों ठाकुरजी की स्तुति करते हैं। फिर वे मस्ती में आकर नाचने लगते हैं। थोड़ी देर बाद लड़की भी नाचने लगती है। कीर्तन समाप्त हो जाने के पश्चात् दोनों चरणामृत लेते हैं और साधु राजकुमारी को (जिसका नाम इंदिरा रखा गया है) पढ़ाने लगते हैं। उसे गाना, बजाना, नाचना सिखाने में उन्हें आत्मिक आनन्द प्राप्त होता है। उनकी इच्छा है कि इंदिरा ईश्वर-भजन और जगत्-सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दे। वे उस शुभ घड़ी का स्वप्न देख रहे हैं जब इंदिरा ठाकुरजी के सामने मीरा की भाँति गायेगी और मस्ती में आकर नाचेगी। इंदिरा इतनी रूपवती, इतनी मृदुभाषिणी और नृत्य में इतनी पारंगत है कि जब वह रात में कीर्तन करने लगती है तो भक्तों की भीड़ लग जाती है।
महात्माजी ने ये पाँच बरस इसी कुटिया में बिताए हैं। इंदिरा यात्रा के कष्ट सहन करने के योग्य हो गई है इसलिए अब साधु तीर्थयात्रा करने के लिए निकलते हैं। भक्तजन उन्हें बिदा करने के लिए आते हैं। एक भक्त को कुटिया सौंपकर महात्मा इंदिरा के साथ तीर्थयात्रा के लिए चल देते हैं।
बरसों तक महात्माजी तीर्थस्थानों की यात्रा करते रहते हैं। कभी बदरीनाथ जाते हैं कभी केदारनाथ, कभी द्वारका कभी रामेश्वरम, कभी मथुरा कभी काशी, कभी पुरी। दोनों प्रत्येक स्थान पर मंदिरों में कीर्तन करते हैं और भक्तों को आध्यात्मिक आनन्द से सराबोर कर देते हैं। अब महात्माजी इंदिरा को शास्त्रों और वेदों का भी सदुपदेश देते हैं। जब महात्माजी ध्यानमग्न हो जाते हैं तो इंदिरा प्रायः वेदों का अध्ययन करती है।
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एक दिन महात्माजी और इंदिरा दोनों एक गाँव में जा पहुँचते हैं। यह गाँव मुसलमानों का है। एक हफ्ते से प्लेग फैला हुआ है। लोग गाँव के बाहर झोंपड़ियाँ डाले पड़े हैं। महात्माजी एक वृक्ष के नीचे आसन जमाते हैं और प्लेगग्रस्त लोगों का उपचार करते हैं। इंदिरा भी महिलाओं की सेवा में व्यस्त हो जाती है। जड़ी-बूटियाँ खोजना, दवाएँ बनाना, मरीजों को उठाना-बैठाना, उनके बच्चों के लिए खाने-पीने की व्यवस्था करना उन दोनों का नित्य कर्म है। यहाँ तक कि महात्माजी को प्लेग हो जाता है और वे उसी वृक्ष के नीचे पड़ जाते हैं। गाँव के सभी स्त्री-पुरुष और आसपास के देहात के लोग महात्माजी की सेवा-शुश्रूषा के लिए आते हैं लेकिन महात्माजी की दशा बिगड़ती जाती है और एक दिन वे इंदिरा को बुलाकर ईश्वर- भजन और जनसाधारण की सेवा का उपदेश देकर ठाकुरजी के चरणों का ध्यान करते हुए समाधि ले लेते हैं। गाँव में कोहराम मच जाता है। महात्माजी की अर्थी धूमधाम और गाजे-बाजे के साथ निकलती है। एक भजन मंडली भी साथ है। गाँव की परिक्रमा करने के पश्चात् उसी वृक्ष की छाया में उनकी छतरी बनती है।
इस समय इंदिरा की आयु बीस-इक्कीस वर्ष है और उसके चेहरे पर ऐसा तेज है कि देखने वालों की आँखें झुक जाती हैं। उसका भरा-पूरा शरीर हर प्रकार का कष्ट सहन करने का अभ्यस्त हो गया है। गाँव के लोगों की इच्छा है कि वह उसी गाँव में रहे मगर अब उससे अपने उपकारी का बिछोह सहन नहीं होता। जिस गाँव में उस पर यह कष्ट आन पड़ा उसमें वह अब नहीं रह सकती। वह हृदय को इस बात से सांत्वना देना चाहती है कि जो ईश्वरेच्छा थी वही हुआ, लेकिन उसे किसी प्रकार सन्तोष नहीं होता। अन्ततः एक दिन वह सबसे बिदा लेकर निकल पड़ती है। उसकी कमर में कटार छिपी है, हाथ में तम्बूरा और कमंडल तथा कंधे पर मृगछाला है।
वह गाँव-गाँव और नगर-नगर में ईश्वर के भजन सुनाती और जनता के हृदय में भक्ति के दीप जलाती घूमती है। वह जिस नगर में जा पहुँचती है, वहाँ बात की बात में हजारों आदमी आ जाते हैं। उसकी सवारी के लिए सर्वोत्तम साधन प्रस्तुत किए जाते हैं लेकिन वह प्रदर्शन और बनावट को तुच्छ समझती हुई किसी मंदिर के सामने वृक्ष की छाया में ठहरती है। उसकी आँखों की निश्छल अदाओं में वह आकर्षण है कि लोग उसके मुँह से एक-एक शब्द सुनने के लिये व्याकुल रहते हैं। उसके दर्शन करते ही बड़े-बड़े ऐयाश और मनचले उसके समक्ष श्रद्धा से सिर झुका देते हैं। इंदिरा को सूफी कवियों की कविताएँ बहुत पसन्द हैं। वह मीरा, कबीर आदि के दोहों को अत्यन्त रुचि से पढ़ती और उन्हीं के भजन गाती है। तुलसी और सूरदास के पदों से भी उसे प्रेम है। समकालीन कवियों में से जिसकी कविताएँ उसे सर्वाधिक प्रिय हैं, वह हरिहर नाम का एक कवि है। वह उसके गीतों को पढ़कर मतवाली हो जाती है। उसके हृदय में उसका विशेष सम्मान है। वह चाहती है कि कहीं हरिहर से भेंट हो जाती तो वह उसके चरणों को चूम लेती।
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जरवल रियासत का प्रमुख नगर, पथरीला क्षेत्र, साफ सुथरी सड़कें, साफ सुथरे आदमी, वैभवशाली महल, एक अत्यन्त सुन्दर चौक, चारों ओर प्रकाश में नहाई हुई दुकानें, बीच में एक पार्क, पार्क में फव्वारा; उसी फव्वारे के सामने खड़ी इंदिरा तम्बूरे पर भजन गा रही है। हजारों लोग तल्लीन खड़े हैं। जाती हुई मोटर कारें रुक जाती हैं और उन पर से उतर-उतरकर रईस लोग गाना सुनने लगते हैं। खोमचे वाले रुक जाते हैं और खोमचा लिए भजन सुनने लगते हैं। इंदिरा अपने प्रिय कवि हरिहर का एक अध्यात्म में डूबा हुआ पद गा रही है। उसकी रसीली धुन सबको मस्त कर रही है।
