बुधवार, 2 दिसंबर 2015

अल्ताफ हुसैनहाली 1837-1914 की गजलें

प्रस्तुति- आत्म स्वरूप
अब वो अगला सा इल्तिफ़ात नहीं
इश्क़ को तर्क-ए-जुनूँ से क्या ग़रज़
उस के जाते ही ये क्या हो गई घर की सूरत
कब्क ओ क़ुमरी में है झगड़ा कि चमन किस का है
कर के बीमार दी दवा तू ने
कह दो कोई साक़ी से कि हम मरते हैं प्यासे
कोई महरम नहीं मिलता जहाँ में
ख़ूबियाँ अपने में गो बे-इंतिहा पाते हैं हम
ग़म-ए-फ़ुर्क़त ही में मरना हो तो दुश्वार नहीं
गो जवानी में थी कज-राई बहुत
घर है वहशत-ख़ेज़ और बस्ती उजाड़
जीते जी मौत के तुम मुँह में न जाना हरगिज़
जुनूँ कार-फ़रमा हुआ चाहता है
दिल को दर्द-आश्ना किया तू ने
दिल से ख़याल-ए-दोस्त भुलाया न जाएगा
धूम थी अपनी पारसाई की
बात कुछ हम से बन न आई आज
बुरी और भली सब गुज़र जाएगी
मैं तो मैं ग़ैर को मरने से अब इंकार नहीं
रंज और रंज भी तन्हाई का
वस्ल का उस के दिल-ए-ज़ार तमन्नाई है
वाँ अगर जाएँ तो ले कर जाएँ क्या
हक़ वफ़ा के जो हम जताने लगे
हक़ीक़त महरम-ए-असरार से पूछ
हश्र तक याँ दिल शकेबा चाहिए
है जुस्तुजू कि ख़ूब से है ख़ूब-तर कहाँ
है ये तकिया तिरी अताओं पर

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