बुधवार, 2 दिसंबर 2015

बहादुरशाह जफर 1775-1862 की गजलें






प्रस्तुति- राजेन्द्र प्रसाद सिन्हा, उषा रानी सिन्हा



इतना न अपने जामे से बाहर निकल के चल
इश्क़ तो मुश्किल है ऐ दिल कौन कहता सहल है
करेंगे क़स्द हम जिस दम तुम्हारे घर में आवेंगे
काफ़िर तुझे अल्लाह ने सूरत तो परी दी
क़ारूँ उठा के सर पे सुना गंज ले चला
क्या कहूँ दिल माइल-ए-ज़ुल्फ़-ए-दोता क्यूँकर हुआ
क्या कुछ न किया और हैं क्या कुछ नहीं करते
क्यूँकर न ख़ाकसार रहें अहल-ए-कीं से दूर
क्यूँकि हम दुनिया में आए कुछ सबब खुलता नहीं
ख़्वाह कर इंसाफ़ ज़ालिम ख़्वाह कर बेदाद तू
गालियाँ तनख़्वाह ठहरी है अगर बट जाएगी
जब कभी दरिया में होते साया-अफ़गन आप हैं
जब कि पहलू में हमारे बुत-ए-ख़ुद-काम न हो
जिगर के टुकड़े हुए जल के दिल कबाब हुआ
ज़ुल्फ़ जो रुख़ पर तिरे ऐ मेहर-ए-तलअत खुल गई
टुकड़े नहीं हैं आँसुओं में दिल के चार पाँच
तुफ़्ता-जानों का इलाज ऐ अहल-ए-दानिश और है
देख दिल को मिरे ओ काफ़िर-ए-बे-पीर न तोड़
देखो इंसाँ ख़ाक का पुतला बना क्या चीज़ है
न उस का भेद यारी से न अय्यारी से हाथ आया
न दरवेशों का ख़िर्क़ा चाहिए न ताज-ए-शाहाना
न दाइम ग़म है ने इशरत कभी यूँ है कभी वूँ है
न दो दुश्नाम हम को इतनी बद-ख़़ूई से क्या हासिल
नहीं इश्क़ में इस का तो रंज हमें कि क़रार ओ शकेब ज़रा न रहा
निबाह बात का उस हीला-गर से कुछ न हुआ
पान की सुर्ख़ी नहीं लब पर बुत-ए-ख़ूँ-ख़्वार के
पान खा कर सुर्मा की तहरीर फिर खींची तो क्या
बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
भरी है दिल में जो हसरत कहूँ तो किस से कहूँ
मर गए ऐ वाह उन की नाज़-बरदारी में हम
मैं हूँ आसी कि पुर-ख़ता कुछ हूँ
मोहब्बत चाहिए बाहम हमें भी हो तुम्हें भी हो
या मुझे अफ़सर-ए-शाहाना बनाया होता
याँ ख़ाक का बिस्तर है गले में कफ़नी है
ये क़िस्सा वो नहीं तुम जिस को क़िस्सा-ख़्वाँ से सुनो
रुख़ जो ज़ेर-ए-सुंबल-ए-पुर-पेच-ओ-ताब आ जाएगा
लगता नहीं है दिल मिरा उजड़े दयार में
वाँ इरादा आज उस क़ातिल के दिल में और है
वाँ रसाई नहीं तो फिर क्या है
वाक़िफ़ हैं हम कि हज़रत-ए-ग़म ऐसे शख़्स हैं
वो सौ सौ अठखटों से घर से बाहर दो क़दम निकले
शमशीर-ए-बरहना माँग ग़ज़ब बालों की महक फिर वैसी ही
शाने की हर ज़बाँ से सुने कोई लाफ़-ए-ज़ुल्फ़
सब रंग में उस गुल की मिरे शान है मौजूद
हम ने तिरी ख़ातिर से दिल-ए-ज़ार भी छोड़ा
हम ये तो नहीं कहते कि ग़म कह नहीं सकते
हवा में फिरते हो क्या हिर्स और हवा के लिए
हिज्र के हाथ से अब ख़ाक पड़े जीने में
है दिल को जो याद आई फ़लक-ए-पीर किसी की
होते होते चश्म से आज अश्क-बारी रह गई

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