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कई बरस हुए हरिहर एक मालदार रईस था, काव्य-रसिक, दार्शनिक चिन्तन में डूबा हुआ और आध्यात्मिकता में रंगा हुआ। अपने शानदार महल को छोड़कर एक झोंपड़ी में बैठा अध्यात्म और दर्शन की भावनाओं को कविता और गीतों के आकर्षक रूप में अभिव्यक्त किया करता था। अध्यात्म की वास्तविकताएँ उसके मनोमस्तिष्क में जाकर काव्यात्मक चमक-दमक से सुसज्जित हो जाती थीं। बैठे-बैठे पूरी रात बीत गई है और वह अपने विचारों में मस्त है। खाने-पीने, कपड़े-लत्ते की चिन्ता नहीं। उसकी दृष्टि में जगत् स्वप्न है, केवल इच्छाओं की मृगतृष्णा। उसकी दृष्टि में इसकी कोई वस्तु ऐसी नहीं कि मानव उसमें मन लगाए। वह अपनी सम्पत्ति की कोई परवाह नहीं करता, कामकाज पर लेशमात्र भी ध्यान नहीं देता। व्यापारी लोग बार-बार उससे मिलने आते हैं लेकिन वह अपने आनन्दकानन से बाहर नहीं निकलता। हाँ, यदि कोई फटेहाल आ जाता है तो तत्काल आकर उसे अतिथिशाला में ले जाता है। उसका समस्त वैभव गरीबों के लिए न्यस्त है, कभी गरीबों को कम्बल बाँटता है कभी अनाज। कोई भूखा भिखारी उसके द्वार से निराश नहीं लौटता। परिणाम यह होता है कि वह कर्ज में डूब जाता है। कर्ज देने वाले नालिश करते हैं, उस पर डिग्री होती है। हरिहर अपना एकान्त छोड़कर कभी मुकदमे की पैरवी करने नहीं जाता। उसकी सम्पत्ति कुड़क हो रही थी और वह अपनी झोंपड़ी में बैठा सितार पर वह पद गा रहा था जो उसने अभी-अभी लिखा था। बनाव-सजाव की वस्तुएँ उसके महल से निकालकर नीलाम कर दी जाती हैं, उसे तनिक भी दुःख नहीं। तब उसका महल नीलाम कर दिया जाता है और वह इसी प्रकार निस्पृह बना रहता है। एक बहुत बड़ा रईस आकर इस महल पर अधिकार जमा लेता है। हरिहर के पास अब भी विस्तृत इलाका है। वह चाहे तो फिर भव्य महल बनवा सकता है, मगर उसे सम्पत्ति से प्यार नहीं। वह हरेक गाँव में घूम-घूमकर अपनी आसामियों को जमींदारी के अधिकार प्रदान कर देता है, यहाँ तक कि उसके सभी एक सौ एक गाँव स्वतन्त्र हो जाते हैं। वह जिस गाँव में जा पहुँचता है, लोग उसका स्वागत करने दौड़ते हैं और उसके चरणों की धूल मस्तक पर लगाते हैं। उसके लिए हर प्रकार की सुविधाएँ प्रस्तुत की जाती हैं लेकिन वह गाँव के बाहर किसी वृक्ष की छाया में टिक जाता है और जंगली फल खाकर सो रहता है। अन्ततः सम्पत्ति की चिन्ता से मुक्त होकर वह फिर सन्तोष के साथ अपने आनन्दकानन में आ बैठता है। आज उसके हर्ष की कोई सीमा नहीं है। उसकी कुटिया में अब भी कितनी ही फालतू चीजें हैं जिन्हें उसकी सौन्दर्यप्रियता ने एकत्र कर रखा है। चित्रकला और कारीगरी के इन अजूबों को इकट्ठा करके वह एक ढेर लगा देता है और उसमें आग लगा देता है। उसका सितार और तम्बूरा और डफ, मूर्तियाँ, मृगछालाएँ, अध्यात्म और दर्शन की किताबें, सब उस ढेर में जलकर राख हो जाती हैं और वह मुस्कराता खड़ा उन वस्तुओं को राख होते हुए देखता है।
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शाम हो गई है। शहर के चौक में इंदिरा अपने तम्बूरे पर एक पद गा रही है। हजारों आदमी इकट्ठा हैं। बड़े-बड़े रईस और अमीर तल्लीन खड़े हैं। वह लुभावना गीत सुनकर हरिहर चौंक जाता है और कान लगाकर सुनता है और तब लपककर भीड़ में पीछे खड़ा हो जाता है। इंदिरा पद गा रही है जिसकी एक-एक तान उसके हृदय पर चोट करती है। आज हरिहर को अपनी रचनाओं के गाम्भीर्य, दर्द और प्रभाव का आभास होता है। वह आश्चर्य की मूर्ति बना खड़ा रहता है। यहाँ तक कि गाना समाप्त हो जाता है, लोग विदा हो जाते हैं और इंदिरा भी वहाँ से चली जाती है, मगर अभी तक हरिहर वहीं विचारों में डूबा हुआ बिना हिले-डुले मूरत बना खड़ा है। जब बिल्कुल सन्नाटा छा जाता है तो उसे अपने आसपास की चुप्पी का आभास होता है। वह एक-दो आदमियों से इंदिरा का पता पूछना चाहता है, मगर झिझक के कारण नहीं पूछता। वह विवश होकर अपनी कुटिया में लौट जाता है और प्रेम का पहला गीत लिखता है। वह व्याकुलता की दशा में पूरी रात काटता है और दूसरे दिन संध्याकाल फिर चौक की ओर जाता है। इंदिरा आज भी चौक में गा रही है, भीड़ कल से भी कहीं अधिक है मगर क्या मजाल कोई हिल भी सके। हरिहर भी बुत बना हुआ सुनता है और जब आधे घंटे के बाद इंदिरा चल देती है तो वह उसके पीछे हो लेता है। भक्तों की अजगर जैसी लम्बी पंक्ति साथ में है। इंदिरा कुटिया के पास पहुँचकर सब लोगों को विदा कर देती है, केवल हरिहर उससे कुछ दूरी पर चला आ रहा है। अपनी कुटिया में पहुँचकर इंदिरा पानी भर लाती है और तब ठाकुरजी को भोग लगाकर स्वयं भी खाती है। फिर धरती पर पड़ रहती है।
धवल चाँदनी छिटकी हुई है। कुटिया के सामने धरती पर बैठकर हरिहर पत्थर के टुकड़ों पर कोयले से प्यार का एक नया गीत लिखने लगता है। लिखते-लिखते पूरी रात बीत जाती है। जब पूर्व में सूर्योदय की लालिमा प्रकट होती है तो वह पत्थर के टुकड़ों को कुटिया के द्वार पर क्रम से रखकर वहाँ से कुछ दूर जाकर एक वृक्ष के नीचे लेट जाता है। पत्थर के टुकड़े इस प्रकार रखे गए हैं कि इंदिरा को उसका प्रेम-संदेश पढ़ने में लेशमात्र भी कठिनाई न हो।
संध्या-पूजन और कीर्तन के पश्चात् जब इंदिरा मुँह अंधेरे बाहर निकलती है तो उसे द्वार पर क्रम से रखे हुए पत्थर के चौकोर टुकड़े दिखाई देते हैं। वह आश्चर्य से एक पत्थर उठा लेती है। उसे उस पर कुछ लिखा हुआ दिखाई देता है। अरे! यह कोई प्रेमगीत है। वह दूसरा पत्थर उठाती है। उस पर भी वही लिखा है। यह इस गीत का दूसरा अन्तरा प्रतीत होता है। फिर वह पत्थर के सभी टुकड़ों को उठाकर पढ़ती है और उन्हें एक पंक्ति में रखकर पूरा गीत पढ़ लेती है। इस गीत में वह दर्द और प्रभाव है कि वह कलेजा थामकर रह जाती है। यह उसी अमर कवि हरिहर की रचना है। इंदिरा के मन में कितनी बार इच्छा उत्पन्न हुई थी कि इस कवि के दर्शन करे लेकिन उसे कुछ पता नहीं था कि वह कौन है, कहाँ रहता है। आज यह प्रेम-संदेश पाकर वह पागलों की भाँति उसकी खोज में निकल पड़ती है। उसे विश्वास है कि वह कहीं आसपास ही होगा। वह उसे चारों ओर तलाश करती है और अन्ततः वह उसे कुटिया के पिछवाड़े जमीन पर सोता हुआ दिखाई देता है। वह आश्चर्यपूरित आनन्द से उसके चेहरे की ओर देखती है। यह देखकर कि उसे मक्खियाँ सता रही हैं, वह अपने आँचल से मक्खियाँ उड़ाने लगती है। हरिहर की नींद खुल जाती है और इंदिरा को आँचल से पंखा झलते देखकर वह इस प्यार का आनन्द लेने के लिए पड़ा रहता है। फिर वह उठकर बैठता है और इंदिरा उसे प्रणाम करती है।
अब हरिहर भी वहीं रहता है। वह कुटिया के अन्दर रहती है, हरिहर बाहर। दोनों साथ-साथ पहाड़ियों पर घूमते हैं और जंगली फल-फूल एकत्रित करते हैं। इंदिरा के गीतों से पहाड़ियाँ गूँजने लगती हैं। अब वह शहर के चौक में अपने गीत सुनाने नहीं जाती, केवल हरिहर ही उसका श्रोता है। मगर अब भी शहर के भक्तों की भीड़ लग जाती है और लोग उसे बहुत से उपहार देने जाते हैं, जिन्हें इंदिरा खुले हाथों से गरीबों में बाँट देती है।
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सुबह के समय इंदिरा झील के किनारे एक चट्टान पर बैठी गा रही है और हरिहर सामने बैठा ठाकुरजी के लिए हार गूँथ रहा है। झील में मुर्गाबियाँ, हंस आदि तैर रहे हैं। किनारों पर हिरण, नीलगाय आदि सब मानो उस गीत से मस्त हो रहे हैं।
एकाएक घोड़े पर सवार राजकुमार ज्ञान सिंह उधर से निकलता है। उसके साथ कई बंदूकची, शिकारी और दरबारी हैं। वह मर्दाने चेहरे का अत्यन्त सुन्दर युवक है। अभी मसें भीग रही हैं। ऊँचा कद, चौड़ा सीना, उन्नत ललाट। इंदिरा का गाना सुनते ही जैसे सन्नाटे में आ जाता है। उसका घोड़ा वहीं रुक जाता है और सारी भीड़ वहीं चुपचाप खड़ी हो जाती है। इंदिरा अध्यात्म के नशे में डूबी हुई है, उसे ज्ञान सिंह के आने की कुछ भी खबर नहीं होती। जब गाना समाप्त हो जाता है तो राजकुमार घोड़े से उतरता है और इंदिरा के पास आकर सम्मान से प्रणाम करता हुआ उसका नाम पूछता है। वह अब तक अविवाहित था। राजों-महाराजों के यहाँ से सैकड़ों प्रस्ताव आए थे लेकिन उसने एक भी स्वीकार नहीं किया। आज इस रूपसी को देखकर वह आत्मविस्मृति की दशा में पहुँच जाता है। वह सम्मान के साथ उसे अपने महल में आने का निमंत्रण देता है। इंदिरा एक दिन का अवकाश माँगती है, ज्ञान सिंह दूसरे दिन आने का वचन देकर चला जाता है लेकिन शिकार में उसका मन बिल्कुल भी नहीं लगता। उसे एकाएक शिकार से घृणा और प्रत्येक जीवधारी से प्रेम हो जाता है। अब उसे हिरणों का शिकार करने में दुःख होता है। वही दर्दभरा गीत उसके कानों में गूँज रहा है और आँखों में वही सूरत बसी हुई है।
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यह निमंत्रण पाकर इंदिरा खुशी से फूली नहीं समाती। उस चिंगारी का उसे कुछ पता नहीं जो उसके रूप और गीत ने ज्ञान सिंह के हृदय में भड़का दी थी। वह सोचती है - शाही कृपाओं के सहारे वह जीवन की चिन्ताओं से मुक्त हो जाएगी और हरिहर के साथ सन्तुष्ट रहती हुई जीवन के दिन काट देगी। क्योंकि राजकुमार के दिल का हाल उससे छिपा नहीं रहता इसलिए हरिहर सोचता है कि रनिवास में इंदिरा कितनी प्रसन्न होगी। क्या ऐसी अनिंद्य रूपसी पहाड़ों तथा जंगलों में फिरने के योग्य है। हरिहर के साथ रहकर उसे भूख व चिन्ता के अतिरिक्त और क्या मिलेगा। वह इस देवी को इन कठिनाइयों में डालना नहीं चाहता। उसके आध्यात्मिक सन्तोष के लिये इतना विश्वास ही पर्याप्त है कि उसका स्थान इंदिरा के हृदय में है। यही विचार उसके जीवन को चरमोत्कर्ष तक पहुँचाने के लिए पर्याप्त है। उसके हृदय में और कोई इच्छा, और कोई आकांक्षा नहीं है।
रात बीत जाती है। पौ फटे हरिहर इंदिरा को फूलों के गहनों से सजाता है। भक्तों ने उस दिन इंदिरा को जितने उपहार दिये थे, वे सब हरिहर ने इकट्ठे कर रखे हैं। वह इस सज्जा से इंदिरा के रूप को और भी चमका देता है मगर जब अवसर मिलता है तो इंदिरा की आँख बचाकर आँसुओं की दो-चार बूँदें भी गिरा लेता है। इंदिरा से हँस-हँसकर बातें करता है मानो उसे कोई आशंका न हो, लेकिन उसे मन में विश्वास है कि अब इंदिरा के दर्शन नहीं होंगे। यह भय भी है कि इंदिरा के मन में अब उसकी याद नहीं रहेगी, शाही भोग-विलास में पड़कर वह उसे अवश्य ही भूल जायेगी। कौन किसको याद करता है! लेकिन वह इस विचार से अपने दिल को सांत्वना देता है कि वह आराम से तो रहेगी, उसके व्यक्तित्व से प्रजा को लाभ होगा। क्या वह इतनी बदल जाएगी कि अधिकार पाकर शाही अत्याचार के विरुद्ध मुँह भी न खोले? क्या वह महात्मा के उपदेश को भूल सकती है?
जब इंदिरा बन-सँवरकर तैयार हो जाती है तो दोनों साथ बैठकर कीर्तन करते हैं। आज इस कीर्तन में दोनों के मन में भिन्न-भिन्न भावनाएँ उत्पन्न होती हैं। इंदिरा अनजाने में प्रसन्न है। उसे हरा ही हरा सूझता है। वह संन्यास और वैराग्य से अघा चुकी है और अब सांसारिक वस्तुओं का आनन्द लेना चाहती है। उसके विचार में शाही कृपाएँ उसके लिये समृद्धि का द्वार खोल देंगी। वह इस समय भी उस जीवन का स्वप्न देख रही है जब वह हरिहर के लिए अच्छा खाना पकाएगी, उसके लिए अच्छे-अच्छे कपड़े बनवाएगी, उसके सिर में तेल डालेगी, जब वह सोएगा तो उसके लिए पंखा झलेगी। क्या ऐसा गुणवान, ईश्वर तक पहुँचा हुआ कवि इस योग्य है कि संसार की उपेक्षा का शिकार हो? मगर हरिहर दुःख के विचारों में डूबा हुआ है। उसकी आँखों के समक्ष अंधेरा छा रहा है। इसी समय ज्ञान सिंह अपने साथियों के साथ सवारी लिए आ पहुँचता है।
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शाही महल के सुसज्जित और सुरुचिपूर्ण कमरे, रूपवती दासियाँ। राजमाता का दरबार लगा हुआ है। इंदिरा महल में पहुँचकर राजमाता को प्रणाम करती है। रानी उसकी बड़ी आवभगत करती हैं। वे स्नान करके पूजा के लिए तैयार बैठी हैं। इंदिरा उनके साथ मंदिर में जाती है जो काँच की वस्तुओं से सजा हुआ है, और वहाँ उनका कीर्तन होता है। रानी के साथ और भी कई कुलीन महिलाएँ हैं। इंदिरा का कीर्तन सुनकर सब अपना आपा खो बैठती हैं। रानी साहिबा इंदिरा को गले लगा लेती हैं और अपनी मोतियों की माला निकालकर उसके गले में डाल देती हैं। इंदिरा दूसरा भजन गाती है। रानी उसके पाँवों पर सिर रख देती है। उसके हृदय में भगवान् की ऐसी भक्ति कभी न उमड़ी थी। इसी समय पद्मा आती है। पद्मा रूप में इंदिरा से बिल्कुल अलग है। उसके रूप में रौब, गाम्भीर्य, लावण्य और आकर्षण है। इंदिरा के रूप में मृदुलता और नम्रता। एक चमेली का फूल है - सादा और कोमल, उसका सौन्दर्य उसकी कोमलता और सादगी में है। दूसरा सूरजमुखी है - सुवर्ण और सुदर्शन। पद्मा का पिता सरदार केसरी सिंह राज्य में मंत्री के पद पर प्रतिष्ठित है। वह पद्मा का विवाह राजकुमार ज्ञान सिंह से करना चाहता है। पद्मा भी राजकुमार को सच्चे दिल से चाहती है मगर राजकुमार उस पर अधिक आसक्त नहीं है, फिर भी उसका बहुत आदर-सत्कार करता है।
पद्मा आकर राजकुमार को इंदिरा की ओर मुग्ध दृष्टि से घूरते हुए देखती है। यह भी देखती है कि यहाँ इसका आदर-सम्मान हो रहा है। स्वयं उसका इतना सम्मान कभी न हुआ था। यह साधारण, बाजारों में गाने वाली औरत उससे बाजी मार ले, इस विचार से वह अन्दर ही अन्दर जल जाती है। उसे तत्काल इंदिरा से ईर्ष्या व द्वेष उत्पन्न हो जाता है और वह उसे अपमानित करने की योजना बनाने लगती है। वह रानी साहिबा को उससे विमुख करना चाहती है। उसके चेहरे-मोहरे, पहनने-ओढ़ने का मजाक उड़ाती है। लेकिन जब इस दुश्चक्र का इंदिरा पर कोई प्रभाव नहीं होता तो वह उसे बदनाम करना चाहती है। अवसर पाकर वह अपना कीमती कंगन उसके तम्बूरे के नीचे छिपा देती है और कुछ देर बाद उसे तलाश करने लगती है। इधर-उधर ढूँढ़ती हुई वह इंदिरा के पास आती है और तम्बूरे से कंगन निकाल लेती है। शर्मिन्दा होकर इंदिरा रोने लगती है। पद्मा से दासियाँ बहुत प्रसन्न हैं क्योंकि वह उन्हें पुरस्कार देती रहती है। वे सब इंदिरा से विमुख रहती हैं। लेकिन इसी समय ज्ञान सिंह आ जाता है और इस घटना का समाचार सुनकर इंदिरा को दोषी नहीं ठहराता। उसे इस घटना में धूर्तता और शरारत प्रतीत होती है। वह इंदिरा की ओर से किसी भी प्रकार की बेईमानी का विचार तक मन में नहीं ला सकता। उसका व्यवहार देखकर दासियाँ भी उसी की हाँ में हाँ मिलाती हैं और रानी साहिबा पद्मा को कठोर शब्द कहती हैं। पद्मा दाँत पीसकर रह जाती है।
इधर शाही महल की दीवार के नीचे हरिहर आत्मविस्मृत हुआ खड़ा है कि सम्भवतः इंदिरा की आवाज कानों में पड़ जाए। वह यहाँ से निराश होकर फिर इंदिरा की कुटिया में जाता है और उसकी एक-एक वस्तु को चूमता और रोता है।
दूसरे दिन महल में पुनः महफिल सजती है। आज महाराज साहब जरवल भी उपस्थित हैं। संयोग से सांगली के कुँअर साहब भी आए हुए हैं। इन चौदह-पंद्रह बरसों में उन्होंने बड़े-बड़े दुःख उठाए हैं। उनकी पत्नी का देहान्त हो गया है। पत्नी और पुत्री की याद में बहुत दुबला गए हैं लेकिन बनने-सँवरने का शौक अभी तक बना हुआ है। अब भी वही जयपुरी साफा है, वही नीची अचकन, वही अमृतसरी जूता, उसी प्रकार बाल सँवारे हुए, यद्यपि इस बाहरी सजावट के आवरण में रोता हुआ हृदय छिपा है। जिस समय इंदिरा तल्लीन होकर गाती है, उनकी आँखों से आँसू बह निकलते हैं। इंदिरा के चेहरे में उन्हें अपनी स्वर्गवासी पत्नी का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। उन्होंने जब पहली बार इंदिरा की माँ को नयी नवेली दुल्हन के रूप में देखा था उस समय वह बिल्कुल ऐसी ही थी। इतनी समानता उन्होंने आज तक किसी औरत में नहीं देखी। जब इंदिरा यहाँ से जाने लगती है तो वे उसके साथ कुछ दूर जाते हैं और अवसर पाकर उसका नाम और उसके माता-पिता का हाल पूछते हैं। इंदिरा अपने बचपन की घटना उन्हें बताती है। कुँअर साहब को विश्वास हो जाता है कि इंदिरा ही मेरी खोई हुई बेटी है। उनका हृदय सहसा उमंग से भर जाता है कि इसे गले लगा लें लेकिन लाज रोक देती है। क्या पता यह किस-किसके साथ रही, इस पर क्या-क्या बीती, वे इसे अपनी बेटी कैसे स्वीकार कर सकते हैं? इंदिरा भी ध्यान से उनके चेहरे को देखती है और उसे कुछ-कुछ याद आता है कि उसके पिता की सूरत इनसे मिलती थी, लेकिन वह भी लाज से यह सब प्रकट नहीं करती कि कहीं कुँअर साहब मना कर दें तो शर्मिन्दा न होना पड़े।
इंदिरा के कीर्तन से राजा साहब जरवल इतने प्रसन्न होते हैं कि उसे पाँच गाँव माफ कर देते हैं। इंदिरा उनके पाँवों पर गिरकर कृतज्ञता प्रकट करती है।
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राजकुमार अपनी नाव सजाता है और इंदिरा को नदी में घुमाने के लिए ले जाता है। इंदिरा इस अवसर की प्रतीक्षा में है कि राजकुमार से हरिहर की सिफारिश करके उसे राजकवि के रूप में प्रतिष्ठित करा दे। इसलिए वहाँ से मन उचट जाने और हरिहर का बिछोह असहनीय होने पर भी वह जाने का नाम नहीं लेती। नदी की सैर में शायद वह अवसर हाथ आ जाए, इसलिए वह इस प्रस्ताव को प्रसन्नता से स्वीकार कर लेती है। नाव लहरों पर खेल रही है। इंदिरा हरिहर का एक पद गाने लगती है। सहसा उसे किनारे पर खड़ा हरिहर दिखाई दे जाता है। उसके चेहरे से निराशा ऐसे बरस रही है मानो यह बिछोह स्थायी हो।
इस प्रेम के पद से राजकुमार का दिल बेसुध हो जाता है। उसके सब्र का बाँध टूट जाता है। वह इंदिरा के समक्ष अपने आकुल-व्याकुल हृदय की कथा कह सुनाता है। वह अपना हृदय उसे दे बैठता है। अब इंदिरा को पता चलता है कि वह एक सुनहरे जाल में फँस गई है, अब हरिहर का नाम मुँह पर लाना कहर हो जाएगा, राजकुमार तत्काल हरिहर के लहू का प्यासा हो जाएगा। वह मन में पछताती है कि बेकार में राजकुमार का निमन्त्रण स्वीकार किया। यह हवस का पहला कोड़ा है जो उस पर पड़ा। अब वह यह भी समझने लगी है कि यद्यपि राजकुमार उसके सामने भिखारी बना खड़ा है मगर वास्तव में वह उसकी कैद में है।
वह कहती है, ‘राजकुमार, मैं दीन-हीन औरत हूँ, इस योग्य नहीं कि तुम्हारी रानी बनूँ। तुम बदनाम हो जाओगे और आश्चर्य नहीं कि राजा साहब और तुम्हारी माताजी भी तुमसे रुष्ट हो जाएँ। इसका परिणाम अच्छा नहीं होगा। मैं तुम्हें कष्ट में डालना नहीं चाहती।’
राजकुमार, ‘मैं तुम्हारे लिए सिंहासन को ठोकर मार दूँगा। इंदिरा, मुझे किसी की खुशी या नाराजगी की परवाह नहीं है। मैं तुम्हारे लिए सब कुछ करने को प्रस्तुत हूँ।’
इंदिरा बहाना करती है कि उसने संन्यास-व्रत धारण कर लिया है और यदि उसने संकल्प तोड़ा तो उन महात्माजी को कितना कष्ट होगा जिन्हें वह अपना गुरु मानती है। उसका यह काम उन्हें परलोक में भी चैन से नहीं रहने देगा। वह राजकुमार का सम्मान करती है लेकिन उसके लिए प्यार करना निषिद्ध है और वह अपने संकल्प को तोड़ नहीं सकती।
राजकुमार, ‘इंदिरा, तुम्हें मुझ पर तनिक भी दया नहीं आती?’
इंदिरा, ‘अपने संकल्प को तोड़कर मैं जीवित नहीं रह सकती।’
राजकुमार, ‘ये सब बहाने हैं इंदिरा! क्या मैं मान लूँ कि तुम्हारे हृदय में किसी अन्य के लिए स्थान है?’
इंदिरा, ‘मैंने आपसे कह दिया, मैं संन्यासिनी हूँ।’
राजकुमार, ‘यह तुम्हारा आखिरी फैसला है?’
इंदिरा, ‘हाँ, आखिरी।’
निराशा की दशा में राजकुमार अपनी कमर से तलवार निकालकर अपने सीने में घोंपना चाहता है। इंदिरा तेजी से उसका हाथ पकड़ लेती है।
राजकुमार, ‘मुझे मर जाने दो इंदिरा। जब मैं तुम्हें पा नहीं सकता तो जिन्दगी बेकार है।’
इंदिरा उसकी कमर में तलवार लगाती हुई बहलाने के लिए कहती है, ‘आपको मेरे जैसी हजारों औरतें मिलेंगी। आपको एक गरीब का प्रेम मिल भी जाए तो आपको इससे सन्तोष नहीं होगा।’
राजकुमार का चेहरा प्रसन्नता से खिल जाता है और कहता है, ‘प्यार तो संकल्प और व्रत की चिन्ता नहीं करता।’
इंदिरा, ‘लेकिन प्यार छूमन्तर से पैदा होने वाली चीज भी तो नहीं। जो प्यार एक दृष्टि से पैदा हो सकता है वह एक दृष्टि में समाप्त भी हो सकता है। तुम राजकुमार हो। मुझे क्या भरोसा कि मुझसे अधिक रूपवती और सौन्दर्यवान औरत पाकर तुम मेरी ओर से आँखें नहीं फेर लोगे। फिर तो मैं कहीं की भी न रहूँगी। प्रिय-मिलन के लिए ईश्वर को छोड़कर यदि भाग्यहीन रहूँ तो क्या हो?’
राजकुमार, ‘हाँ, तुम्हारी यह शर्त मुझे स्वीकार है। इंदिरा, मुझे अवसर दो कि मैं तुम्हारे हृदय पर अपने प्यार का चिह्न अंकित कर सकूँ। लेकिन यदि तुम मुझसे मुँह मोड़कर चली गईं तो देख लेना, उसी दिन तुम्हें मेरे मरने की खबर मिलेगी।’
इंदिरा देखती है कि हरिहर धीरे-धीरे नदी के किनारे से बस्ती की ओर चला जा रहा है। अपनी बेबसी और निराशा का विचार करके उसकी आँखें नम हो गईं।
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पद्मा अपनी इच्छाओं का खून होते सरलता से नहीं देख सकती। वह इंदिरा के सम्बन्ध में खोज आरम्भ करती है कि शायद कोई ऐसा सूत्र हाथ आ जाए जिसके आधार पर वह उसे राजकुमार की दृष्टि से गिरा दे। एक दिन वह उसके ठिकाने का पता पूछती-पूछती उसकी कुटिया तक जा पहुँचती है। वहाँ उसकी भेंट हरिहर से हो जाती है। बातों-बातों में वह हरिहर को इंदिरा की बेवफाई की कथा सुनाती है। उसने कई तस्वीरें बनवा ली हैं जिनमें राजकुमार के साथ इंदिरा का सैर करना, गाना-बजाना, पढ़ना-लिखना दिखाई देता है। वह कहती है कि वहाँ इंदिरा ऐसी प्रसन्न है मानो उसे सृष्टि की सम्पदा ही मिल गई हो, और तुम उसके वियोग में घुल रहे हो। ऐसी बेवफा औरत इसी योग्य है कि उसकी पोल खोल दी जाए ताकि वह अपना काला मुँह कहीं न दिखा सके। लेकिन इन बुरी बातों का हरिहर पर कोई प्रभाव नहीं होता। अन्ततः उधर से निराश होकर पद्मा एक दूसरा जाल फैलाती है। वह हरिहर को अपने साथ दरबार में लाती है और राजकुमार से उसका परिचय कराती है। राजकुमार उसकी कविता सुनकर बहुत प्रसन्न होता है। यह वही कविता है जो उसने इंदिरा के मुँह से सुनी है। राजकुमार उसका बहुत सम्मान करता है। पद्मा हरिहर के मुँह से ऐसे शब्द निकलवाना चाहती है जो उसके प्यार का भेद खोल दें और राजकुमार को पता चल जाए कि यह इंदिरा का प्रेमी है। लेकिन हरिहर इतना चौकन्ना है कि वह मुँह से ऐसा एक भी शब्द नहीं निकलने देता जिससे उसका प्यार प्रकट हो जाय। राजकुमार इंदिरा की प्रशंसा करता है। हरिहर इस प्रकार सुनता है मानो उसने इंदिरा का नाम भी नहीं सुना। पद्मा उसी समय रनिवास में जाकर इंदिरा को अपने साथ लाती है। उसे विश्वास है कि आकस्मिक भेंट से दोनों अवश्य ही इतने हर्षित हो जाएँगे कि उस कमजोर नींव पर कोई भी भवन बना खड़ा किया जा सकेगा। लेकिन हरिहर को देखकर इंदिरा पराएपन का व्यवहार करती है और हरिहर भी उससे अधिक बात नहीं करता। तब पद्मा एक कवि-गोष्ठी आयोजित करती है और उसमें रियासत के बड़े-बड़े सुकुमार कवियों को आमंत्रित करती है। यह भी प्रस्ताव किया जाता है कि जिसकी कविता श्रेष्ठ होगी उसे राजकवि का पद प्रदान किया जाएगा। पद्मा को विश्वास है कि हरिहर की कविता ही सर्वोत्कृष्ट होगी इसलिए वह इंदिरा को निर्णायक बनाती है। राजकुमार भी बड़ी प्रसन्नता से इंदिरा को निर्णायक बनाया जाना स्वीकार करता है। अब इंदिरा को साफ दिखाई दे रहा है कि उसकी तबाही के सामान जुटाए जा रहे हैं। हरिहर की कविता निश्चय ही सर्वश्रेष्ठ होगी और उसे विवश होकर उसी को श्रेष्ठ कहना पड़ेगा। हरिहर के पक्ष या समर्थन में मुँह से एक शब्द भी निकालना उसके लिए घातक विष बन सकता है। उसके निर्णय पर आपत्ति करना और हरिहर की कविता में दोष निकालकर राजकुमार के मन में इंदिरा के प्रति संदेह उत्पन्न करना कुछ कठिन न होगा। वह चाहती है कि यदि अवसर मिले तो हरिहर को सावधान कर दे, लेकिन उसे इसका अवसर नहीं मिलता।
पद्मा कवि-गोष्ठी की तैयारियों में व्यस्त रहती है। नियत तिथि पर सभी कवि उपस्थित होते हैं, हरिहर भी आता है। नयी कविता की शर्त है। हरिहर ने कोई नयी कविता नहीं लिखी। अन्य कवि अपनी कविताएँ सुनाते हैं। प्रशंसा का स्वर गूँज उठता है। अन्ततः जब हरिहर की बारी आती है तो वह स्पष्ट कह देता है, ‘मैंने कोई नयी कविता नहीं लिखी।’ उसने भी पद्मा के इन प्रयासों को अपनी चतुराई से ताड़ लिया है और उसके जाल में फँसना नहीं चाहता। इंदिरा इसे दैवी सहायता समझकर मन ही मन परमात्मा को धन्यवाद देती है। एक दूसरे कवि को पुरस्कार तथा पद मिल जाता है और इंदिरा के प्रेम का रहस्य छिपा रह जाता है। यहाँ से हरिहर प्रसन्नतापूर्वक विदा होता है। रनिवास में इंदिरा भी प्रसन्न व आनन्दित है, उसके लिए इससे अधिक प्रसन्नता की बात और क्या हो सकती है?
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राजकुमार ज्ञान सिंह की राजगद्दी का उत्सव मनाया जा रहा है। शहर में दीपावली मनाई जा रही है। चौराहों पर भव्य द्वार बनाए गए हैं। मुख्य द्वार से चौक तक बिजली के दोमुँहे सुन्दर बल्ब लगाए गए हैं। किनारे के वृक्षों पर बिजली से जगमगाते अक्षरों में स्तुति वाक्य लिखे गए हैं। पण्डित लोग मुहूर्त देखते हैं। उसी समय ज्ञान सिंह महल से निकलकर भव्य मण्डप में आता है जो इसी उत्सव के लिए बनाया गया है। दरबारी और रईस लोग उपहार भेंट करते हैं। ज्ञान सिंह उठकर अपनी नीति की घोषणा करता है और शाही सेवकों तथा प्रजा को अपने कर्त्तव्य-पालन हेतु निर्देशित करता है। उसने आसामियों का आधा लगान माफ कर दिया है इसलिए प्रजा अत्यधिक प्रसन्न है। प्रसन्नता प्रकट करके सब उसे दुआएँ देते हुए विदा हो जाते हैं। फिर गरीबों में भोजन वितरित किया जाता है। बन्दियों को मुक्त करने का आदेश होता है। फिर सेना की सलामी और परेड होती है। बैंड बजता है। अफसरों को पदक और जागीरदारी मिलती है। फिर आतिशबाजियाँ छोड़ी जाती हैं। इसके पश्चात् ठाकुरद्वारे में कीर्तन होता है। वहाँ इंदिरा के दर्शनों की लालसा में हरिहर आया है, लेकिन कीर्तन करने वालों में इंदिरा नहीं है। परम्परा के प्रतिकूल वेश्याओं को आमंत्रित नहीं किया गया। इस उत्सव में ज्ञान सिंह ने अनावश्यक खर्च करना अस्वीकार कर दिया है। शहर में चर्चा है कि इंदिरा का विवाह ज्ञान सिंह से होगा। ऐसी कृपालु, दीनों की पालक और सर्वप्रिय रानी मिलने से प्रत्येक छोटा-बड़ा प्रसन्न है।
कीर्तन के पश्चात् ज्ञान सिंह इंदिरा के पास जाता है और कहता है, ‘इंदिरा, क्या अभी तुम्हारी परीक्षा पूरी नहीं हुई?’
इंदिरा कहती है, ‘अभी नहीं, मुझे इस प्रतिष्ठा के योग्य बनने दीजिए।’
राजकुमार, ‘इस उत्सव की स्मृति में प्यार का एक उपहार प्रस्तुत करता हूँ।’
इंदिरा, ‘अभी मेरे लिए प्यार का कोई उपहार वर्जित है।’
राजकुमार, ‘तुम बड़ी निर्दयी हो इंदिरा!’
इंदिरा, ‘और ऐसी निर्दयी औरत को आप अपनी रानी बनाना चाहते हैं? रानी को दयालु होना चाहिए।’
राजकुमार, ‘सारी दुनिया के लिए तो तुम दया की देवी हो लेकिन मेरे लिए पत्थर की मूरत।’
ज्ञान सिंह अब इंदिरा के हाथों में है। वह आत्मा है तो ज्ञान सिंह शरीर। प्रजा के अधिकारों को इंदिरा एक क्षण के लिए भी विस्मृत नहीं करती। आए दिन नये-नये फरमान जारी होते हैं जिनके द्वारा प्रजा की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए कोई न कोई नया अधिकार प्रदान किया जाता है। शाही खर्चे कम किए जाते हैं। शाही महल में भी वह ठाट-बाट नहीं है। सेवकों की एक पूरी पलटन थी, उन्हें हटा दिया गया है। रूपवान दासियों की भी एक फौज थी, उन्हें भी हटा दिया जाता है। प्रजा की आवश्यकताओं के लिए महलों के कई भाग पृथक् कर दिए जाते हैं। एक महल में पुस्तकालय खुल जाता है, दूसरे में औषधालय। एक पूरा भवन किसानों और मजदूरों के नाम कर दिया जाता है, जहाँ उनकी पंचायतें होती हैं और विभिन्न प्रकार के कृषि उपकरणों की प्रदर्शनी लगती है। सेना के एक बड़े भाग को भंग कर दिया जाता है। उसके स्थान पर प्रजा में से युवा चुन लिए जाते हैं और तत्काल राष्ट्रीय सेना सुसज्जित कर दी जाती है। युवाओं के लिए व्यायामशालाएँ निर्मित की जाती हैं। ज्ञान सिंह वैभव के वातावरण में पला हुआ राजकुमार है। उसका आदेश प्रजा के लिए कानून हो सकता था, अब वह पग-पग पर स्वयं ही प्रतिबन्ध आरोपित करता है। यह सब इंदिरा की प्रेरणा का प्रभाव है। इंदिरा जो राजाज्ञा लिखती है, वह उस पर आँखें मूँदकर हस्ताक्षर कर देता है।
इधर अमीरों और दरबारियों में बड़ी चिन्ता व्याप्त हो जाती है। उनके विचार में रियासत नष्ट हुई जाती है। ज्ञान सिंह की यही दशा रही तो थोड़े ही दिनों में अमीरों का खात्मा हो जाएगा। आजादी की इस बाढ़ को रोकने के षड्यन्त्र किए जाते हैं। पद्मा इस षड्यंत्र की प्राणवायु है। ये लोग कटी-छँटी सेना के सिपाहियों और बर्खास्त किए गए सरकारी सेवकों में अफवाहें फैलाते हैं। अमीरों में भी विद्रोह उत्पन्न करते हैं। ज्ञान सिंह को तलवार की नोक पर अधीन करके किसी दूसरे राजा को गद्दी पर बैठाना चाहते हैं। इस षड्यन्त्र से पद्मा का उद्देश्य मात्र यही है कि इंदिरा अपमानित व बदनाम हो। वह उसको बदनाम करती है और इंदिरा को ही इन समस्त परिवर्तनों का एकमात्र कारण ठहराती है। इसलिए विद्रोहियों का यह समूह उसके प्राणों का प्यासा हो जाता है। सशस्त्र विद्रोह की तैयारियाँ की जा रही हैं।
ज्ञान सिंह और इंदिरा शाही महल के एक छोटे से कमरे में बैठे शतरंज खेल रहे हैं। कमरे में कोई सजावट या बनावट नहीं है। आज इंदिरा ने यह शर्त लगाई है कि यदि वह जीत जाएगी तो जो चाहेगी राजा से माँग लेगी, उसके देने में राजा को कोई आपत्ति नहीं होगी; और राजा को भी यही अधिकार होगा। अपने-अपने मन में दोनों प्रसन्न हैं। ज्ञान सिंह की प्रसन्नता की सीमा नहीं है, आज वह अपनी सफलता के विश्वास से फूला नहीं समा रहा है। दोनों खूब मन लगाकर खेल रहे हैं। पहले राजा साहब बढ़त लेते हैं और इंदिरा के कई मोहरे पीट लेते हैं। उनकी प्रसन्नता क्षण-प्रतिक्षण बढ़ती जाती है। अचानक बाजी पलट जाती है, राजा के बादशाह पर शह पड़ जाती है और उसका वजीर पिट जाता है। फिर तो एक-एक करके उसके सभी मोहरे गायब हो जाते हैं और वह हार जाता है। उसके मुँह पर निराशा छा जाती है। उसी समय इंदिरा एक राजाज्ञा निकालती है और राजा से उस पर हस्ताक्षर करने का निवेदन करती है। झुकी हुई दृष्टि से राजा उस राजाज्ञा को देखता है। अनाज का आयात कर माफ कर दिया गया है जिससे शाही राजस्व में एक महत्त्वपूर्ण राशि की कमी हो जाती है। रियासत में बहुत कम अनाज उत्पन्न होता है, अधिकांश अनाज दूसरे देशों से आता है। इस पर आयात कर के कारण अनाज महँगा हो जाने से प्रजा को कष्ट होता था। इंदिरा गरीबों को सस्ता अनाज उपलब्ध कराने की चिन्ता में थी और अवसर पाकर उसने आज यह राजाज्ञा प्रस्तुत की। ज्ञान सिंह को संकोच तो होता है लेकिन वह जबान हार चुका है। राजाज्ञा पर हस्ताक्षर कर देता है।
इसी समय बाहर शोर मच जाता है। एक संतरी दौड़ा हुआ आता है और सूचना देता है कि विद्रोहियों ने शाही महल को घेर लिया है और अन्दर घुसने की चेष्टा कर रहे हैं।
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ज्ञान सिंह का मुँह क्रोध से लाल हो जाता है। वह तत्काल हथियारों से सुसज्जित होकर इंदिरा से विदा लेता है और परकोटे पर चढ़कर विद्रोहियों को ऊँची आवाज में सम्बोधित करके विद्रोह का कारण पूछता है।
नीचे से एक आदमी उत्तर देता है, ‘हम यह अत्याचार सहन नहीं कर सकते। इंदिरा हमारी तबाही का कारण है, वह हमारी रानी नहीं बन सकती।’
ज्ञान सिंह इंदिरा के उन उपकारों का वर्णन करता है जो उसने देश पर किए हैं, लेकिन नीचे से वही उत्तर आता है, ‘इंदिरा हमारी तबाही का कारण है, वह हमारी रानी नहीं बन सकती’, मानो किसी ग्रामोफोन की आवाज हो।
तब ज्ञान सिंह वह राजाज्ञा निकालकर पढ़नी प्रारम्भ करता है जिस पर उसने अभी-अभी हस्ताक्षर किए हैं, लेकिन विद्रोहियों पर उसका भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता। फिर वही रटन लगाई जाती है, ‘इंदिरा हमारी रानी नहीं बन सकती, वह हमारी तबाही का कारण है।’ इसके साथ ही विद्रोही लोग सीढ़ियों से परकोटे पर चढ़ने की कोशिश करते हैं। मुख्य द्वार बन्द कर दिया जाता है।
अब ज्ञान सिंह कुपित होकर धमकियाँ देता है लेकिन चेतावनी की भाँति उसकी धमकियाँ भी भीड़ पर प्रभाव नहीं डालतीं। वे परकोटे पर चढ़ने की निरन्तर कोशिश करते हैं।
ज्ञान सिंह आवेश में आकर खतरे के घंटे के पास जाता है और उसे जोर से बजाता है। सेना के सिपाही सुनते तो हैं लेकिन निकलते नहीं। वह पुनः घंटा बजाता है। सिपाही तैयार होते हैं और शीघ्रता से हथियार इकट्ठे करने लगते हैं। तीसरा घंटा बजता है, पूरी सेना निकल पड़ती है। पद्मा उसी समय आकर उन्हें बहकाती है, ‘नादानो! क्यों अपने पाँवों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारते हो। क्या अभी तक तुम्हारी आँखें नहीं खुलीं? तुम्हारे कितने ही भाई निकाल दिए गए और आज वे दर-दर की ठोकरें खाते फिरते हैं। बहुत जल्द तुम लोगों की बारी भी आई जाती है। यदि यही दिन-रात हैं तो दो-चार महीनों में सबके सब निकाल दिए जाओगे। ये विद्रोही कौन हैं? ये तुम्हारे ही भाई हैं जिन्हें ज्ञान सिंह की नयी बिनबियाही रानी इंदिरा ने निकाल दिया है। एक बाजारू वेश्या तुम पर इस तरह राज कर रही है, क्या तुम लोग इसे सहन कर सकते हो?’
इस समय इंदिरा के पास आकर पद्मा उसे मित्रवत् सलाह देती है, ‘भाग जाओ इंदिरा, अन्यथा तुम्हारी जान खतरे में है।’ इंदिरा इस अवसर को अच्छा समझती है और पद्मा के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करती है। पद्मा उसे एक गुप्त द्वार से ले जाती है जो शहर के बाहर एक मंदिर में खुलता है। वह सुरंग ऐसे ही कठिन अवसर के लिए बनाई गई है। पद्मा ने पहले ही हरिहर को बुला लिया है। उसके साथ दो घोड़े हैं। चारों ओर अंधेरा है।
हरिहर एक घोड़े पर इंदिरा को सवार करा देता है और दूसरे पर स्वयं बैठता है और दोनों शहर की अंधेरी सड़कों पर होते हुए निकल जाते हैं।
इसी समय पद्मा परकोटे पर चढ़कर ज्ञान सिंह के बराबर में खड़ी होकर कहती है, ‘बहादुरो! मैं तुम्हें शुभ सूचना देती हूँ कि अब इंदिरा इस महल में नहीं है। तुममें से कोई एक विश्वसनीय आदमी शाही किले में आकर तसल्ली कर सकता है। वह जिस गुमनामी से आई थी, फिर उसी में चली गई है। अब तुम लोग वापस लौट जाओ। मैं तुम लोगों को विश्वास दिलाती हूँ कि तुम लोगों के सिर से ये आदेश हटा लिए जाएँगे।’
ज्ञान सिंह घायल पक्षी की भाँति एक ठंडी साँस लेकर गिर पड़ता है। विद्रोहियों की भीड़ लौट जाती है और ज्ञान सिंह को इस विद्रोह से छुटकारा दिलाने का श्रेय पद्मा को मिलता है।
निराश स्वर से ज्ञान सिंह पूछता है, ‘इंदिरा कहाँ चली गई?’
पद्मा, ‘जहाँ से आई थी वहीं चली गई। यदि तुम समझते हो कि उसे तुमसे प्यार था तो तुम गलती पर हो। वह यहाँ मजबूरी में पड़ी थी। उसका प्रेमी वही अभागा कवि हरिहर है, वह उसी पर जान देती है। उसको कोई पद दिलाने के लिए वह यहाँ पड़ी हुई थी। जब उसने देखा कि यहाँ खतरा है तो भाग निकली। बेवफा थी।’
मृतप्राय सी दशा में ज्ञान सिंह अन्दर आया और आवेश में इंदिरा की प्रत्येक वस्तु को पैरों से कुचल डालता है। प्यार असफल होने पर पश्चात्ताप का रूप धारण कर लेता है। दीवारों पर इंदिरा के कई चित्र लगे हुए हैं। ज्ञान सिंह उन चित्रों को उतारकर टुकड़े-टुकड़े कर डालता है। इस समय धैर्य और क्षमा की देवी बनी हुई पद्मा बाहर से तो उसके क्रोध को शान्त कर रही है लेकिन चोट करने वाली ऐसी-ऐसी बातें कहती है कि ज्ञान सिंह की ईर्ष्या की आग और भी भड़क उठती है। वह तम्बूरे के सैकड़ों टुकड़े कर डालता है। अचानक उसे एक बात याद आ जाती है। वह तत्काल बाहर आता है और कई विश्वस्त सिपाहियों को इंदिरा का पीछा करने के लिए भेज देता है और आदेश देता है कि शहर की नाकाबन्दी कर दी जाए।
फिर अन्दर जाकर इंदिरा की पूजा की वस्तुएँ और ठाकुरजी का सिंहासन - सब उठा-उठाकर फेंक देता है। जो दासियाँ इंदिरा की सेवा में नियुक्त थीं, उन्हें निकाल देता है और एक उन्माद की सी दशा में पाँव पटकता हुआ इंदिरा को बार-बार कोसता है, ‘धूर्त्ता, छलिया, जादूगरनी, बेवफा, कपटी।’
पद्मा उसे ठंडे पानी का गिलास लाकर देती है। वह गिलास को एक ही साँस में खाली करके पटक देता है। उसकी आँखों से चिंगारियाँ निकल रही हैं, नथुने फड़क रहे हैं। वह पद्मा की ओर से विनम्र हो जाता है। वह उसे सहिष्णुता और वफा की देवी मानने लगता है। उपकृत होने का भाव भी कुछ कम नहीं है। यदि पद्मा आड़े न आई होती तो विद्रोहियों ने महल पर अधिकार कर लिया होता और पता नहीं उसके सिर पर क्या विपत्ति आती। वह उससे अपनी पिछली गलतियों की क्षमा माँगता है। और पहली बार उसके हृदय में उसके प्यार की झलक उमड़ने लगती है। इस निराशा और शोक की दशा में पद्मा ही उसे सद्गति की देवी दिखाई देती है। वह उसे गले से लगा लेता है। प्रेम के आवेग में पद्मा उसके कंधे पर सिर रखकर रोने लगती है।
-14-
घोड़ों पर सवार इंदिरा और हरिहर प्राचीर के एक द्वार पर पहुँचते हैं। द्वार बन्द है। दूसरे द्वार पर आते हैं, वह भी बन्द है। हरिहर को पता है कि प्राचीर में एक दरार है, जिस पर घास-फूस जमी हुई है और शायद किसी को इस दरार की खबर भी न हो। दोनों उस दरार में घोड़े डाल देते हैं और काँटों से उलझते, घास-फूस के ढेरों को हटाते कठिनाई से दरार को पार करते हैं, लेकिन बाहर की ओर प्राचीर से लगी हुई नदी आती है। विवश दोनों अपने घोड़े नदी में डाल देते हैं और तैरते हुए नदी से पार हो जाते हैं। दूसरी ओर पहुँचकर दोनों तनिक साँस लेते हैं और फिर भागते हैं। बहुत दूर चलने के बाद उन्हें एक मन्दिर मिलता है। दोनों वहीं घोड़े खोल देते हैं और रात्रि व्यतीत करते हैं। प्रातःकाल वहाँ से दोनों पैदल ही चल देते हैं और दोपहर होते-होते एक बड़े गाँव में जा पहुँचते हैं। वहाँ गाँव का जमींदार बारात लेकर अपना विवाह करने जा रहा है, हजारों आदमी इकट्ठा हैं। दूसरे गाँवों के लोग भी तमाशा देखने आए हैं। बारात चलने को तैयार है। दूल्हा घर से निकलकर मोटर पर बैठता है और मोटर चलने को ही है कि एक औरत आकर मोटर के सामने लेट जाती है। यह जमींदार साहब की पहली पत्नी है जिसे उन्होंने पन्द्रह वर्षों से छोड़ रखा है। आज वे अपना विवाह करने जा रहे हैं तो पत्नी उनके रास्ते में आ जाती है। पति-पत्नी में कुछ वाद-विवाद की नौबत आती है। पति पत्नी को धमकाकर रास्ते से हट जाने का आदेश देता है। पत्नी पर कोई प्रभाव नहीं होता। तब वह क्रोध में आकर मोटर चला देता है, पत्नी कुचली जाती है। उस समय हजारों आदमी क्रोध में आकर जमींदार साहब पर टूट पड़ते हैं और उसे मार डालते हैं। इंदिरा और हरिहर को दुःख होता है कि कुछ पहले यहाँ क्यों न आ पहुँचे नहीं तो समझा-बुझाकर दोनों का मिलन करा देते। कुछ देर उस गाँव में ठहरकर दोनों फिर वहाँ से आगे बढ़ जाते हैं, जहाँ नाच हो रहा है। वहाँ इंदिरा गाती है और उन्हीं लोगों के साथ रात बिताती है।
कई दिन के बाद दोनों उस रियासत की सीमाओं से बाहर निकल जाते हैं और सांगली की रियासत में जा पहुँचते हैं। दोनों यहीं एक गाँव में रहने लगते हैं। दोनों गाँव की सेवा करते हैं और उनकी सेवा से गाँव वाले बहुत प्रसन्न हैं।
गाँव में एक ठाकुरद्वारा है, वहीं दोनों रात में कीर्तन करते हैं। उनकी सेवा और भक्ति की प्रसिद्धि आसपास के गाँवों में फैल जाती है और भक्तों की संख्या बढ़ने लगती है। उन किसानों की दृष्टि में ये दोनों दैवी शक्तियाँ हैं और वे उनकी प्राणपन से अर्चना करते हैं। गीत तथा कविता के इस संसार में दोनों ईश्वरीय अस्तित्व के दर्शन करते हैं और सांसारिक मलिनता और इच्छाएँ उनके मन से निकल जाती हैं। उन्हें हरेक वस्तु में एक ही वास्तविकता के दर्शन होने लगते हैं। कभी-कभी हरिहर झरने के किनारे जा निकलता है और उसके संगीत में ईश्वरीय ध्वनि सुनता है और उसका हृदय आध्यात्मिक भावों से परिपूर्ण हो जाता है। कभी किसी जंगली फूल को देखकर वह मस्ती में आ जाता है और उसमें ईश्वर के दर्शन करता है।
एक दिन सांगली के कुँअर साहब शिकार खेलने आते हैं। उनके साथ बंदूकची, शिकारी आदि भी डेरे लिए आ पहुँचते हैं। संध्याकाल है, कुँअर साहब अपने हाथी पर गाँव में आते हैं और शिकार की तैयारियाँ होने लगती हैं। उसी समय इंदिरा उनके सामने पहुँचकर एक आध्यात्मिक पद गाती है। कुँअर साहब के हृदय में लड़की का प्यार हरा हो जाता है। जब उन्होंने पहली बार इंदिरा को देखा था तो उसे पहचान गए थे लेकिन उस दशा में उसे अपनी लड़की स्वीकार करने का उन्हें साहस न हुआ था। तब से उन्हें निरन्तर अपनी बेटी की स्मृति बेचैन करती रहती थी लेकिन इस मध्य उनका प्यार इन विचारों पर हावी हो चुका है। अब वे सहन नहीं कर पाते और इंदिरा को सीने से लगाकर कहते हैं, ‘तू मेरी खोई हुई प्यारी बेटी है।’ वे उससे अपने साथ चलने का आग्रह करते हैं लेकिन हरिहर वैभव और समृद्धि के जाल में फँसना नहीं चाहता। उसे आशंका होती है कि कहीं वैभव में पड़कर इंदिरा को ही न खो बैठे। वह इंदिरा से कुछ नहीं कहता लेकिन उसके हाव-भाव से उसकी मनोदशा प्रकट हो जाती है और इंदिरा अपने पिता के साथ जाने से मना कर देती है। मन्दिर के सामने झोंपड़ी में दोनों बैठे हुए हैं। घर में कोई सामान नहीं। उधर शाही महल में वैभव है, प्रतिष्ठा तथा नौकर-चाकर हैं, लेकिन इंदिरा यह सब अपने प्यार पर न्योछावर कर देती है।
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इंदिरा को महल से निकालकर और उसकी ओर से निश्चिन्त होकर कुछ दिनों से ईर्ष्या के कारण नेपथ्य में चली गई पद्मा की स्वाभाविक सज्जनता प्रकट हो जाती है और वह प्राणपन से ज्ञान सिंह की सेवा करती है। इस आशा तथा शोक की दशा में यदि वह कुछ खाता है तो उसी के आग्रह से, घूमने जाता है तो उसी के कहने से, रियासत का कामकाज देखता है तो उसी के संकेत से। वह कभी गीत गाकर, कभी कहानी सुनाकर उसका मनोरंजन करती है। लेकिन प्रायः रातों में राजा की नींद उचट जाती है और वह इंदिरा को याद करके बेचैन हो जाता है। तब उसके सीने में ईर्ष्या की आग भड़क उठती है। इंदिरा किसी पराए की होकर रहे, यह विचार उसके लिए असहनीय है। वह तपस्विनी बनकर रहती तो सम्भवतः उसके चरणों की धूल मस्तक पर धरता लेकिन वह पराए के पार्श्व में है, यह सोचकर उसके तन-बदन में आग लग जाती है।
ज्ञान सिंह के भेदिए और जासूस चारों ओर फैले हुए हैं। एक दिन उसे सूचना मिलती है कि इंदिरा सांगली के एक गाँव में है। ज्ञान सिंह उसी समय कुछ परखे हुए सिपाहियों और जान छिड़कने वाले मित्रों को साथ लेकर इंदिरा और हरिहर की खोज में चल पड़ता है। पद्मा उसे रोकती है, मिन्नतें करती है लेकिन वह तनिक भी परवाह नहीं करता। अन्ततः विवश होकर वह भी उसके साथ चल पड़ती है। सभी घोड़ों पर सवार हैं और डबल चाल चल रहे हैं। कठिन पहाड़ी रास्ता है। ज्ञान सिंह और पद्मा अपने साथ वालों से बहुत आगे निकल जाते हैं। अचानक उनका सामना कई सशस्त्र डाकुओं से हो जाता है। अपने पिस्तोल से पद्मा दो आदमियों को नरक का मार्ग दिखा देती है, शेष डाकू भाग खड़े होते हैं। कई दिन पश्चात् यह जत्था उस गाँव में पहुँच जाता है जहाँ इंदिरा और हरिहर शान्ति का जीवन जी रहे हैं।
बात की बात में खबर फैल जाती है कि राजा ज्ञान सिंह इंदिरा और हरिहर को बन्दी बनाने के लिए चढ़ आए हैं। आसपास के किसान लाठियाँ, गंडासे और कुल्हाड़े लेकर आते हैं। इंदिरा और हरिहर दोनों दलों के बीच में आकर खड़े हो जाते हैं। उन्हें देखते ही ज्ञान सिंह तलवार खींचकर उन पर झपटता है। इंदिरा और हरिहर वहीं सिर झुकाकर बैठ जाते हैं और परमात्मा का ध्यान करने लगते हैं। हरिहर की गर्दन पर तलवार पड़ने ही वाली है कि पद्मा आ जाती है और लपककर राजा के हाथ से तलवार छीन लेती है। दोनों प्रेम-दीवानों की बहादुरी और समर्पण देखकर ज्ञान सिंह की आँखें खुल जाती हैं। सहसा उसके हृदय में उस प्रकाश का प्राकट्य होता है जिसके समक्ष दुर्बलताएँ और वासनाओं की उद्दंडताएँ नष्ट हो जाती हैं। वह एक मिनट तक चुप खड़ा रहता है, फिर इंदिरा के पाँवों पर गिर पड़ता है। पद्मा राजा साहब को उनके जीवन का अन्त कर देने वाले दुष्कर्म से बचाकर उनका मन जीत लेती है।
एक क्षण में ज्ञान सिंह इंदिरा के पाँवों से उठकर पद्मा को गले लगा लेता है। इंदिरा भी पद्मा को सीने से लगा लेती है। फिर हरिहर और ज्ञानसिंह आलिंगनबद्ध हो जाते हैं।


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